जैन साहित्य के प्रमुख कवि एवं विशेषताएँ

जैन साहित्य
जिस प्रकार हिंदी के क्षेत्र में सिद्धों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान मत का प्रचार किया उसी प्रकार पश्चिमी क्षेत्र में जैन साधुओं ने अपने मत का प्रचार किया । इसकी मुख्य दो शाखाएं हैं। एक दिगम्बर और दूसरी श्वेताम्बर । श्वेताम्बर जैन साधुओं कवियों विद्वानों का इस समय का क्षेत्र राजस्थान और गुजरात रहा है।  महामानव बुद्ध के समान महावीर स्वामी ने भी अपने धर्म का प्रचार लोक भाषा के माध्यम से किया है। इसी प्रकार जैन धर्म के अनुयायियों को अपने धार्मिक सिद्धांतों का ज्ञान अपभ्रंश में प्राप्त हुआ।जैन मुनियोंने अपभ्रंश भाषा में प्रचुर मात्रा में रचनाएँ लिखी है, जो धार्मिक है। वैसे तो जैन उत्तर भारत में जहां तहाँ फैले रहे। किंतु आठवीं से 13 वी शताब्दी तक काठियावाड गुजरात में इनकी प्रधानता रही है। वहां के चालुक्य राष्ट्रकूट और सोलंकी राजाओं पर इनका पर्याप्त प्रभाव रहा।
      महावीर स्वामी का जैन धर्म हिंदू धर्म के अधिक समीप है। जैनों के यहां भी परमात्मा तो है पर वह सृष्टि का नियामक न होकर चित्त और आनंद का स्रोत है। उनका संसार से कोई संबंध नहीं प्रत्येक मनुष्य अपनी साधना और पुरुष से परमात्मा बन सकता है। इन्होंने जीवन में अहिंसा, त्याग, करुणा, दया का महत्वपूर्ण स्थान बताया है।
        जैन मुनियों ने अपभ्रंश में प्रचुर मात्रा में रचनाएं लिखी, जो धार्मिक है। इनमें संप्रदाय की रीति-नीति का पद्यबद्ध उल्लेख है। अहिंसा, कष्ट, सहिष्णुता, विरक्ति और सदाचार की बातों का इन में वर्णन है। जैन साहित्य में पुरान साहित्य, चरित काव्य, कथा काव्य एवं रहस्यवादी काव्य भी लिखे गए हैं। पूरान संबंधी आख्यानों के रचियेताओं में स्वयंभू, पुष्पदंत, हरिभद्र सूरि, विनय चंद्र सूरी, धनपाल, जोइंदु तथा राम सिंह का विशेष स्थान है। जैन ग्रंथों में देवसेन कृत 'श्रावकाचार', 'दर्शन सार', स्वयंभू कृत 'ब्रह्मचर्य ', आदि प्राचीन जैन काव्य माने जाते हैं । जैन रासक या रास काव्य परंपरा में 'भरतेश्वर बाहुबली रास', 'स्थूलि भद्रा रास', विजयसेन सूरी का 'रेवंतगिरी रास', उल्लेखनीय है। इन सभी में स्वयंभू को प्रथम जैन कवि माना जाता है।
 जैन कवि एवं उनकी रचना का संक्षिप्त परिचय
 1) श्रावकाचार - देवसेन
जैन ग्रंथों में सर्वप्रथम ग्रंथ देव से कृत श्रावकाचार 936 ईस्वी का माना जाता है। देवसेन एक अच्छे कवि तथा उच्च कोटि के  विद्वान थे। इनका अपभ्रंश का एक काव्य मिलता है। हिंदी के अन्य रचनाओं में 'लघुमय चक्र और 'दर्शन सार' 'श्रावकाचार' में 250 दोहे हैं। उसमें श्रावक धर्म का प्रतिपादन किया गया है। इसमें ग्रहस्थ धर्म का विस्तार से विवेचन मिलता है। इसकी रचना दोहा छंद में ही है।
2) भरतेश्वर बाहुबली रास - शालिभद्र सूरि
इसकी रचना 1114 इसवी में शालिभद्र सूरी ने की थी। यह अपने समय के प्रसिद्ध जैन कवि आचार्य तथा अच्छे कवि थे। इस ग्रंथ में भरतेश्वर तथा बहु बली का चरित्र वर्णन किया गया है। भरत आयु में बड़े थे और अधिक पराक्रमी थे वह अयोध्या के राजा बनाए गए थे और बाहूबली को तक्षशिला का राज्य मिल गया था। कवि ने इन दोनों राजाओं की वीरता युद्धों का विस्तार से वर्णन किया है। हिंसा और वीरता के पश्चात विरक्ति और मोक्ष के भाव प्रतिपादित किए गए हैं। वीर और श्रृंगार रसों का निर्वेद में अंत हुआ है। 250 शब्दों में रचित यह एक सुंदर खंड काव्य है। इसकी भाषा में नाटकीयता उक्ति वैचित्र्य तथा रचनात्मकता के सर्वत्र दर्शन होते हैं ।आगे की रास या रासो रचनाओं को इस ग्रंथ में अनेक रूपों में प्रभावित किया है। अली जिन विजय ने इस ग्रंथ को जैन साहित्य की रास परंपरा का प्रथम ग्रंथ माना है।
