शब्दशक्ति - अभिधा, लक्षणा और व्यंजना
शब्द शक्ति
भूमिका
भाषा मानव के विचार-भाव आदि के अभिव्यक्ति का
सबसे सशक्त माध्यम माना जाता है l जो भाव विचार मूलतः अमूर्त एवं निराकार रहते
हैं, उन्हें अनुभूति प्रदान कर काव्य के रूप निर्माण में भाषा ही सहायक बनती है l इसी कारण भाषा
को मानव की अमूल्य निधि कह सकते हैं l मनुष्य
के विचारों का अदन-प्रदान करने के लिए भाषा ही सर्वश्रेष्ठ साधन माना जा सकता है l भाषा का विचार
भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से वाक्य एक प्रकार से अनिवार्य धर्म स्वीकार किया जा
सकता है l इसी
कारण वाक्य को भाषा का एक पर्याय माना गया है l किसी ने कहा है कि “पद्समूहो वाक्यं अर्थसमाहतौ”
अर्थात् अर्थ संयत पदों का समूह ही वाक्य है l और भाषा भाव-विचार की संवाहक होने के कारण
ही भाषा को काव्य का शरीर या अंगी रूप माना गया है l
वाक्य में प्रयुक्त होने वाले सार्थक शब्द 'पद' कहलाते हैं l इस
प्रकार हम अर्थ वाचक वर्ण-समूह को शब्द कहते हैं l जैसे – घर, कमल, कलम, पुस्तक
आदि l ये वर्ण समूह एक विशिष्ट अर्थ के परिचायक होने
के कारण ही पद हैं l
परन्तु यह भी ध्यातव्य है कि प्रत्येक सार्थक शब्द समूह वाक्य नहीं बन सकता उनमें तीन प्रकार की अनिवार्यता होना आवश्यक है l 1.योग्यता 2. आकांक्षा और 3. आसक्ति । बौद्धिक असंगति का
अभाव योग्यता कहा जाता है l
जिज्ञासा को आकांक्षा कहते हैं l काल व्यवधान का अभाव आसक्ति है l इन तीनों की
पूर्ति जिन शब्द समूह के माध्यम से हुआ करती है उसी को वाक्य संज्ञा से अभिहित
किया जाता है l
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि काव्य
का काव्यत्व मूल रूप से भाषा पर ही आधारित रहा करता है l वही उसके
अमूर्त रूप को मूर्त रूप प्रदान करता है l
शब्द का महत्व : शब्द का महत्व प्रतिपादित करते
हुए भामह ने “शब्दार्थों सहितौं काव्यम्”
कहा है l
स्पष्ट है कि शब्द और अर्थ का साथ होना काव्य है l इसलिए शब्द का स्वतंत्र रहना नहीं
बल्कि साथ होने से ही काव्य बनता है l
शब्द और अर्थ का सम्बन्ध :
गोस्वामी तुलसीदास की एक पंक्ति है – “गिरा अर्थ जल-बीचि सम कहियत भिन्न, न भिन्न'' इसका अर्थ है – वाणी (शब्द) और अर्थ पानी और उसके लहर के समान हैं, जो भिन्न कहे
जाकर भी भिन्न नहीं हैं l
तात्पर्य यह है कि शब्द यदि जल है तो अर्थ उसमें उठने वाली लहर है, जो कि दर्शक के मन
में एक प्रकार के सौदर्य का बोध कराकर आनंद को जागृत एवं आनंद का विधान करती है l
शब्द-शक्ति अर्थ एवं परिभाषा
भाषा अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है और
अभिव्यक्ति का सूक्षम रूप अनुभूति है l अतः भाषा की सफलता तभी संभव है जब अनुभूति आदि
के द्वारा विविध अवयवों की सही प्रतीति हो जाय l किन्तु यह एक ही अनुभूति के विविध
अंग का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता इसी कारण कवि को प्राय: इसके अर्थ के अंतर्गत इस
प्रकार के परिवर्तन की अवशाकता का न्याय तथा नियमन शब्द शक्ति द्वारा करना पड़ता है
l संक्षिप्त एवं
सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि शब्द के अर्थ को समझाने में सहायक शब्द को शब्द
शक्ति कहते हैं l
संस्कृत काव्य शास्त्रियों ने इसे
“शब्दार्थ-संम्बन्ध: शक्ति” कहकर परिभाषित किया है l
1) डॉ.
