नयी कविता की विशेषताएँ ( सन 1950 से 1960 )
नयी कविता सन 1950 से 1960
नयी कविता की विशेषताएं
पृष्ठभूमि
नयी कविता मूल रूप से तो स्वतंत्रता के पश्चात की बदली हुई मनोस्थिति के भावों की अनुगूंज है। परंतु उसके स्वर में स्वर मिलाने वाले और भी बहुत से बिंदु रेखांकित करने योग्य है । उनमें बहुत सी वे प्रवृत्तियां भी समाविष्ट है जो प्रयोगवादी कविता में आद्योपांत फैली हुई थी। नयी कविता की कुछ उल्लेख करने योग्य प्रवृत्तियां इस प्रकार है।
1) संत्रास, कुंठा, घुटन, दर्द, उबकाई जैसे भावों की अभिव्यक्ति
नयी कविता के कवियों का युग उनके मोह भंग का युग है l स्वतंत्रता से प्राप्त होने वाली आशा आकांक्षाओं का सपना अब टूट चुका था l व्यक्ति ने बढ़ती हुई बेरोजगारी, अत्याचार, अनाचार में जीवन जीने की विवशता को स्वीकार लिया था l इसीलिए उनको अपने को समुचित रूप में ना देखने से संत्रास पैदा होता चला गया l उनके मन में दुख और दुख तथा दर्द और दर्द के दंश तरह-तरह की कुंठाओं को पैदा किया । वह जिस वातावरण में रह रहा था उससे वह उबने लगा। मन ही मन घुटन का अनुभव करने लगा । उस असहनीय परिस्थिति और परिवेश से उसे एक तरह से उबकाई आने लगी । यह सभी मिले जुले भाव व्यक्ति के कष्ट छटपटाहट और कड़वापन को व्यक्त करने वाले हैं। नये कवियों ने अपनी वाणी द्वारा उन्ही भावों की अभिव्यक्ति की क्योंकि वे उन्ही भावों में जीने को विवश हो गये हैं । गिरिजा कुमार माथुर ने इस तरह के भावों को व्यक्त करते हुए कहा है -
"जिंदगी है भार हुई,
दुनिया है बहुत बोर
दंभी पाखंडी बहू रुपिये
हैं बड़े लोग"
2) अस्तित्ववादी चिंतन
नयी कविता में अस्तित्ववादी चिंतन नए कवि की संवेदना का अंग बनकर आया है। भारतीय चिंतन के क्षेत्र में जीजीविषा और मुमुक्षा पर गंभीर विवेचन किया गया है । सभी व्यक्ति जीना चाहते हैं - यह जीजीविषा है मनुष्य संसार के बंधन से छूटना चाहता है, मुक्त होना चाहता है- यह मुमुक्षा है। आधुनिक काल में द्वितीय युद्ध की विभीषिका ने मनुष्य को मृत्यु को वरण करने की स्थिति में ला दिया। अतः मनुष्य की इच्छा मुमुक्षा भी जीवन का एक सत्य दिखाई देने लगी। मनुष्य का मूल्य उसके द्वारा प्रतिष्ठित मूल्यों में सजीव रहता है। वही उसका अस्तित्व है। जो मरने के बाद भी रहता है। प्रसिद्ध कवि अस्तित्ववादी चिंतक मार्सल ने कहा है - "मृत्यु केवल मेरे शरीर को ही नष्ट कर सकती है, मेरे अस्तित्व को नहीं ।" यही कारण है कि अस्तित्ववादी चिंतक मृत्यु से नहीं डरता । वह उसे स्वीकारता है। इसीलिए जीवन की कड़वाहट के अनेक बिंदुओं को वह चुनौती के रूप में लेता है। मृत्यु बोध, क्षण बोध, क्षोभ, निराश, व्यथा, वेदना, असफलता, विरस्ता,ऊब आदि भाव उसके अंग है। नयी कविता के अनेक कवियों ने इन्हें अपनी संवेदना का अभिन्न अंग बनाकर अभिव्यक्ति की है। मृत्युबोध के भावों के तरह-तरह के वर्णन नयी कविता में मिलते हैं। कवि क्रम-क्रम करके मृत्यु को प्राप्त होने वाली स्थिति का वर्णन करते हुए कहता है।
