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Showing posts from 2021

कथा दर्पण कहानी संग्रह के प्रोजेक्ट के विषय

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साहित्य का अर्थ, परिभाषा

साहित्य  भारतीय व्याकरण के आचार्यों के अनुसार साहित्य शब्द की उत्पत्ति या बनावट में 'सम' उपसर्ग 'धा' धातु जिसे 'हित' हो जाया करता है और 'यत' प्रत्यय - यह तीन शब्दांश विद्यमान है ।  इस प्रकार उनका सम्मिलित अर्थ बनता है, सम + हित + यत =  सहित  इस - 'सहित' का भाववाचक रूप ही साहित्य बनता है, या होता है । 'धा' धारण करने के अनुसार इस 'धा' से हित बनने वाला शब्द का अर्थ होता है धारण करना । इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिस शब्द में धारण करने साथ रहने और रखने का भाव वर्तमान रहा करता है, उसे साहित्य कहते हैं ।  संस्कृत में 'सहि तस्य भाव इति साहित्यम' कह कर भी साहित्य की  व्युत्पत्ति की जाती है । उसका अर्थ है साथ रहने या होने का भाव होना । हित और 'सहित' व्याख्या करने पर 'हित' के साथ होना ही साहित्य हैं ।  व्यापक अर्थों में साहित्य सत्य से सुंदर और शिव की साधना की ओर अग्रसर होता है । जबकि सीमित या ललित अर्थों में साहित्य कल्पना के सौंदर्य में जीवन के सत्य को सजा संवार कर शिव साधना की ओर प्रवृत्त होता है । यहां हम जिस साहित्...

प्रलय की रात्रि – सुदर्शन कहानी का सारांश

  प्रलय की रात्रि – सुदर्शन कहानी का सारांश ‘प्रलय की रात्रि ’ सुदर्शन की श्रेष्ठ कहानियों में से एक है l इस कहानी में लेखक के दप्तर में जूनियर क्लर्क साधुराम है l उसका मासिक वेतन केवल पच्चीस रुपये हैं l साधुराम पूरी ईमानदारी से दिन भर अपना काम करता है l लेखक किसी कार्यवश बाहर जाते हैं तो अन्य लोग अपना काम छोड़कर बातें करने लगते, परन्तु साधुराम इसे अधर्म समझता था l वह उस समय भी अपना काम करता रहता था l साधुराम इतना भलाभालामानस था कि उसने कभी चपरासी को भी “तू” कहकर बात नहीं की l कई बार चपरासियों के काम भी स्वयं ही करता था l यह बातें लेखक को अच्छी नहीं लगती थी l इस व्यवहार पर कई बार लेखक साधुराम को डाँटते भी हैं पर साधुराम चुपचाप सुनता रहता l ऐसे उसमें अनेक गुण थे जो एक इमानदार कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति में होते हैं l वेतन थोड़ा था फिर भी उसके कपडे दूसरे व्यक्तियों से साफ होते थे l हमेशा खुश रहता था l दप्तर के कई लोग अपना काम भी साधुराम को करने के लिए कहते थे l उनका काम भी आपना काम समझकर परिश्रम और मनोवेग से करता है l इन सब गुणों के कारण साधुराम ने लेखक के दिल में जगह बनायी...

गुरुदेव को अंग-कबीर की साखियाँ

    गुरुदेव को अंग 1. सद्गुरु के सद कै क रुँ, दिल अप णी का साछ ।     कलयुग हम स्यूं लड़ि पड्या मुंह कम मे रा बा छ ।। शाब्दिक अर्थ :   इस साखी के माध्यम से कबीर यह कहना चाहते हैं कि सद्गुरु मेरे रक्षा स्थान है । मेरे रक्षक है और मैं अपने आपको सद्गुरु पर न्योछावर करता हूं । क्योंकि मैंने सद्गुरु को अपने सच्चे दिल से अपना गुरु माना है । इसीलिए अगर सारी दुनिया भी मेरा विरोध करें तो भी मैं डरने वाला नहीं हूं । मेरे रक्षक सद्गुरु हैं तो मैं किसीसे डरने वाला नहीं हूं । सद्गुरु मेरे साथ है तो मुझे किसी से डरने की क्या जरूरत है । भावार्थ : जब कोई मनुष्य अपने सद्गुरु को सच्चे दिल से मानता हो और उसने अपने आप को उन पर न्योछावर कर दिया हो ऐसे शिष्य के पीछे सद्गुरु खड़े होते हैं । उनके रक्षण करता गुरु होते हैं । इसीलिए जिसका रक्षक गुरु होता है उसे कौन मार सकता है ? ऐसे शिष्य का सारा जमाना भी दुश्मन बन गया तो भी शिष्य डरने वाला नहीं है । जिस आदमी को किसी पर पूरा भरोसा होता है वह किसी को नहीं डरता क्योंकि उसकी रक्षा करने वाला पक्का होता है । ऐसे शिष्य समाज स...