ओमप्रकाश शर्मा शास्त्री ने ‘काव्यालोचन’ ग्रन्थ में लिखा है –“शब्द के जिस व्यापार से
उसके किसी अर्थ का बोध होता हैं, उसे शब्द शक्ति कहते हैं l”
हिंदी में भी एक परिभाषा इस प्रकार दी गयी है –
“वाक्य में प्रयुक्त सार्थक शब्द के अर्थ-बोधक व्यापर के मूल कारण को शब्द-शक्ति
कहते हैं l”
दोनों परिभाषाओं में ‘व्यापार शब्द का जो प्रयोग हुआ है वास्तव में यही मूल कारण
है l इसलिए
दूसरी परिभाषा में ‘मूल कारण शब्द से यह परिभाषा अधिक स्पष्ट हो गयी है l
शब्द शक्ति के भेद
आचार्यों ने शब्द शक्ति के मुख्य तीन भेद स्वीकार
किए हैं l 1.
अभिधा 2. लक्षणा 3. व्यंजना
शब्द शक्ति के इन तीन भेदों के आधार पर ही तीन
प्रकार के शब्द और इनके तीन प्रकार के अर्थ स्वीकार किए गये हैं l वे इस प्रकार
हैं –
शब्द : वाचक, लक्षक, व्यंजक,
अर्थ : वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ, व्यंग्यार्थ
अभिधा शब्द शक्ति :
साहित्य दर्पण के रचनाकार विश्वनाथ ने अभिधा शब्द
शक्ति की परिभाषा इस प्रकार दी है – “तत्र संकेतितार्थस्य बोधनादग्रिमाभिधा”
अर्थात् अभिधा शब्द शक्ति उस शब्द शक्ति को कहते हैं जिससे सांकेतिक या प्रसिद्ध
अर्थ का बोध होता है और जिसे शब्द की प्रथम शक्ति कहते हैं l
संकेतित शब्द का अभिप्राय उस अर्थ से है जो कोश,
व्याकरण, आप्त-उपदेश आदि से निर्धारित हो l इसी अर्थ को वाच्यार्थ भी कहते हैं l जैसे ‘गधा’ शब्द लम्बे
कानों वाले, चार टांगो वाले पशु विशेष के लिए प्रसिद्ध है l यही इसका
संकेतित अर्थ है l इसका
ज्ञान अभिधा शक्ति से ही होता है l
अभिधा शब्द शक्ति का एक उदाहरण प्रस्तुत है –
कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाइ l
वा खाए बौराय जग, या पाए बौराइ II
इन पक्तियों में कनक (धतुरा) कनक (सोना) मादकता
(नशा) इन सभी शब्दों का कोश सम्मत एवं लोक में प्रचलित अर्थ लिया जाता है l इसी कारण इसे
अभिधा शब्द शक्ति मानी जाएगी l
सियाराम
शरण गुप्त की कविता के उदाहरण से और भी अधिक सरल अर्थ अभिधा शब्द शक्ति स्पष्ट
हो जाएगी l
चलो चलो इस अमलतास के फूल न तोड़ो l
ठीक नहीं यह, इस रसाल की ममता छोड़ो ll
इन पंक्तियों में प्रयुक्त प्रत्येक शब्द
सांकेतिक या मुख्य वाच्यार्थ द्वारा ही कवि के अभिप्रेत को व्यक्त करनेवाला है l प्रत्यक्ष और
व्यवहारिक अर्थ के सिवाय इसका कोई भी अन्य अर्थ नहीं है l इसलिए यह
अभिधा शक्ति है l
अभिधा शब्द शब्द शक्ति के मुख्य तीन भेद हैं l
1. रूढ़ि शब्द : जिन शब्दों से एक ही अर्थ का बोध
होता हैं उन्हें रूढि़ शब्द कहते हैं l इन शब्दों के अवयव नहीं किये जा सकते हैं l जैसे पैर, घोडा, झाड़ पौधा, आदि l
