गुरुदेव को अंग-कबीर की साखियाँ

 

 गुरुदेव को अंग

1. सद्गुरु के सदकैरुँ, दिल अपणी का साछ ।

   कलयुग हम स्यूं लड़ि पड्या मुंहकम मेरा बाछ ।।

शाब्दिक अर्थ :  इस साखी के माध्यम से कबीर यह कहना चाहते हैं कि सद्गुरु मेरे रक्षा स्थान है मेरे रक्षक है और मैं अपने आपको सद्गुरु पर न्योछावर करता हूंक्योंकि मैंने सद्गुरु को अपने सच्चे दिल से अपना गुरु माना हैइसीलिए अगर सारी दुनिया भी मेरा विरोध करें तो भी मैं डरने वाला नहीं हूंमेरे रक्षक सद्गुरु हैं तो मैं किसीसे डरने वाला नहीं हूं । सद्गुरु मेरे साथ है तो मुझे किसी से डरने की क्या जरूरत है

भावार्थ : जब कोई मनुष्य अपने सद्गुरु को सच्चे दिल से मानता हो और उसने अपने आप को उन पर न्योछावर कर दिया हो ऐसे शिष्य के पीछे सद्गुरु खड़े होते हैं । उनके रक्षण करता गुरु होते हैंइसीलिए जिसका रक्षक गुरु होता है उसे कौन मार सकता है ? ऐसे शिष्य का सारा जमाना भी दुश्मन बन गया तो भी शिष्य डरने वाला नहीं है जिस आदमी को किसी पर पूरा भरोसा होता है वह किसी को नहीं डरता क्योंकि उसकी रक्षा करने वाला पक्का होता है ऐसे शिष्य समाज से कभी नहीं डरता वह हमेशा निडर होता है

विशेष : जिस शिष्य की गुरु पर अटूट श्रद्धा होती है उसे किसीसे डरने की जरूरत नहीं होती ।

2 सद्गुरु लई कमाँण करि, बाँहण लागा तीर ।

  एक जु बाह्य प्रीति सूँ, भीतरी रह्या सरीर ।।

शाब्दिक अर्थ : कबीर इस सखी के माध्यम से यह कहना चाहते हैं कि सद्गुरु ने अपने शिष्य पर ऐसा शब्द रूपी बाण चलाया है कि उनका शिष्य घायल हो गया है और यह शब्द रूपी बाण शिष्य के शरीर पर लगकर शरीर में ही रह गया हैअब वह शब्द रूपी तीर शिष्य के शरीर से बाहर निकल नहीं सकता । इस तीर ने शिष्य को बहुत गहरी चोट पहुंचाई हैजो कभी दुरुस्त होने वाली नहीं है

भावार्थ :  सद्गुरु ने अपने शिष्य पर ऐसा शब्द उपदेश किया है कि वह शब्द शिष्य के दिल से बाहर निकलने वाले नहीं हैसतगुरु के शब्द शिष्य को तीर के समान लगे हुए हैंइसीलिए सद्गुरु जब भी शब्द उपदेश देते हैं तब तीर की भांति दिल में चुभते हैं और वह बाहर भी नहीं निकलते हैं । इसीलिए सद्गुरु का उपदेश बहुत महत्वपूर्ण होता है

विशेष :  कबीर ने यहां सद्गुरु का महत्व बताया है सद्गुरु अपने शिष्य पर जब शब्दरूपी बाण चलाते हैं तब वह शब्द शिष्य के दिल पर लग जाते हैं और वह बाहर नहीं निकलते इसी प्रकार शिष्य को सच्चा ज्ञान मिलता है

3. सद्गुरु साँचा सूरिवाँ, सबद ज्यूँ बाह्या एक ।

   लगत ही मैं मिलि गया, पड्या कलेजे छेक ।।

शाब्दिक अर्थ : कबीर कहते हैं कि सद्गुरु सच्चा शूरवीर है । सच्चे शक्तिशाली है वह ऐसा शब्द रूपी तीर चलाते हैं कि यह शब्द शिष्य के दिल में बस जाते हैं और इन्हीं शब्दों के कारण या शब्द शिष्य को लगने के कारण शिष्य पृथ्वी पर गिर जाता है तब उसके ह्रदय में एक ज्ञान की ज्वाला सी भड़क उठती है और जब भी सद्गुरु उपदेश करते हैं तब उनके शब्द तीर की तरह दिल में समा जाते हैं और ज्ञान विरह हो जाता हैशिष्य के मन का घमंड मिट जाता है

