प्रगतिवादी कविता की विशेषताएँ ( प्रगतिवाद 1936 -38 से 1943)

प्रगतिवादी कविता की विशेषताएँ
प्रगतिवाद 1936 -38 से 1943
 प्रस्तावना:-
 प्रगतिवाद हिंदी साहित्य की एक काव्य धारा का नाम है l  इसका अर्थ है आगे बढ़ना l  जो साहित्य आगे बढ़ने में विश्वास रखता है, आगे बढ़ने में सहायक है, उसे प्रगतिवादी कह सकते हैं l अंग्रेजी प्रोग्रेसिव का हिंदी अनुवाद प्रगतिवाद है l सन 1935 ई में ई.एम. फॉस्टर के सभापतित्व में पेरिस में प्रोग्रेसिव एसोसिएशन नामक अंतरराष्ट्रीय संस्था का प्रथम अधिवेशन हुआ था l सन 1936 में सज्जाद जहीर और मुल्क राज आनंद के प्रयत्नों से भारत में इस संस्था की शाखा खुली और प्रेमचंद की अध्यक्षता में लखनऊ में इसका प्रथम अधिवेशन हुआ l
 आधुनिक संदर्भ में प्रगतिवाद एक विशिष्ट अर्थ का द्योतक है छायावाद की सूक्ष्मता और कल्पना को त्याग कर जीवन और जगत के धरातल पर अपनी भावाभिव्यक्ति करने वाला आज का कवि प्रगतिवादी कहा जा सकता है l इस तरह यह प्रगतिवाद एक विशेष ढंग का और एक विशेष दिशा का द्योतक है l उसकी एक विशिष्ट परिभाषा है l  डॉ नगेंद्र के शब्दों में इस परिभाषा का आधार द्वंद्वात्मक भौतिकवाद है l
प्रगतिवादी कविता साहित्य की विशेषताएं/ प्रवृतियां
१) रूढ़ी का विरोध
प्रगतिवादी साहित्यकार ईश्वर को सृष्टि का कर्ता न मानकर जागतिक द्वन्द को सृष्टि के विकास का कारण स्वीकार करता है l उसे ईश्वर की सत्ता, आत्मा, परलोक, भाग्यवान, धर्म, स्वर्ग, नरक आदि पर विश्वास नहीं है l उसकी दृष्टि में मानव की महत्ता सर्वोपरि है l उसके लिए धर्म एक अफीम का नशा है l इसलिए वह किसी भी धर्म को नहीं मानता है l वह अंधविश्वास से ऊपर उठने की बात करता है l इसलिए परंपरागत रूढ़ियों का विरोध करता है l
जैसे-
‘’भ्रांत यह अतिरंजित इतिहास
 व्यर्थ के गौरव गान
 दर्द से एक महान पर म्लान
किसी को आर्य, अनार्य,
किसी को यवन
किसी को हुण-यहूदी-द्रविड़
किसी को शीश
किसी को चरण
मनुज को मनुज न कहना आह l”
२) शोषक वर्ग के प्रति घृणा का प्रचार
 समग्र प्रगतिवादी साहित्य में पूंजीपतियों के प्रति घोर घृणा का भाव व्यक्त किया गया है l  प्रगतिवादी लेखक समझता है कि पूंजीपति निर्धनों का रक्त चूस-चूस कर सुख की नींद सोते हैं l कवि यह नहीं चाहता कि एक व्यक्ति तो वातानुकूलित कक्षों में विश्राम करें और दूसरा सड़कों पर पड़ा - पड़ा वस्त्र अभाव के कारण जाड़ों में ठिठुरता रहे l इसलिए वह शोषित वर्ग में शोषक वर्ग के प्रति घृणा का भाव भरना चाहता है l शोषितों को शोषकों के विरुद्ध क्रांति करने के लिए आह्वान करता है l प्रगतिवादी लेखक ने पूंजी पतियों के अत्यंत घृणित चित्र उतारे हैं l
३) धर्म, ईश्वर तथा परलोक का विरोध
प्रगतिवादी साहित्य में धर्म ईश्वर तथा परलोक का विरोध किया गया है l  इसके दो कारण हैं, एक तो यह कि आज के शिक्षित वर्ग का इन सभी बातों पर से विश्वास उठ गया है l  दूसरा इसलिए कि स्वयं मार्क्सवादी विचारधारा में इसका घोर विरोध किया गया है l प्रगतिवादी लेखक की यह धारणा है कि शोषित वर्ग अपनी दयनीय दशा का कारण शोषकों को नहीं वरन अपने भाग्य को मानता है l इसीलिए भाग्यवाद को दूर कर शोषकों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए शोषितों को प्रेरित करने के लिए इन सब का विरोध करता है l उसका यह विश्वास है कि जब तक श्रमिक धर्म परायण, ईश्वरवादी तथा भाग्य पर निर्भर रहने वाला होगा तब तक वह हिंसात्मक क्रांति के लिए कभी प्रस्तुत नहीं होगा l शोषक वर्ग इन्हीं अध्यात्मवादी मान्यताओं पर शोषित वर्ग पर अत्याचार करता है l