"खांसी के दौर के बाद
गिरा पीला कफ
काले खून के टीके।"
जीवन को उबानेवाली स्थिति भी कभी-कभी मृत्यु को अच्छा समझने लगती है।
"कुछ ना होने से अच्छा है टी.बी. कैंसर या गैनोरिया हो जाए।
कुछ हो तो सही
जिससे अपने अस्तित्व का एहसास हो जाए।"
3) रसानुभूति की अमान्यता
नयी कविता में रस की अनुभूति को स्वीकार नहीं किया जाता । काव्य के लिए परंपरा से प्रसिद्ध काव्य मानदंडो में रस का सबसे अधिक वर्चस्व रहा था । आधुनिक काल में रस सिद्धांत के समर्थक डॉ नगेंद्र ने नयी कविता को भी उसी के घेरे में समझने का प्रयास किया है। और जो कविता रस की अनुभूति की परिधि में नहीं आती उसकी उन्होंने आलोचना की है। परंतु नई कविता के पोषक और पक्षधरों ने माना हैं कि नयी कविता में कवि रसानुभूति को नहीं सहानुभूति और युगीन संवेदना को मूल्य देता है।
4) विद्रोह के स्वर
नयी कविता का समय व्यक्ति और समाज के संघर्ष का युग है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात जिन आदर्श और मूल्यों की कल्पना में व्यक्ति आशावान था वे जर्जरित होते हए दिखाई दी। उसके सुखद सपनों का मोह भंग हो गया । इसीलिए जीवन में निराशा भर गई, समाज के मूल्यों का विघटन होने लगा । राजनीतिक अनाचार और जीवन यापन की विभिन्न समस्याओं ने समाज विक्षोभ से भर गया। इसी कारण विद्रोह की भावना से अनेक कवियों की वाणी भर गई। एक उदाहरण द्वारा विद्रोह का स्वर बड़े सशक्त रूप में उभरा हुआ दिखाई देता है जैसे -
" सदियों से कुचला गया मेरा घायल फन
अब फुफकार कर तन गया है।"
नया कवि अनाचार के प्रति, धर्म के प्रति कडवे शब्द कहते हैं। धर्म जो पुस्तकों में लिखा है उसे कभी मूल्य नहीं देता । समाज भूख से पीड़ित है, कपड़े के अभाव से ग्रस्त हैं, उस समाज में मठ, मंदिर का कोई क्या करेगा इसलिए कवि उसके प्रति विद्रोह के स्वर मुखरित करता है।
" नफरत है मुझे अपने 'धर्म' से
पत्थरों और पोथियों का है मेरा धर्म
नंगे शरीरों और मांगी हुई रोटियों का है धर्म मेरा
नफरत है मुझे अपने मठो और मंदिरों से ।''
नया कवि नवीनता को चाहता है । उसे कितनी भी असुविधा या तंगी हो पर वह जीर्ण पुरातन को नहीं चाहता । उसकी विद्रोह भरी वाणी इन शब्दों में साकार होती है-
"फेंकना चाहता हूं
ये पुराने पंखे
नये पंख आए या न आए
मुझे नंगा ही रहने दो।"
5) अकेलापन और अजनबी पन
समाज और संसार के दख दर्द भरी भाग-दौड और भीड से व्यक्ति का मन इतना भर चुका है कि वह अकेला रहना चाहता है। कई बार वह परिस्थिति और परिवेश से समझौता न कर पाने की स्थिति में अपने को महसूस करता है। नयी कविता में व्यक्ति के उसी अकेलेपन और अजनबी पर के भाव अच्छी प्रकार व्यक्त हुए हैं । श्रीकांत वर्मा ने इस तरह के भाव बार-बार व्यक्त किए हैं । वे कहते हैं -