भावार्थ : मनुष्य का अस्तित्व भगवान, सद्गुरु के सामने कुछ भी नहीं होता है । भगवान सर्वश्रेष्ठ सर्व शक्तिशाली हैजब वह अपने शिष्य पर शब्दरूपी वार करते हैं, तब शिष्य के दिल में छेद पड़ जाता है और इसी कारण वह जमीन पर गिर जाता है, तब उसका अस्तित्व कोई नहीं होता और सद्गुरु, भगवान सर्वशक्तिमान होने के कारण उसका अर्थात  शिष्य का कोई मोल नहीं होता ऐसा कबीर कहते हैं

 विशेष : कबीर ने सद्गुरु को सर्वश्रेष्ठ दिखाने का प्रयास इन पंक्तियों के माध्यम से किया है

4. सतगुर मारया बाण भरि, धरि करि सूधी मूठि

   अंगि उघाडै लागिया, गई दवा सूँ फूटि ।।

शाब्दिक अर्थ : कबीर कहना चाहते हैं कि सद्गुरु ने अपने हाथ में बांध पकड़ा है और अपने शिष्य पर यह बा ऐसी जगह चलाया है जहां शिष्य का शरीर नंगा है ऐसे नंगे शरीर पर तीर चलाने से वह शिष्य बहुत व्याकुल हो जाता है इसी कारण शिष्य में एक ज्वाला भड़क उठती हैं और वह ज्ञान की ज्वाला शिष्य में भड़क उठती है

भावार्थ : सतगुरु ने अपने शिष्य को ऐसा उपदेश किया है कि सतगुरु के शब्द नंगे शरीर पर लगे तीर के समान उसके दिल को लगे हैं और उन्होंने बड़ी सोच समझकर यह शब्द रूपी तीर चलाया है और शिष्य को ज्ञान प्राप्त करने पर मजबूर किया है और शिष्य भी इस उपदेश के कारण ज्ञान प्राप्त करने के लिए व्याकुल हो गया है

 विशेष : सद्गुरु ने अपने शिष्य के दिन में ज्ञान की ज्योत एक अलग ढंग से लगाने का प्रयास किया है और इसी के साथ शिष्य को ज्ञान प्राप्त करने के लिए उत्सुक किया है

5.  हँसे न बोलै उनमनी, चंचल मेल्ह्या मारि ।

    कहैं कबीर भीतरी भिद्या, सतगुर कै हथियार ।।

शाब्दिक अर्थ : कबीर कहते हैं कि सद्गुरु ने अपने शिष्य पर ऐसा शब्द रूपी हथियार चलाया है कि वह शिष्य ना किसी से बोलता है और ना वह हंसता है उसकी हंसने की और बोलने की चंचलता ही चली गई है इसीलिए उसका मन विमुख हो गया है सतगुरु ने शब्द के हथियार से शिष्य को पंगु बनाया है इसीलिए वह शिष्य अब हंसता भी नहीं और बोलता भी नहीं है ।

 भावार्थ :  सद्गुरु अपने शिष्य पर ऐसा शब्द रूपी हत्यार चलाते हैं कि वह शिष्य बोलता ही नहीं सद्गुरु को सामने उस की बोलती बंद हो जाती है और उसके शरीर से सारी चंचलता चली जाती है इसीलिए उसका मन उन्मन हो जाता है

 विशेष : सद्गुरु का शब्द रूपी हथियार शिष्य को एक नई दिशा दिखाता है ज्ञान का प्रकाश सद्गुरु से ही मिलता है ऐसा कबीर का मानना है

6. गूँगा हुआ बावला, बहरा हुआ कान ।

   पाऊँ थैं पंगुल भया, सतगुर मारया बाण ।।

 शाब्दिक अर्थ : इस साखी द्वारा कबीर ने यह कहा है कि जब सद्गुरु का शब्द रूपी तीर शिष्य को लगता है तब वह गूंगा हो जाता है और बहरा भी हो गया है इतना ही नहीं बल्कि गुरु का शब्दरूपी  बा लगने के कारण जो पहले ज्यादा बोलता था अब वह नहीं बोलता  पहले ज्यादा चलता था तो अब वह नहीं चलता अब वह पंगु बन गया है शिष्य की ऐसी हालत सद्गुरु ने बनाई है अपने तीर रूपी शब्द के द्वारा शिष्य को सद्गुरु ने घायल किया है