2. यौगिक शब्द : यौगिक शब्द
प्रकृति और अवयवों की सहायता से अर्थ का बोध होता है l इन अवयवों के
माध्यम से हम शब्द के सही अर्थ को जान सकते हैं l जैसे – भूपति शब्द में भू और पति दो
अवयव हैं ‘भू’ का
अर्थ है पृथ्वी और पति अर्थात् स्वामी इसका अर्थ होता है पृथ्वी का स्वामी अर्थात्
राजा अर्थ माना जा सकता है l उमेश, नरेश, दिवाकर, सुधांशु आदि l
3. योगरूढ़ि शब्द :
इसमें यौगिक शब्द के समान अवयवों के समुदाय से अर्थ का बोध होता है l यह शब्द यौगिक
होते हुए भी रूढ़ि शब्दों की भांति एक विशेष अर्थ के लिए प्रसिद्ध हो जाते हैं l जैसे 'गिरिधर' शब्द 'गिरी' और 'धर' दो अवयवों के
मिश्रण से बना यौगिक शब्द है l लेकिन इसको प्रत्येक गिरि धारण करने वाले के लिए
प्रयोग न कर केवल श्रीकृष्ण के लिए प्रयोग किया जाता है l यह शब्द
श्रीकृष्ण के लिए रूढ़ हो गया है l पशुपति, पीताम्बर, पंकज, घनश्याम
आदि l
लक्षणा शब्द शक्ति : जब काव्य में प्रयुक्त किसी
शब्द के मुख्यार्थ या वाचार्थ के ग्रहण कर पाने में किसी भी प्रकार की बाधा उपस्थित हो जाए, व्याकरण कोष और अप्तावाक्य से प्राप्त होने वाले अर्थ के स्थान पर किसी अन्य
अर्थ के ग्रहण करने की आवशकता प्रतीत हो तो अभिधा शब्द शक्ति से आगे बढ़ना पड़ता
है अर्थात् अभिधा के क्षेत्र से निकलकर हम लक्षणा शब्द शक्ति के क्षेत्र में
प्रवेश कर जाते हैं l इसकी परिभाषा ‘काव्य प्रकाश’ के रचियेता आचार्य
मम्मट ने इस प्रकार दी है |
“मुख्यार्थ बाधे तद्योगो रूढ़ितोsथ प्रयोजनात्
अन्यार्थो लक्ष्यते यत्सा लक्षणारोपिता क्रिया ll”
अर्थात् मुख्यार्थ सिद्धि में बाधा उपस्थित होने
पर, रूढ़ि या प्रयोजन के आधार पर अभिधेयार्थ से सम्बन्ध रखने वाले अन्यार्थ का बोध कराने
वाली शक्ति ही ‘लक्षणा’ नामक शब्द शक्ति होती है l
इस परिभाषा में लक्षणा के उत्पत्ति के सम्बन्ध
में विद्वानों ने तीन प्रमुख कारण बताये हैं -
1. मुख्यार्थ
में बाधा
2. मुख्यार्थ
से कुछ ना कुछ सम्बन्ध
3
रूढ़ि या प्रयोजन द्वारा अन्यार्थ का बोध
जब शब्दों के वाच्यार्थ से वांछित
अर्थ की प्राप्ति न हो तो मुख्यार्थ में बाधा मानी जाती है l जैसे कहा जाय ‘राम
गधा है’ l इस वाक्य में
‘गधा’ शब्द लक्षक शब्द है l क्योकि
इसका वाच्यार्थ यहाँ असंगत है l मनुष्य
जानवर विशेष कैसे हो सकता है? अतः यहाँ मुख्यार्थ में बाधा है l मुख्यार्थ से
बाधा होने पर जो अन्य अर्थ लगाया जाता है
उसका मुख्यार्थ से थोडा बहुत सम्बन्ध आवश्यक
होता है l राम
की मुर्खता गधे से सम्बन्ध रखती है l ‘गधा’ मुर्खता