3) चंदनबाला रास- आसगु
 यह 35 शब्दों का एक लघु काव्य है जिसकी रचना 1280 के लगभग आसगु नामक कवि ने मालवा में की थी इसकी कथा नाई का चंदनबाला चंपानगरी के राजा पर एक बार कौशांबी के राजा शतामिक ने चंपा नगरी पर आक्रमण किया था ।सेनापति ने चंदनबाला का अपहरण किया और उसे एक शेठ को बेच दिया। शेठ की स्त्री ने उसे बहुत कष्ट दिया। चंदनबाला अपने सतीत्व पर अटल रही और दुख सहन करते हुए महावीर से दीक्षा लेकर मोक्ष की प्राप्ति की।इस प्रकार लघु कथानक पर आधारित यह जैन रचना करुण रस से भरी है।
4) स्थूलिभद्र रास - जिन धर्म सूरी
1209 ईस्वी में रचित इस काव्य के कवि जिन धर्म सूरी है।स्थूलि भद्रा और कौशल में अन्य रचनाएं भी मिलती है। किंतु इन सभी रचनाओं में उनका प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। कौषा के बाद भौगोलिक स्थान पर आने वाले स्थूलि भद्र को जैन धर्म की दीक्षा देने के बाद मोक्ष का अध्य अधिकारी माना गया। इसकी भाषा का मूल रूप हिंदी है इस पर अपभ्रंश भाषा का भी प्रभाव देखने को मिलता है ।
5) रेवंत गिरीराज कवि विजय सेंचुरी यह विजय सेंचुरी की काव्य रचना है यह इसमें 1228 में लिखी गई रचना है जैन तीर्थकर का महत्व प्रतिपादित किया गया है इसमें गिरीन आर के जैन मंदिरों के पुनरुद्धार की कथा है यह रचना चार कड़वा को में विभक्त है इसमें 80 छंद है यह गीत नृत्य पर क्रश प्रतीत होता है इसका आरंभ तीर्थ ईश्वर अंबिका देवी की वंदना से होता है यह रचना राशि के रूप में खेलने योग्य है नेमिनाथ रास सुमति गनी इस काव्य की रचना सुमति गनी ने 1231 में की थी 58 शब्दों की इस रचना में कवि ने नेमिनाथ का चरित्र सरल शैली में प्रस्तुत किया है नेमिनाथ की भाषा अपभ्रंश से प्रभावित राजस्थानी हिंदी है जैन साहित्य के अंतर्गत यह उल्लेखनीय है इसके का विभिन्न प्रकार के हैं हम्मीर रासो नामक वीर काव्य की रचना की अनेक विद्वानों ने रचना की है प्रारंभिक जैन साहित्य के दोहे चौपाइयों पद्धति पर चरित काव्य एवं आख्यान काव्य का निर्माण हुआ हिंदी साहित्य में और अपभ्रंश शैली में विशेषता अनेकता ग्रहण की जैन धर्म के दो प्रधान संप्रदाय दिगंबर और श्वेतांबर से पुरानी हिंदी में केवल दिगंबर धर्मियांचे पुरानी हिंदी की रचनाएं निर्मित हुई थी उनकी रचनाएं आज तक उपलब्ध नहीं है सोता रचनाएं गुजराती में लिखी गई है और अधिक हिंदी में है वास्तव में जैन धर्म में हिंदी साहित्य के विकास में बहुत बड़ा योगदान दिया है हिंदी साहित्य के आदिकाल में तीर्थकरों की जीवनी सांसारिक वर्णन के द्वारा इन कवियों ने अपने सिद्धांतों का प्रचार किया ठीक इसी प्रकार ब्राह्मणों ने पुराणों द्वारा तथा जातक कथाओं के द्वारा अपने सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं।
 जैन साहित्य की विशेषताएं
विषय की विविधता जैन साहित्य धार्मिक साहित्य होने के बावजूद सामाजिक धार्मिक ऐतिहासिक विषयों के साथी लोक आख्यान की कई कथाओं को अपनाता है रामायण महाभारत संबंधी कथाओं को भी जयन कवियों ने दक्षता के साथ अपनाया है अतः सामाजिक विषयों के संबंध में चयन रचनाओं में लगभग सभी प्रकार के विषय वस्तु पाए जाते हैं।
2) उपदेश मूलकता
 यह जैन साहित्य की प्रमुख प्रवृत्ति है। जिसके मूल में धर्म के प्रति दृढ़ आस्था और उसका प्रचार है । इसके लिए जैन कवियों ने दैनंदिन जीवन की घटनाएं आध्यात्मिक तत्व, चरित नायको, पुरुषों का आदर्श और तपस्वियों तथा पात्रों के जीवन का वर्णन किया है।