 भावार्थ : अगर किसी शिष्य को गर्व हो गया तो सद्गुरु ऐसा शब्द रूपी तीर चलाते हैं कि वह शिष्य गूंगा हो जाता है उसके साथ वह बहरा भी हो जाता है उसकी बोलने की और सुनने की शक्ति चली जाती है वह चल फिर भी नहीं सकता इसीलिए सद्गुरु का उपदेश होना आवश्यक होता है

विशेष : सद्गुरु का मानना या सद्गुरु का होना सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक होता है नहीं तो वह ज्ञान के बिना गूंगा बहरा और पंगु भी हो सकता है

7. ज्ञान प्रकास्या गुर मिल्या सो जिनि बिसरि जाइ ।

   जब गोविंद कृपा करी, तब गुर मिलिया आई ।।

 शाब्दिक अर्थ : मनुष्य को ज्ञान का प्रकाश गुरु मिलने से ही प्राप्त होता है गुरु मिलने से ही मनुष्य ज्ञानी बनता है और यह ज्ञान का प्रकाश हमें गुरु कृपा से ही मिलता है । इनकी कृपा से जो सही ज्ञान मिला इसे कभी नहीं भूलना चाहिए

 भावार्थ : कबीर ने इस साखी द्वारा यह कहना चाहा है कि मनुष्य के जीवन में ज्ञान का होना बहुत जरूरी है, क्योंकि ज्ञान से ही मनुष्य योग्य जीवन बिता सकता है और यह ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है इसीलिए गुरु मिल जाने से ही ज्ञान का प्रकाश मिलता है ऐसे ज्ञान को ऐसे गुरु को कभी नहीं भूलना चाहिए

 विशेष : इस साखी के माध्यम से कबीर  ने यह बताने का प्रयास किया है कि जब तक किसी को ज्ञान देने वाला अच्छा गुरु नहीं मिलता तब तक उसे योग्य ज्ञान नहीं मिलता और जो योग्य ज्ञान मिलता है उसे कभी भूलना नहीं चाहिए

8. कबीर गुरू गरवा मिल्या, रलि गया आटैं लूँण ।

   जाति पाँति कुल सब मिटैं नाँव धरौगे कौण ।।

शाब्दिक अर्थ : कबीर कहते हैं कि मेरा गुरू गौरवशाली है । मुझे गुरू से ऐसा ज्ञान मिला है जैसे आटे में नमक मिल जाता है । इसीलिए जाति-पाति और कुल के सब भेद ही मिट गए हैं  । नाम रूप सब मिट गए हैं । इसीलिए उसे किसी नाम से बुलाया नहीं जाता । न ही उसे छूत-अछूत के नाम से बुलाया जाता है ।

भावार्थ : इस साखी के द्वारा यह कहना चाहते हैं कि मेरे गुरू ने मंत्र दिया है, जो ज्ञान दिया है वह सर्वश्रेष्ठ है । वह मुझमें इतना मिल गया है कि जैसे आटे में नमक मिल जाता है । जब एक दूसरे में इतना मिलने के बाद यह पता ही नहीं चलता कि कौन किस जाति का है । गुरू से यह तत्त्वज्ञान मुझे मिलने से सब कुछ एक हो गया है ।इसीलिए भेद करनेवाली सब उपाधियाँ नाम रूप सब एक जगह मिल गई है । इसीलिए एक व्यापक चेतना में एकाकार हो गया है ।

विशेष : कबीर के मतानुसार उनके गुरू गौरवशाली है । ऐसे गुरू से जब इतना ज्ञान मिलता है कि उसे कुछ नाम ही नहीं दे सकते है । एक सद्गुरु मिलने से इतना ज्ञान मिला कि एक व्यापक चेतना में एकाकार हो गया ।

9. जाका गुरु भी अंधला,  चेला खरा निरंध ।

   अंधा-अंधा ठेलिया, दून्यू कूप  पडंत ।।

शाब्दिक अर्थ : कबीर कहते हैं, जिसका गुरु अंधा होता है उसका चेला भी अंधा ही होता है । एक अंधा दूसरे अंधे को रास्ता बताता है तो दोनों भी कुएं में जाकर गिर पड़ते हैं ।

भावार्थ : कबीर इस साखी द्वारा यह कहना चाहते हैं कि जिसका गुरु अज्ञानी होता है तो उसका शिष्य भी अज्ञानी ही रहेगा जो खुद ज्ञानी नहीं वह दूसरों को क्या ज्ञान दे सकता है ऐसे गुरु से शिक्षा पाना मतलब अंधे ने अंधे को रास्ता दिखाना है जब ऐसा होता है तब वह दोनों भी वासना रूपी कुएं में जाकर गिर जाते हैंमतलब वे दोनों भी नष्ट हो जाते हैं