के लिए रूढ़ हो गया है l इसलिए
मुर्खता के प्रयोजन के लिए ‘गधा’ शब्द का प्रयोग किया जाता है l
“उषा सुनहले तीर बरसती,
जय-लक्ष्मी-सी उदित हुई
उधर पराजित काल-रात्रि भी,
जल में अन्तर्निहित हुई l”
इन पंक्तियों में ‘तीर’ शब्द विशेष ध्यान देने
योग्य है l इसका मुख्यार्थ ‘बाण’ है, पर लक्ष्यार्थ सूर्य
की ‘किरण’ किया जायगा l इन
दोनों में सादृश्य-सम्बन्ध और आरोप विषय के न रहने के कारण ही ‘तीर’ का लक्षणा
द्वारा ‘किरण’ अर्थ ग्रहण किया गया है l यही अर्थ यहाँ आवश्यक भी है l
लक्षणा के भेद :
सभी आचार्यों ने लक्षणा के मुख्यतः
दो भेद स्वीकार किए गए हैं l वे भेद हैं –
क) रूढ़ा लक्षणा ख) प्रयोजनवती लक्षणा
लक्षणा शब्द शक्ति के जिस रूप से प्रचलित परंपरा
अर्थात् रूढ़ि के आधार पर लक्ष्यार्थ या अन्यार्थ का ज्ञान होता है, उसे रूढा लक्षणा
या रूढ़ि लक्षणा कहा जाता है l जैसे किसी
भोली भाली लड़की या नारी को देखकर कहा जाता है – 'वह तो बेचारी गाय है' l यहाँ किसी
नारी को 'गाय' तो बनाया नहीं जा सकता, परम्परा से इसका अर्थ लिया जाता है कि वह गाय
के समान है l सीधी
और भोली भाली है l यही
रूढ़ा लक्षणा है l
मैथिलीशरण गुप्त की पंक्ति है –
“वह सिंही थी अब हहा ! गोमुखी गंगा”
यहाँ पहले शेरनी के समान कैकयी को अब ‘गोमुखी’ अर्थात् गो के समान भोली और सीधी और गंगा की धारा के समान पवित्र और विचार लहरियों से संयत थी l ये सारे अर्थ रूढ़ि लक्षणा की देन है l
(क) रूढ़ा लक्षणा के भी दो भेद किए गये हैं – 1. गौणी रूढ़ा लक्षणा 2. शुद्धा
रूढ़ा लक्षणा
1. गौणी
रूढ़ा लक्षणा : परंपरा अनुसार गुणबोधक लक्ष्यार्थ ग्रहण करने से गौणी रूढ़ा लक्षणा
होती है l
2. शुद्धा रूढ़ा लक्षणा : परंपरा अथवा रूढ़ि के आधार पर जब वाच्यार्थ से सम्बंधित लक्ष्यार्थ भी
ग्रहण किया जाता है तब वहाँ शुद्धा रूढ़ि लक्षणा मानी जाती है l
2. प्रयोजनवती लक्षणा :
लक्षणा शब्द शक्ति के जिस रूप के द्वारा मुख्यार्थ किसी विशिष्ट प्रयोजन के कारण
बाधा होकर लक्ष्यार्थ का बोध कराता है, उस रूप को प्रयोजनवती लक्षणा कहते हैं l जैसे –
“शेर शिवा ने अफजल गज को,
पल में किया पराजित l”
इस पंक्ति में शेर के मुख्यार्थ में बाधा होती है, इसी तरह गज का अर्थ भी बाघ हो जाता है । शेर का अर्थ प्रयोजन के अनुरूप अत्यधिक वीर और गज का अर्थ विशाल सेना का अधिपति या साम्राज्य का प्रतिनिधि यह अर्थ ग्रहण किया जायेगा l इस प्रकार प्रयोजन के कारण मुख्यार्थ से भिन्न लक्ष्यार्थ ग्रहण किया गया है l यहाँ प्रयोजनवती लक्षणा होती है l
प्रयोजनवती लक्षणा के भी दो भेद होते हैं – 1.
