द्विवेदी युगीन प्रमुख कवि परिचय एवं द्विवेदी युगीन कविता की विशेषताएँ


महावीर प्रसाद द्विवेदी युग / पूर्व छायावाद युग (१९०० से १९२०)
      भारतेन्दु युग के काव्य विकास का दूसरा चरण महावीर प्रसाद द्विवेदी युग में आरम्भ हुआ | भारतेन्दु युग में राजभक्ति, देशभक्ति और समाज-सुधार की कविता होती थी | कविता के लिए ब्रजभाषा का प्रयोग होता था | गद्य में खड़ीबोली का प्रयोग होता था | द्विवेदी युग में आकर राजभक्ति समाप्त हो गई | महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ब्रजभाषा ही काव्य की भाषा न रहे बल्कि खड़ीबोली में गद्य और पद्य के प्रयोग पर भी बाल दिया | महावीर प्रसाद द्विवेदी ने स्वयं खड़ी बोली में कविता लिखी | उनके अनुकरण पर श्रीधर पाठक, नाथूराम शर्मा शंकर, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ आदि ने ब्रज भाषा छोड़कर खड़ी बोली में काव्य रचना प्रारंभ की | इस युग में एक अदभुत प्रयास के फलस्वरूप जो कविता आयी उसमें भावुकता के स्थान पर इतिवृतात्मकता की प्रधानता रही |
महावीर प्रसाद द्विवेदी और उनके युग के प्रमुख कवि का संक्षिप्त परिचय :-     
१)      महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म (१८६४ – १९३८)
       भारतेन्दु के पश्चात सबसे प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले महावीर प्रसाद द्विवेदी देखने में आते हैं | द्विवेदीजी बड़े कर्मठ व्यक्ति थे | उन्होंने संस्कृत, हिंदी, गुजराती, मराठी, बंगला, आदि भाषओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था | भारतेंदु के स्वर्गवास के बाद सन १९०३ से १९२० तक इन्होने ‘सरस्वती’ नामक पत्रिका का संपादन किया था l इनकी कार्य कुशलता और श्रम के सर्वत्र प्रसार के कारण इनके समय को इनके नाम से ही महावीर प्रसाद द्विवेदी युग कहा गया है l इनके सारे ग्रंथों की संख्या लगभग ८० बताई जाती हैं | इनकी प्रमुक काव्य- कृतियाँ, ‘काव्य मंजूषा’, ‘सुमन’, ‘गंगालहरी’, ‘ऋतु तरंगिणी आदि है | इनके काव्य में इतिवृतात्मकता की प्रधानता है |
२) प. नाथूराम शर्मा शंकर (१८५९-१९३२)
      ये प्रताप नारायण मिश्र के साथी थे कविता करने नी इनकी बड़ी रूचि थी तत्कालीन वातावरण के अनुसार ये समस्यापूर्ति करते थे | ये अपना उपनाम शकर रखकर कवितायें लिखते थे | इनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ “अनुराग रत्न’, ‘शंकर सरोज’, ‘शंकर सर्वस्व’, आदि हैं |
३) श्रीधर पाठक (१८५९-१९२८)
       श्रीधर पाठक खड़ीबोली के प्रथम कवि माने जाते हैं | इन्होने समाज सुधार से सम्बन्ध रखनेवाली कविता की है | इनके काव्य में प्रकृति की सुषमा का भी अच्छी तरह से चित्रण हुआ है | इनकी प्रमुक काव्य कृतिया है – ‘काश्मीर सुषमा’, ‘देहरादून’, 'भारत गीत' आदि |
४) अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध
       अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' का जन्म १८६५ में अजमगड़ जिले के निजामाबाद नमक क़स्बे में हुआ | 'हरिऔध' जी का समय ऐसा था जब लोग साहित्य की ओर झुकते थे तो काव्य, गध्य, नाटक, उपन्यास, सभी विधाओं को अपनाते थे | इनकी रचनाएँ भी कई विधाओं में मिलती हैं | इनके प्रमुख काव्य – श्रीकृष्ण शतक, रुक्मिणी परिणय, प्रियप्रवास, 'वैदेही वनवास' आदि |
५) मैथिलीशरण गुप्त
      मैथिलीशरण गुप्त का जन्म सन १८८६ ई. में चिरगाँव, जिला झाँसी में हुआ था l इनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव के विद्यालय में हुई थी l इन्होंने संस्कृत, बंगला, मराठी, अंग्रेजी आदि का अभ्यास किया था l हिंदी जगत में मैथिलीशरण गुप्त के काव्य की बहुत सराहना हुई है l सम्पूर्ण राष्ट्र की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करनेवाले रचनाओं के कारण और स्वदेश प्रेम के स्वर को मुखरित करते रहने के कारण उन्हें ‘राष्ट्र कवि’ माना गया l गुप्त जी ने लगभग ४० काव्य ग्रंथों की रचना की है l उनमें प्रमुख हैं – 'साकेत', 'जयभारत', 'रंग में भंग', 'जयद्रथ वध', 'पंचवटी', 'यशोधरा', 'विष्णुप्रिया' आदि अनेक काव्य ग्रन्थ लिखे हैं l  
६) सियाराम शरण गुप्त
ये मैथिलीशरण गुप्त के छोटे भाई थे l इनका जन्म १८९५ में हुआ था l इनका जीवन अनेक शारीरिक एवं मानसिक रोगों से त्रस्त रहा l इन्होंने अनेक साहित्यिंक विधाओं में अपनी रूचि दिखाई है l उनका विशेष रचना क्षेत्र कविता है l इसके अतिरिक्त कथा साहित्य, नाटक, निबंध, चरित काव्य, प्रबंध काव्य, लिखे हैं l प्रबंध काव्य में 'मौर्यविजय', 'अनाथ', 'नकुल' आदि हैं l


द्विवेदी युगीन कविता की विशेषताएँ
भारतेंदु-युग के काव्य विकास का दूसरा चरण महावीर प्रसाद द्विवेदी –युग में आरंभ हुआ। भारतेंदु युग में राजभक्ति, देशभक्ति और समाजसुधार की कविता होती थी। द्विवेदी युग में आकार राजभक्ति  समाप्त हो गयी । इस समय खड़ीबोली में कविता लिखने पर जोर दिया जा रहा था। द्विवेदी ने स्वयं खड़ीबोली में कविता लिखना शुरू किया था । इनके साथ श्रीधर पाठक, नाथूराम शर्मा 'शंकर', अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिओंध’ आदि ने ब्रजभाषा को छोड़कर खड़ीबोली में काव्य रचना प्रारंभ की इस युग में एक अदभुत प्रयास के फलस्वरूप जो कविता आयी उसमें भावुकता के स्थान पर 'इतिवृतात्मकता' की प्रधानता रही ।
1)      खड़ीबोली की पूर्ण प्रतिष्ठा
द्विवेदी युग में खड़ीबोली को पूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त हुई | भारतेंदु हरिश्चंद्र के समय में ब्रजभाषा में काव्य-रचना करने की प्रवृत्ति थी पर उस समय भी कुछ प्रयास खड़ीबोली में कविता करने के हुए थे | उनके पश्चात् महावीर प्रसाद दिवेदी के प्रयास से खड़ीबोली को बहुत प्रोत्साहन मिला | श्रीधर पाठक जैसे खड़ीबोली के समर्थक सामने आये | सबसे बड़ी बात यह है कि जो लोग ब्रजभाषा में कविता लिखते थे वे उसे छोड़कर इस युग में खड़ीबोली को अपनाया | मैथिलीशरण गुप्त ने सबसे पहले खड़ीबोली में 'जयद्रथ वध' खंडकाव्य लिखा | इसके साथ और भी खड़ीबोली की रचनाएँ सामने आयी |
२) राष्ट्र भावना :-
