कोरोना पर कविता नहीं
कोरोना पर कविता नहीं
कविता आज कोरोना पर करूँ
कोरोना से मरनेवालों पर करूँ
उन डॉ. नर्सों वार्ड बॉय के
सेवा भाव पर करूँ या
उन नगर पालिका के
सफाई कर्मचारियों पर करूँ
कविता तो उन बेबस मजदूर
किसान, भूख से बिलबिलाते
बच्चे पशुपक्षियों पर भी हो जाएगी ।
घरों में कैद उन बेबस, त्रस्त
बिन सजा के सजा काट रहे
घरके कैदियों पर भी हो सकती है ।
या उन घरों में कैद महिलाओं पर
कैद उन मासूम बच्चों पर करूँ तो
जिन्हें उड़ना था खुले आकाश में
घूमना था खुले मैदानों में वे आज
कैद है चार दीवारों के बीच
कविता तो इस बंद समय में
उन तलबगारों पर भी लिखी जा सकती है
जिनका दारू, शिगरेट और
तम्बाखू के बिना पेट साफ नहीं होता ।
बंद दरवाजों के बीच क़ैद है
विश्व का हर गाँव और शहर ।
आसमान को छूने की चाह में
इन्सान भटक गया रास्ते से
अपने अस्तित्व को भुलकर ।
बहता गया प्रवाह के साथ
बरबस हाथों से बटोरता रहा ।
किस लिये सब कुछ यह
कही तो रुकना था आज
सोचने का वक्त कोरोना ने दिया है ।
कल आपको क्या करना है, सोचो
अपने, मेरे और उनके बारेमें, सोचो
हो सकते है हजार विषय कविता के
पर मेरा उद्देश्य कविता करना नहीं
कोरोना पर बल्कि इसके द्वारा मनुष्य को
मनुष्य के रिश्ते के एहसास से जोड़ना है ।
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