शुद्धा प्रयोजनवती लक्षणा 2. गौणी प्रयोजनवती लक्षणा
इनके दो-दो उपभेद हैं – उपादान लक्षणा और लक्षण
लक्षणा इस प्रकार ये चार भेद होते हैं इन चारों के दो-दो उप भेद होते हैं – सारोपा
और साध्यावसना इस प्रकार ये आठ भेद हुए – चार गौणी के और चार शुद्धा के -
1. शुद्ध प्रयोजनवती लक्षणा : जहाँ
वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ में सादृश्य (समानता) के अतिरिक्त अन्य सम्बन्ध होता है,
वहाँ शुद्धा प्रयोजनवती लक्षणा होती है l यहाँ प्रसाद की ‘कामायनी’ का उदाहरण देखिए –
“ओ नील आवरण जगती के
दुर्बोध न तू है इतना
अवगुंठन होता आँखों का
अलोक रूप बन जितना l”
यहाँ नील आवरण पद विशेष विचारणीय है l यहाँ पर
तादार्थ्य सम्बन्ध के कारण इस शब्द का प्रयोग ‘आकाश’ के अर्थ में लिया जाता है l इसी कारण यहाँ
पर शुद्धा प्रयोजनवती लक्षणा है l
प्रयोजनवती शुद्धा के भी चार भेद होते हैं l जैसे – 1. सारोपा
प्रयोजनवती शुद्धा 2. साध्यवसना प्रयोजनवती शुद्धा 3. अजह्त्स्वार्था 4.
प्रयोजनवती शुद्धा जहत्स्वार्था
1. सारोपा प्रयोजनवती शुद्धा : सारोपा
में उपमेय तथा उपमान प्रथक उपादान किया जाता है, तथा ‘साध्यवसना’ में उपमान में ही
उपमेय का आरोप पाया जाता है जैसे – यहाँ सारोपा शब्द का अर्थ है आरोपपूर्वक या
आरोप सहित जिसका तात्पर्य होता है उपमेय पर उपमान का आरोप या सम्बन्ध स्थापित करना
l जैसे –
“बंध्यों चरण कमल हरिराय l”
यहाँ हरि के चरण (उपमेय) पर कमल (उपमान) का आरोप
किया गया है l
उपमेय-उपमान दोनों का उपादान पृथक रूप में हुआ है । अत: यहाँ लक्षणा शब्द शक्ति से ही
यह उपादान होने के कारण यहाँ ‘सारोपा’ लक्षणा है l
2. साध्यवसना प्रयोजनवती शुद्धा :
सध्यावसना शब्द का अर्थ होता है 'विलीन' होना l इस प्रकार साध्यावसना का अर्थ है – विलीन कर
देना l इस
प्रकार इसकी परिभाषा होती है – लक्षणा शब्द शक्ति के जिस रूप में उपमेय में उपमान
को विलीन कर दिया जाता है, वहाँ
साध्यावसना लक्षणा शब्द शक्ति होती है l जैसे
“अबला जीवन हाय ! तुम्हारी यही कहानी l
अंचल में है दूध और आँखों में पानी l”
यहाँ अंचल में दूध का तात्पर्य ममत्व से है l वात्सल्य रस
की व्यंजना होती है l इसका
उल्लेख अलग से नहीं किया गया है l इसी प्रकार आँखों में पानी करुणा का व्यंजक है l इस बात का कथन
अलग से नहीं किया गया है l दोनों
अर्थ, उपमेय-उपमान में विलीन हो गये हैं l अत” यहाँ ‘साध्यावसना लक्षणा है l
3. अजह्त्स्वार्था : जहाँ
लाक्षणिक पद लक्ष्यार्थ की प्रतीति के साथ मुख्यार्थ को भी ग्रहण किए रहे, उसे छोड़
न दे, वहाँ अजहत्स्वार्था लक्षणा होती है l जैसे –
'आम तो आम है’, यहाँ दूसरा 'आम' शब्द लाक्षणिक है,
उसका मुख्यार्थ l’आम का
फल’ है और लक्ष्यार्थ सरसतादि गुण संपन्न आम’ l इस लक्ष्यार्थ में स्वार्थ सामान्य रूप आम’ का