४) शोषित वर्ग की दीन स्थिति का वर्णन
प्रगतिवादी साहित्यकार का उद्देश्य शोषक एवं शोषितों के बीच क्रांति खड़ी कर देना हैl  वे तो कहते हैं कि “कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल-पुथल मच जाए l”
 कवि शोषितों की दयनीय अवस्था का वर्णन करता हुआ उन्हें आराम का जीवन व्यतीत करने वाले शोषकों के विरुद्ध क्रांति के लिए प्रेरित करता है l
प्रगतिवादी कवियों पर रूस और रूस के राजनीतिक नेताओं का प्रभाव बहुत अधिक पड़ा है l उन्होंने उन सभी का गुणगान भी किया है l लाल रूस का गुणगान करते हुए वे कहते हैं  -
“लाल रूस है ढाल साथियों मजदूरों और किसानों की वहां राज्य है पंचायत का वहां नहीं है बेकारी l”
५) नारी विषयक नवीन दृष्टिकोण
प्रगतिवादियो ने नारी के विषय में सर्वथा नूतन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है । अब तक या तो नारी केवल उपभोग की वस्तु समझी जाती थी, जैसे रीतिकलीन साहित्य ने उसके स्वस्थ रूप को प्रस्तुत किया है l प्रगतिवादी साहित्यकार ने नारी को पुरुष की भांति स्थूल सृष्टि का एक अंग माना है l उसने उसको अधिकार भी देने की बात की है, जितने पुरुष को प्राप्त है l यथार्थवादी दृष्टि को स्वीकारने के कारण प्रगतिवादी साहित्यकारों ने कहीं-कहीं वासना के नग्न चित्र भी खींचे है l वही नारी मुक्ति के स्वर भी है l
 पंत ने नारी को मुक्त करने के लिए यह कहा है :-
“मुक्त करो नारी को
मानव चिर बंदिनी नारी को l”
६) यथार्थवादी दृष्टिकोण
 प्रगतिवादी साहित्य में यथार्थ को प्रश्रय मिला है l प्रगतिवादी कवि सुंदर भव्य एवं उदात्त का चित्रण उतना आवश्यक नहीं मानता जितना जीवन के यथार्थ रूप का चित्रण l वर्तमान जीवन में दैन्य, दुःख, शोषण, कठोरता और कुरूपता ही अधिक है l इसीलिए प्रगतिवादी साहित्य में भी उसकी यथार्थ अभिव्यक्ति को प्रधानता दी जाती है l प्रगतिशील साहित्यकार भव्य महान और आदर्श की ओर आकृष्ट न होकर कुरूप, कुत्सित, पतित एवं कठोर सत्य का अंकन करता है l वह ताजमहल की भव्य कलापूर्ण दीवारों के भीतर भी उन्हें खड़ा करने वाले श्रमिक वर्ग की हाहाकार सुनता है l
यथार्थवादी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए कवि मानव तथा प्रकृति को देखते हैं प्रगतिवादी प्रकृति प्रेम का मुख्य कारण ग्राम्य-जीवन के प्रति आकर्षण है l इन कवियों को ग्रामीणों के साथ पूरी सहानुभूति है l पंत ने ‘ग्राम्य-जीवन’ में लिखा है l
 “देख रहा हूं आज विश्व को मैं ग्रामीण नयन से l
 सोच रहा हूं जटिल जगत पर जीवन पर जन-मन से l
 ७) उपयोगितावाद
प्रगतिवादी साहित्य उपयोगितावाद का उपासक है l प्रगतिवादी आलोचक उसी साहित्य को कृति मानता है जिसका मानव जीवन में अधिक महत्व हो l उसकी दृष्टि में सच्चा साहित्य वही है जो जनजीवन को प्रगति के पथ पर अग्रसर करें l
८) मानवतावाद
प्रगतिवादी कवियों के दो समुदाय है - एक तो अपनी मातृभूमि के लिए लिखता है और अपने ही देश के भीख मंगो, किसानों, मजदूरों, वेश्याओं और विधवाओं का उद्धार करना चाहता है l दूसरा समुदाय समस्त मानव का उद्धार करना चाहता है l उसे संसार के सब पीड़ित लोगों से प्यार एवं सहानुभूति है l  इसीलिए नरेंद्र शर्मा कहते हैं –
 “जाने कब तक घाव भरेंगे इस घायल मानवता के?