इस युग की काव्य रचना का मुख्य स्वर राष्ट्रभावना का उत्थान है | इस समय कांग्रेस की अच्छी प्रकार स्थापना हुई थी | लोगोंने अंग्रेजी शासन के झूठे वायदों से यह समझ लिया था कि उनसे स्वतंत्र होने में ही जन और देश का कल्याण है | मैथिलीशरण गुप्तजी की इस तरह की वाणी ने जनता में बड़ा उत्साह भर दिया –
“हम कौन थे, क्या हो गए है और क्या होंगे अभी |
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएं सभी |”
 ३) समाज सुधार की भावना :-
द्विवेदी युग में समाज सुधार की भावना और भी आगे बढ़ी थी | कवियों ने अपने देश में व्याप्त अनेक कुरीतियों का वर्णन करके उसमें सुधार की अपेक्षा रखी | श्रीधर पाठक ने विधवाओं की दयनीय स्थिति का वर्णन किया है | नाथूराम शर्मा ने भी समाज की कुरीतियों पर प्रहार किया है | बाल विवाह, स्र्त्री सुधार, शिक्षा प्रसार आदि सामाजिक भावों को कविता में व्यक्त किया गया | किसान, दलित, त्रस्त जन मजदूर के दुःख दर्द को व्यक्त किया गया है |
४) काव्य रूपों की विविधता
द्विवेदी युग की कविता में अनेक प्रकार के काव्य रूपों का प्रयोग  देखने में आता है | विभिन्न विषयों पर लिखी गई कविताओं में मुक्तक-काव्य है | इसके साथ ही प्रबंध काव्य लिखे गए | अयोध्यासिंह उपाध्याय ने ‘प्रियप्रवास’ महाकाव्य लिखा उनका ‘वैदेही वनवास’ और रामचरित उपाध्याय का ‘रामचरित चिंतामणि’ भी इसी समय लिखे गए |
 ५) छंदों की विविधता
     छंदों के प्रयोग की दृष्टि से द्विवेदी युग पर्याप्त संपन्न है | हिंदी में प्राचीन काल से प्रयोग में चलते आ रहे छंद जैसे दोहा, कविता, सवैया, रोला, हरिगीतिका, ताटंक आदि का प्रयोग होता रहा है | इसके साथ ‘हरिऔध' जी ने उर्दू के छन्द और संस्कृत के वर्णिक छंदों का प्रयोग किया है |
  ६) अनुवाद करने की प्रवृत्ति
     इस युग में अनुवाद की ओर बहुत सारे कवियों का ध्यान गया है | मैथिलीशरण गुप्त ने माइकेल मधुसुदन के मेघनाद-वध का अनुवाद किया | श्रीधर पाठक ने गोल्ड स्मिथ के कई ग्रंथो का अनुवाद किया | इस अनुवाद कार्य के पीछे भावना प्राय: यही रही है कि हिंदी की खड़ी बोली का साहित्य किसी न किसी प्रकार से समृद्ध बनना चाहिए | महावीर प्रसाद द्विवेदी स्वयं इसके पक्षधर थे |
  ७) इतिव्रतात्मकता
     द्विवेदी युगीन काव्य की एक विशेषता उसकी इतिव्रतात्मकता है | इतिवृत्त कहते हैं, वृतांत को, वर्णन को | इस युग में कवि कोई बात कहना चाहता है | एक विचार व्यक्त करना चाहता है | वह कोई न कोई कथा होगी | एक वस्तु होगी | उसमें रसात्मकता की गुंजाईश इस काल के कवियों ने नहीं निकाली | द्विवेदी युग की अतिशय इतिव्रतात्मकता की प्रतिक्रिया में छायावाद का जन्म हुआ |
 ८) प्रकृति चित्रण
     भारतेन्दु युग में प्रकृति-चित्रण पुरानी बंधी-बंधाई परंपरा पर होता रहा | वस्तुतः भारतेंदु युग के कवि का मन मानव के बाह्य व्यवहारों के वर्णन में अधिक रमा, प्रकृति के मनोरम रूप की ओर कम गया, किन्तु द्विवेदी युग के कवि का ध्यान प्रकृति के यथा-तथ्य वर्णन की ओर गया है | इस काल के अनेक कवियों की दृष्टि प्रकृति के विभिन्न पक्षों पर गई | प्रकृति इस समय कविता का वर्ण्य विषय बन गई | इसी दिशा में श्रीधर पाठक, हरिऔध, गुप्त, रामचंद्र शुक्ल और रामनरेश त्रिपाठी के नाम विशेष उल्लेखनीय है | श्रीधर पाठक ने कश्मीर और देहरादून की प्राकृतिक सुषमा का रमणीय वर्णन इस प्रकार किया है |