"सच मानो मैं अकेला हूं
इतना अकेला जितना प्रत्येक नक्षत्र दूसरे से।"
यह अकेला पन आरोपित नहीं है कवि ने उस अकेलेपन को जिया है, भोगा है।
6) क्षण की अनुभूति
नयी कविता के मानव की अवधारणा क्षण के विश्वास की है। वह क्षण को मूल्य देता है। आज के युग का मानव क्षण को महत्व देता है। जीवन का विस्तार भरा फलक वस्तुतः क्षण-क्षण करके ही तो पूरा होता है। इसीलिए क्षण तो जीवन का विशेष अंग है। नये कवि की दृष्टि में क्षण का महत्व है। हर क्षण जीवन का प्रतिनिधित्व करता है, यानी जीवन का अंश है, जीवन है, अज्ञेय ने इसे ही प्रवाहमान जीवन कहा है।
"एकक्षण-क्षण में प्रवाहमान
व्यप्त संपूर्णता व्यप्त
इससे कदापि बड़ा नहीं था महा बुद्धि
क्षण के अखंड पारावार का
आज हम आचमन करते हैं।"
जीवन क्षण के भीतर बसा हुआ है। उसका एक क्षण दूसरे से एकदम मिला हुआ है । जीवन का छोटा क्षण ही पूरे जीवन की अभिव्यक्ति का आधार है।
7) अतिशय वैयक्तिकता
आज की कविता में व्यक्ति आतिशय व्यक्ति निष्ट होने के वर्णन बहुत देखने में आते हैं। आज की परिस्थिति और परिवेश ऐसा है, जिस में व्यक्ति संबंध सिमट रहे हैं, टूट रहे हैं। वह अपने आप में केंद्रित है। जो कष्ट वेदना और संघर्ष वह भोग रहा है, वह स्वयं ही उसे भोग रहा है। कोई उसका भागीदार नहीं है। यह अकेलापन आत्म केंद्रित होने की भावना आज के युग का
मानव झेल रहा है कवि लक्ष्मीकांत वर्मा कहते हैं-
"मेरी प्यास सामूहिक प्यास नहीं
मेरी प्यास अपनी है
अपनी मर्यादा से प्रतिष्ठित है।"
यह वैयक्तिकता प्रभाकर माचवे के शब्दों में भी दृष्टव्य है।
"जितना ही में भिडड़ भड़क्के में जाता हूँ
उतना ही क्यों घोर अकेलापन पाता हूं
यह वह सब कुछ घोर घृणित लगता है।"
नयी कविता का कवि मध्य वर्ग की विसंगतियों मे जिया है।
8) व्यंग्य की प्रवृत्ति
नयी कविता में व्यंग्य की मात्रा बहुत है। नया कवि मनोरंजन की कविता नहीं लिखता। इसकी अनुभूति कराने वाली कविता पर उसकी दृष्टि नहीं है। वह योग और परिवेश का सजग चितेरा है। देश-विदेश की परिस्थिति के प्रति जागरुक है। समाज के प्रति उसका दायित्व बोध अधिक है। वह भी उसी समाज का एक अंग है। स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए जो सपने संजोये थे । अब कोई आदमी का बच्चा भूखा रहकर स्कूल नहीं जाएगा। "अब कोई छत बारिश में नहीं टपकेगी । अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा।" यह मोह भंग हो गया l राजनीति के छल प्रपंच उजागर हो गए। भूख, बेरोजगारी, दुख, दर्द, पक्षपात, शोषण, कष्ट असहायता बढ़ती चली गई। नये कवियों ने भी अपनी व्यंग भीतर चुभती वाणी में उसको प्रस्तुत किया है। उसकी यह पंक्तियां व्यंग्य से ओत-प्रोत है-