जाने कब तक सच्चे होंगे, सपने सब की समता के?
९) क्रांति की भावना
साम्यवादी व्यवस्था की प्रतिष्ठा के लिए सामंतवादी परंपराओं का समूल नाश आवश्यक है l केवल परंपराओं का ही नाश पर्याप्त नहीं बल्कि शोषक वर्ग का सर्वथा ध्वंस वांछनीय है l इसलिए कवि क्रांति के लिए प्रगतिवादी कवि क्रांति की उन प्रलयकारी स्वरों की कामना करता है l जिससे उथल-पुथल हो और उसमें सारी रूढ़ियों और परंपराओं का नाश हो l इसलिए बालकृष्ण शर्मा नवीन कहते हैं –
 “कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ
जिससे उथल-पुथल मच जाए l”
 १०) मार्क्स तथा रूस का गुणगान
इस धारा के बहुत से कवियों ने साम्यवाद के प्रवर्तक मार्क्स तथा रूस, जहां उसकी विचारधारा पल्लवित और पुष्पित हुई है l दोनों का उन्मुक्त गान किया है l नरेंद्र शर्मा का लाल रूस का गुणगान देखिए :-
“लाल रूस है ढाल साथियों सब मजदूर किसानों की,
वहां राज्य है पंचायत का वहां नहीं है बेकारी l
लाल रूस का दुश्मन साथी ! दुश्मन सब इंसानों का l
दुश्मन है सब मजदूरों का, दुश्मन सभी किसानों का l”
११) वेदना और निराशा
छायावाद और प्रगतिवाद दोनों में वेदना का चित्रण हुआ है, किंतु प्रगतिवाद की वेदना व्यक्तिगत और सामाजिक है जबकि छायावाद में उसका व्यक्ति रूप अधिक है l  प्रगतिवादी संघर्षों से झुझता हुआ निराश नहीं होता उसे विश्वास है कि वह इस सामाजिक वैषम्य को दूर करने के लिए सफल होगा और वह उस क्षमता के स्वर्ण विहान की आशा करता है l उसकी ओजस्विनी वाणी शोषित वर्ग को स्पूर्ति प्रदान करने उसे अत्याचार के विपरीत मोर्चा लेने के लिए तैयार करती है l प्रगतिवादी इसी संसार को स्वर्ग बनाना चाहते हैं l जिसमें वर्ण भेद, शोषण और रूढ़ियों का नामोनिशान नहीं होगा l
१२) सामाजिक जीवन का यथार्थ चित्रण
प्रगतिवादी काव्य में निम्न वर्ग के जीवन की प्रतिष्ठा हुई है l इससे पहले साहित्य में मध्य वर्ग तथा उच्च वर्ग का जीवन प्रतिबिंबित हुआ था l आज के वैज्ञानिक युग के कवि के सम्मुख अनेक प्रबल भौतिक समस्याएं है l अतः उसे आध्यात्मिकता की चिंता नहीं आज उसे व्यक्ति और समाज के कटु सत्य के सामने ऐश्वर्य, विलास, सुमन, सुरभि और मादक वसंत फ़िके लगते हैं l आज वह आकाश में विचरण करने की अपेक्षा पृथ्वी के जीवन को खुली आंख से देखने और लिखने लगा है l संसार की सात आश्चर्यजनक वस्तुओं में से एक ताजमहल के संबंध में पंत लिखते हैं –
“हाय मृत्यु का ऐसा अमर का पार्थिव पूजन l
जब विशन निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन l”
१३) सामाजिक समस्याओं का चित्रण
प्रगतिवादी कवि देश और विदेश की सामाजिक समस्याओं के प्रति भी अत्यंत सजग रहा है l उसके लिए विश्व संस्कृति और मानवतावाद की प्रतिष्ठा के लिए ऐसा करना आवश्यक भी था l इस साधन के द्वारा उसके साहित्य में जीवन वास्तविक रूप से प्रतिबिंबित हुआ l हिंदुस्तान पाकिस्तान विभाजन, कश्मीर समस्या, बंगाल का अकाल, महंगाई, दरिद्रता, बेकारी और चरित्र हीनता आदि का प्रगतिवादी कवि ने मार्मिक वर्णन किया है l  राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के दारूण निधन पर प्रगतिवादी कवि की आकुल अंतरात्मा फुट निकली-