“प्रकृति जहाँ एकांत बैठी निज रूप संवारती |
पल-पल पलटति वेश छनिक, छवि, छीन-छीन धारती |”
९) कालानुसरण की क्षमता
      इस काल के प्रायः सभी कवियों में युग की बदलती हुई भावनाओं को आत्मसात करने की शक्ति तथा कालानुक्रमानुसार उद्भूत काव्य रूपों और शैलियों को अपनाने की अपार क्षमता है | गुप्त इस काल के ज्वलंत उदाहरण है | गुप्त ने द्विवेदी युग तथा छायावादी युग की विचारधारा और काव्य रूपों का अपने काव्य में सफल प्रयोग किया है | उर्दू कवि ग़ालिब की निम्न उक्ति इस युग के कवियों पर प्रायः ठीक बैठती है-
“चलता हूँ थोड़ी दूर हर एक तेज रौं के साथ |
पहचानता नहीं हूँ अभी रहबर को मैं |”
१०) बौद्धिकता की प्रधानता
      इस युग का कवि और उसका काव्य दोनों पाश्चात्य संस्कृति के बौद्धिकतावाद से अत्यंत प्रभावित है | इसलिए इस युग के कवि ने प्राचीन भारतीय संस्कृति की बौद्धिकता की व्याख्या की | गुप्त के राम अवतारी राम न होकर आदर्श मानव है, जो कि कोई दिव्य सन्देश नहीं लाए हैं बल्कि निज कर्मों से इस भू को स्वर्गवत् ललाम बनाने आये हैं | इसी प्रकार 'हरिऔध' के कृष्ण और राधा आदर्श समाज सुधारक तथा नेता हैं |
११) देश का अतीत गौरव और संस्कृति
      द्विवेदी युगीन कविता में लोकसेवा, विश्व प्रेम, लोकरक्षा, कर्तव्य, त्याग, नेतृत्व, संघटन, और उन्नयन आदि की अनेक भावनाएँ मिलती हैं | खूबी इस बात की है कि उक्त तत्व भारत के आतीत में भी मिलते हैं | कवि ने आतीत के गौरव का स्मरण दिलाकर वर्तमान के निर्माण का उत्साह भरना चाहा है | इस युग के कवि ने अतीत के दर्शन, कला, साहित्य, विज्ञान और समृध्दी सब का विशद गान किया है | जैसे
“संसार को पहले हामी ने ज्ञान शिक्षा दान की |”
तथा
“वह पुण्य भूमि प्रसिद्ध है, इसके निवासी आर्य है |
विद्या, कला कौशल सभी के, जो प्रथम आचार्य हैं |”
१२) नवीन तथा साधारण विषय
      आचार्य इस सम्बन्ध में लिखते हैं – खड़ीबोली का प्रचार बढ़ता दिखाई दे रहा था और काव्य के प्रवाह के लिए कुछ नई भूमियाँ भी दिखाई पड़ती थी | देश-दशा, समाज-सुधार स्वदेश-प्रेम, आचार सम्बन्धी उपदेश आदि ही तक नई धारा की कविता न रहकर उस के कुछ और पक्षों की ओर भी बढ़ी परन्तु गहराई के साथ नहीं |       

निष्कर्ष : इस अध्ययन से हम समझ सकते हैं कि द्विवेदी युग भारतेंदु युग और छायावादी युग के बीच की कड़ी है l यह युग भारतेंदु युग से प्रभावित रहा और इसके आगे के युग छायावाद को भी प्रभावित किया है l इस युग के कविता की विशेषताएँ मुक्तक गीतात्मकता, भाषा की लाक्षणिकता, रहस्यात्मकता इन सब का मूल इस युग की कविता में हैं l द्विवेदी युग के अंतिम वर्षों में आधुनिक युग की छायावाद और रहस्यवाद की प्रवृत्तियाँ विकसित हुई l इसका सम्बन्ध प्रगतिवाद से भी जोड़ा जा सकता है l      

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