"लोहे का स्वाद लुहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है।"
आज के युग में लोग भूखे हैं - अधिकार के प्रति प्रतिष्ठा के धन के आदर्श के। उन पर व्यंग करते हुए नया कवि कहता है-
"ऐसे लोग अहिंसक कहलाते हैं
मांस नहीं खाते मुद्रा खाते हैं।"
दुष्यंत कुमार प्रजातंत्र पर व्यंग्य करते हुए कवि ने राजनीतिक नेताओं को बेनकाब इन शब्दों में किया है-
"सिर्फ सैकड़ों मुख भाषा उगाल रहे हैं गाल
घोषणापत्र गधे के मुख में चबाता जा रहा है।" -चंद्रकांत देवताले
9) मिथकीय प्रयोग
Man is a myth making animal मनुष्य मिथक निर्माता पशु है। व्युत्पत्ति और तत्व - मिथ शब्द की उत्पत्ति यूनान के म्युथोस शब्द से हुई है। मिथ से अंग्रेजी का माइथालॉजी शब्द बनता है। अंग्रेजी मिथ से हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने हिंदी में मिथक शब्द चलाया। अंग्रेजी में मिथक का अर्थ पूरा कथा अथवा धर्म कथा है। आदि युग की स्वयं पूर्ण भावना मिथक कहलाती है। फिलिप व्हील राइट ने कहा है।" मिथक संपूर्ण मानव के समग्र अनुभव की अभिव्यक्ति है। निर्दोष लोगों पर अत्याचार की मिथकीय कहानी ग्राम जीवन के आतंक के रूप में देवेंद्र कुमार की 'कर्फ्यू के बाद' कविता में यह रूप देखने को मिलता है।
" रोटी तोड़ते हुए
जब जब तोड़ता हूं अपने को
पाता हूं
एक पेड़
और डालों से लटकी हुई
हजार हजार चिड़िया
आखिर ये किस कदर में शरीक थी?"
10) शिल्प की नवीनता
काव्य में शिल्प का तात्पर्य अभिव्यंजना की कला से है । अनुभूति की कलात्मक अभिव्यक्ति शिल्प है। डॉ. कैलाश वाजपेई ने कहां है- "काव्य कृति के निर्माण में जिन उपादानों द्वारा काव्य का ढांचा तैयार किया जाता है वे सब शिल्प तत्व कहे जाते हैं। इसे ही दूसरे शब्दों में रचना प्रक्रिया कहां जाता है। कला में शिल्प का मतलब कारीगरी से होता है। इसे ही रचना कौशल कहते हैं। परंपरावादी कविता में कविता का मूल्यांकन करते समय अनुभूति पक्ष और अभिव्यक्ति पक्ष की दृष्टि से विचार करते थे । इसे ही भाव पक्ष और कला पक्ष कहां जाता है।
11) उपमानों की नवीनता
नयीकवित का शिल्प उपमानों की नवीनता के लिए नई पहचान वाला बन गया है। पुरानी कविता के उपमान प्रकृति के धरोहर से चुने जाते थे। नई कविता के संदर्भ प्रकृति से चलकर महानगरों, फैक्ट्रियों, गगनचुंबी इमारतों, ज्ञान विज्ञान और मनोविज्ञान से जुड़ गए हैं। इसीलिए उपमान नवीन बन गए हैं। नये कवियों ने पुराने उपमानों की ये उपमान मैले हो गए। कहकर उपेक्षा की है। पुराने उपमानों को स्वीकार ते हुए भी उनके प्रयोग की नवीनता इस तरह के कथनों में देखी जा सकती है, जैसे- अजीत कुमार ने कहा है-
"चांदनी चंदन सदृश्य हम क्यों लिखे?