 “बापू मेरे
अनाथ हो गई भारत माता
अब क्या होगा…..l”
नागार्जुन ने आज की थोथी आजादी पर व्यंग्य करते हुए कहा –
कागज की आजादी मिलती, ले लो दो-दो आने में l”
१४) प्रतीक योजना
नवीन दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति के लिए इन कवियों ने नवीन प्रतीकों को अपनाया है l इनके काव्य में प्रलय, तांडव, मशाल, रथ आदि प्रतीक है l कहीं-कहीं पर इन कवियों ने प्राचीन प्रतीकों को भी अपनाया है परंतु उनको नवीन रूप में भी ग्रहण किया है l
निराला की ‘कुकुरमुत्ता’ कविता में गुलाब के पुष्प को पूंजी पति का प्रतीक माना है l
“अबे सुन बे गुलाब भूल मत
गर पाई रंगो खुशबू आज l”
१५) भाषा शैली
प्रगतिवादी साहित्य का संबंध जनजीवन से होने के कारण इस धारा का साहित्यकार सरल एवं स्वाभाविक भाषा शैली को अपनाने का पक्षपाती है l प्रगतिवादी लेखक जनता के विचारों एवं भावों को व्यक्त करने के लिए नवीन शैली का प्रयोग करता है वह परंपरागत मान्यताओं तथा प्रतीकों का परित्याग कर नवीन विचारधाराओं को व्यक्त करने में सक्षम एवं नूतन उपमानों तथा प्रतीकों की योजना करता है l
छंद के क्षेत्र में भी इन कवियों ने उदार दृष्टिकोण से काम लिया है l वह परंपरागत प्राचीन छंदों का बहिष्कार करके नवीन मुक्तक छंद की ओर बढ़ता है और अतुकांत और मार्मिक शब्दों के साथ इन कवियों ने लोकगीतों को अपनाया है l
१६) कला संबंधी मान्यता
प्रगतिवादी कलाकार जितना अनुभूति के संबंध में चिंतित है उतना ही अभिव्यक्ति पक्ष के संबंध में नहीं l कवि पंत का कहना है –
 “तुम वहन कर सको, जन-मन में मेरे विचार
वाणी मेरी चाहिए क्या तुम्हें अलंकार l”
संघर्षशील कवि को क्रांति की भावना या कलात्मकता में से एक को अपनाना और उसका आरक्षण करना होता है l प्रगतिवादी कवि को क्रांति की भावना के प्रचार के लिए कलात्मकता का बलिदान देना पड़ा क्योंकि इसके बिना वह निम्न वर्ग तक पहुंच ही नहीं सकता था l
 प्रगतिवादी साहित्य पर आक्षेप
प्रगतिवादी साहित्य जीवन दर्शन संकुचित है l
साहित्य अपने मूल रूप में सामाजिक या सामूहिक चेतना नहीं है l
आस्तिक ता के प्रति प्रगतिवादी साहित्य में आस्था नहीं है l
इस काव्य धारा में यथार्थ पर अधिक बल दिया गया है l 
यह काव्य असत के चित्रण पर बल देता है l
भौतिक सुखों की इस काव्य की सीमा है l
शोषित वर्ग के प्रति मौखिक सहानुभूति मिलती है l
नारी के प्रति इन कवियों का दृष्टिकोण स्वस्थ नहीं है l
इन कवियों के सामने किसी निश्चित आदर्श की प्राप्ति करने का आदर्श नहीं है l
प्रगतिवादी साहित्य साहित्य कम है और समाजशास्त्रीय अध्ययन अधिक है l


 डॉ. पी. महालिंगे

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