3) तत्कालीन स्थितियों का यथार्थ चित्रण
जैन कवि राजाश्रय से रहित कवि थे। राजाश्रय का दबाव और दरबारी संस्कृति जैन साहित्य पर नहीं है । इसलिए उनकी रचनाओं में तत्कालीन स्थितियों का यथार्थ चित्रण प्राप्त होता है। आदि कालीन आचार विचार, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक स्थितियों पर सही प्रकाश डालने में यह रचनाएं पर्याप्त रूप में सहायक होती है।इसलिए तत्कालीन समाज को परखने में आसानी होती है।
4) विश्वासनीय साहित्य
जैन साहित्य आदिकालीन अन्य साहित्य की अपेक्षा अधिक विश्वसनीय माना जाता है।सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य की रचनाएं अधिकांश 17वी शताब्दी की महसूस होती है, किंतु 11 वी से 15 वी शताब्दी तक बोलियां तथा प्रांतीय भाषा में लिखा हुआ यह साहित्य अनेक हस्तलिखित प्रतियो में सुरक्षित है। इसलिए जैन साहित्य विश्वसनीय माना जा सकता है।
5) शांत या निर्वेद रस की प्रमुखता
 जैन साहित्य में करुण, वीर, श्रंगार आदि सभी रसों का परिपाक हुआ है। जैन साहित्य के अंत में निश्चित ही शांत या निर्वेद रस प्रधान रूप में दिखाई देता है। इसलिए जैन साहित्य में शांत रस की प्रधानता पाई जाती है।कुछ कवियोने श्रृंगार रस का कथावो में उपयोग किया है।
6) काव्य रूपों में विविधता
काव्य रूपों के क्षेत्र में भी जैन साहित्य विविध रूपों से संपन्न है। लेकिन प्रमुख रूप से दो रूप मिलते हैं। एक प्रबंध और दूसरा मुक्तक। जिससे अपभ्रंश साहित्य की वृद्धि हुई।इसके साथ इसमें रास, फागु, छप्पय प्रबंध, गाथा, गीत महात्मा, स्फूर्ती, उत्साह आदि प्रकार पाए जाते हैं।
7) लोकभाषा की प्रतिष्ठा
अपभ्रंश से निकली हुई हिंदी प्राचीन रूप में मिलती है। भाषा गद्य रूप में कम मिलती है। जैन साधु ग्राम-ग्राम नगर-नगर घूम कर धर्म प्रचार करते थे। इसलिए उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के लिए लोक भाषा का प्रयोग किया था और उसे प्रतिष्ठा प्रदान की थी।
8) गद्य की प्राचीनतम रचनाओं का साहित्य अनेक पद्य रचनाओं के साथ गद्य रचना जैन कवियों ने की हुई दिखाई देती है।अर्चना, अलंकार बाल शिक्षा, बालबोध, कल्याण उपदेश, आदि अनेक रचनाएं जैन लेखकों की उपलब्धि है। पद्य के साथ-साथ गद्य काव्य को जन्म देने का श्रेय भी आदिकाल के हिंदी जैन साहित्य को है।
9) लौकिक और अलौकिक का आतंरिक परिचय
जैन साहित्य में लौकिक और अलौकिक दोनों का आतंरिक परिचय दिया गया है।
10) तीर्थकर 24 और चक्रवर्ती 12 बताएं गए हैं।
पुरुषों से सम्बंधित जैन साहित्य में 24 तीर्थकर और 12 चक्रवर्ती बताएं गए हैं।जैन गद्य साहित्य में प्रेम कथा की अनेक रचनाएँ हुई है। लौकिक और अलौकिक के अनेक संकेत इन रचनाओं में मिलते हैं।
11) जैन धर्म में अधिक और विशेषकर महत्व सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चरित्र पर अधिक विवेचन किया गया है।
12) दार्शनिक पक्ष पूर्ण रूप से तर्क पर आधारित है। मुख्यतः सात तत्वों की बात की गई है।(जीव, अजीव, वास्तव, कर्मबंध, संवर, निर्जरा और मिथ्या)
जैन मुनियों ने अपभ्रंश और हिंदी दोनों भाषा में काव्य रचना की है जिनमें स्वयभुदेव, पुष्पदंत, धनपाल आदि की रचनाएँ अपभ्रंश की है और शालीभद्रसूरि, विनय चंद सुरि, धर्मसुरि, विजयसेन सुरि की रचनाएँ आरंभिक हिंदी की मानी जा सकती है।
इस प्रकार जैन साहित्य की विशेषताओं पर प्रकाश डाला जा सकता है।

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