हम लिखेंगे उस रुपये सी है
कि जिस में चमक है पर खनक गायब है।"
12) अलंकार प्रयोग में नवीनता
अलंकार वाणी का आभूषण है। कविता में अलंकार का प्रयोग सदैव से होता रहा है। नयी कविता में अलंकारों का प्रयोग नये ढंग का है। एक तो पाश्चात्य कविता के प्रभाव से गृहीत नये अलंकार नये कवियों ने अपनाए हैं । दूसरे जो प्रचलित अलंकार थोड़े बहुत नयी कविता में आ गए हैं, वह भी नयापन लिए हुए हैं। उनके उपमान रूढ़ नहीं है, नये हैं। इस तरह से नयी कविता में अलंकार प्रयोग नवीनता नयी कविता के नयेपन के साथ पूरी स्वाभाविकता के साथ अंकित हुई है।
13) विशेषण विपर्यय
यह पाश्चात्य साहित्य में प्रचलित अलंकार है। नयी कविता में इसका बहुत प्रयोग देखने में आता है। इस अलंकार में उपमेय के विशेषण को उपमान के साथ जोड़ दिया जाता है। विपर्यय का मतलब है उल्ट-फेरा यहां विशेषण उलटफेर हो जाता है।
जैसे- "आकारहीन बादल बीमार बिस्तर पर निर उद्देश्य करवटे बदलती हुई मै।" यहां पर बीमार विशेषण विस्तार के साथ आया है। यह विशेषण मैं के साथ लगना चाहिए। यह विशेषण का उलटफेर है, विपर्यय है। यहां विशेषण विपर्यय अलंकार होता है ।
1) असफलताओं के घवों को। मै मुस्कानों के रंगीन धागों से सिया है।
2) इस मरती जीजीविषा को जिलाने की कोशिश कर रहा हूं।
14) मानवीकरण
अमानव को मानव के रूप में वर्णित करना मानवीकरण अलंकार की विधि है । नयी कविता में इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं । इस अलंकार का प्रयोग भी पश्चिम के प्रभाव से हुआ है। नयी कविता में जिसके कुछ प्रयोग दृष्टव्य है ।
"सूरज रोता सा उगता है और हंसता सा छिपता यहाँ।"
यहां सूरज जो अमानव है उसको रोता, हंसता है । इस तरह मानव के रूप में वर्णित किया है। यहाँ मानवीकरण अलंकार है।
15) बिम्ब विधान
नयी कविता के मूल्यांकन का एक प्रतिमान बिंब विधान है। हिंदी में बिम्ब का प्रयोग अचार्य रामचंद्र शुक्ल ने किया था। बिंब यह अंग्रेजी के इमेज शब्द का पर्याय है । बिंब किसी पदार्थ का मानसिक प्रतिबिंब माना गया है। नयी कविता में बिम्ब के प्रयोग अनेक देखने में आते हैं । अज्ञेय की कविता का एक बिंदु द्रष्टव्य है।
"सुप सुप भर
धुप कनक
यह सुने नभ में गयी बिखर, चौधया, बिन रहा है।
उसे अकेला एक कुरर।"
16) प्रतीक विधान की नवीनता
प्रतीक का अर्थ माध्यम है । एक वस्तु का वर्णन दूसरी के माध्यम से करना प्रतीक कहलाता है। किसी वस्तु का यह प्रतिनिधित्व करता है। प्रतीक की परिभाषा देते हुए समीक्षकों ने कहा है- प्रतीक वह अप्रस्तुत है जो प्रस्तुत को एकदम स्थान भ्रष्ट करके उसका स्थान ग्रहण कर लेता है । सॉप वक्रता और कुटिलता का प्रतीक है। अज्ञेय ने नगर में रहने वाले कलुषित और नागरिक सभ्यता विहीन व्यक्ति जो समाज के अहितकर होते हैं ( साँप जैसे ) उन्हें साँप के प्रतीक के रूप में व्यक्त किया है । जैसे
"सॉप तुम सभ्य तो नहीं हुए
नगर में बसना भी तुम्हे नहीं आया --- भवानीप्रसाद मिश्र
इस प्रकार नयी कविता की विशेषताओं को स्पष्ट किया जा सकता है ।
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