विशेष : कबीर जी ने बड़े सरल और सहज रूप में मर्मस्पर्शी भाव व्यंजना इस दोहे में की है जब एक अंधा दूसरे अंधे को रास्ता दिखाता है तब दोनों भी नष्ट हो जाते हैं ऐसा कबीर कहते हैं

10. ना गुरु मिल्या ना शिष्य भया, लालच खेल्या डाव ।

    दुन्यू बूडे धार मैं, चढ़ि पाथर की नाव ।।

शाब्दिक अर्थ : जिस गुरु को ना शिष्य मिला ना शिष्य को योग्य गुरु मिला इसीलिए दोनों गलत मार्ग से जा रहे थे जैसे नदी में पत्थर की नाव पर बैठकर जा रहे हो

 भावार्थ :  कबीर इस दोहे द्वारा यह कहना चाहते हैं कि गुरु शिष्य को फसाता है और शिष्य गुरु को फसाता है तब दोनों भी एक दूसरे के विरुद्ध दांव रचने लगते हैं । इसी कारण मानो ऐसी नाव पर चले जाते हैं जो नापत्थर की बनी है । छलकपट रचने के कारण वह उसी पर सवार होकर बीच में ही डूब जाते हैं मतलब जब ऐसा गुरु और शिष्य होता है तब कभी ज्ञान प्राप्त नहीं होता या विकास नहीं होता । जब गुरु और शिष्य एक दूसरे को फंसाते हैं तब दोनों भी फस जाते हैं । इसीलिए लालच या लोभ में पढ़ने से दोनों भी नष्ट हो जाते हैं । इसीलिए गुरु भी योग्य होना चाहिए और शिष्य भी ।

विशेष : पाथर की नाव में दोहरी व्यंजना है , पत्थर जड़ता का प्रतीक है । और प्रकृति के विरुद्ध आचरण करना है । पत्थर की नाव चलना मुहावरा भी है ।

11. चौसठि दीवा जोइ करि, चौदह चंदा मांहि l

    तिहि घरि किसकौ चानिणौं जिहि घरिगोविंद नांहीं ll  

शाब्दिक अर्थ : किसी व्यक्ति के पास चौदह विद्या और चौसठ कलाओं का ज्ञान हो तो भी उसे गुरु की आवश्यकता होती है l जिस घर में गोविन्द का प्रकाश नहीं वहाँ अँधेरा ही रहेगा l गोविन्द के बिना किसी कोई विद्यामान नहीं हो सकता है l

भावार्थ : कबीर कहते है कि किसी ज्ञानी के पास सारी विद्वत्ता होने के बावजूद भी अगर उसके दिल में भगवान के प्रति स्थान नहीं है तो उसे कोई नहीं पहचानता l उसकी कोई कीमत नहीं रहती है l इसलिए कोई भी इन्सान कितना भी विद्वान् हुआ तो उसके मन में भगवान का होना आवश्यक है l जिस घर में भगवान नहीं उस घर के ज्ञान का कोई महत्व नहीं होता l

विशेष : इस साखी में में चौदह विद्या और चौसठ कला की अतिशयोक्ति की गयी है l इसलिए इसमें रुपकातिशोक्ति अलंकर हुआ है l  

 

11. कबीर सतगुरु ना मिल्या, रही अधूरी सी l

 स्वांग जाती का पहरि करि घरिरि मांगै भीष ll  

अर्थ : कबीर कहना चाहते हैं कि सद्गुरु ना मिलने से शिक्षा अधूरी रह जाती हैं l उन्हें पूर्ण वैराग्य प्राप्त नहीं हुआ l इसलिए सद्गुरु का मिलना वश्य है l जिन्हें पूरी शिक्षा नहीं मिलती ऐसे शिष्य साधू का भेस लेकर घर-घर भीख मांगते हैं l ऐसे साधू सच्चे नहीं होते हैं l  

 

भावार्थ : जिस मनुष्य को सद्गुरु नहीं मिलता उसकी शिक्षा अधूरी रह जाती है l शिक्षा न मिलने के कारण वह मनुष्य बहाना बनाता है और ढोंग रचता है l इसीलिए उसे भीख मांगना पड़ता है l उसे ज्ञान की अनुभूति नहीं होती l वह गुरु होने का आडम्बर रचता है l

विशेष : कबीर यहाँ सद्गुरु के न मिलने की स्थिति को दर्शाते हैं l

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