परित्याग नहीं हुआ अत: यहाँ अजह्त्स्वार्था लक्षणा है l
4. प्रयोजनवती शुद्धा जहत्स्वार्था :
जहाँ लाक्षणिक पद लक्ष्यार्थ की प्रतीति कराएँ, परन्तु मुख्यार्थ का सर्वथा परित्याग कर दें,
वहाँ जहत्स्वार्था होती है l इसका दूसरा नाम
लक्षण लक्षणा भी है l लक्षण का अर्थ स्वार्थ का परित्याग ही है l जैसे –
गंगा में आश्रम है’ यहाँ गंगा पद लाक्षणिक है l इसका
वाच्यार्थ है जल का प्रवाह और लक्ष्यार्थ है ‘तट’ मुख्यतः जल का सर्वतः परित्याग
किया जाता है: उसका बोध तक नहीं होता l इस प्रकार यह प्रयोजनवती शुद्धा जहत्स्वार्था
लक्षणा है l
2. गौणी प्रयोजनवती लक्षणा : इसके चार भेद हैं - 1. गौणी उपादान लक्षणा 2. गौणी उपादान लक्षणा साध्यावसना 3. गौणी
लक्षण लक्षणा सारोपा 4. गौणी लक्षण लक्षणा साध्यावसना
1.
गौणी उपादान लक्षणा
“वहा देखो समाने खड़ा हड्डियों का ढाचा है l”
यहाँ हड्डियों का ढाचा का लक्ष्यार्थ है, बहुत ही
दुबला पतला व्यक्ति l
वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ में सादृश्य होने के कारण यहाँ गौणी हैं l व्यक्ति
हड्डियों का ढाचा होने के साथ क्षीणकाय भी है- इस अतिरिक्त अर्थ के कारण यहाँ उपादान लक्षणा
हैं ‘वह’ और ‘हड्डियों का ढाँचा’ उपमेय और उपमान दोनों का प्रयोग होने के कारण
यहाँ सारोपा हैं l
2. गौणी उपादान लक्षणा साध्यावसना
“जब हुई हुकूमत आँखों पर, जनमी चुपकी मै आहो में l
कोड़ो की खाकर मार , पली पीड़ित की दबी कराहों में ।
यहाँ ‘कोड़ों की खाकर मार’ का लक्ष्यार्थ है -
अतिशय अत्याचार l यहाँ वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ में सादृश्य सम्बन्ध होने के कारण गौणी हैं l ‘कोड़ों की मार
खाकर’ शब्द से यहाँ अतिरिक्त अर्थ भी आया हुआ है l अतः उपादान लक्षणा है l केवल अप्रस्तुत का प्रयोग किया गया है, अतः साध्यावसना है l
3. गौणी लक्षण लक्षणा सारोपा
“स्वर्ग लोक की तुम अप्सरि थी,
तुम वैभव में पली हुई थी l”
‘तुम’ और ‘अप्सरि’ में सादृश्य सम्बन्ध होने के
कारण यहाँ गौणी है l यहाँ ‘अप्सरि’
शब्द का वाच्यार्थ ‘अप्सरा’ अर्थ अभीष्ट नहीं है, बल्कि इस शब्द का लक्ष्यार्थ
अभीष्ट है l सर्वांगसुंदरी,
मनमोहिनी आदि l अतः
लक्षणलक्षणा है l ‘तुम’
और ‘अप्सरि’ उपमेय और उपमान दोनों का प्रयोग होने के कारण सारोपा है l
4. गौणी लक्षण लक्षणा साध्यावसना
“फूले कमल नयों अली विहंसि चितै इहि ओर
(भ्रमर ने खिले कमल की ओर हसकर देखा – अर्थात्
नायक ने प्रफुल्लवदनी नायिका को देखा)
नायक और भ्रमर तथा नायिका और कमल में सादृश्य
सम्बन्ध स्थापित करने के कारण यहाँ गौणी है l भ्रमर और कमल शब्दों का अपना अर्थ छुट गया है,
अतः लक्षणलक्षणा है l केवल
उपमान का कथन किया गया है, अतः साध्यावसना है l
3. व्यंजना शब्द शक्ति
अभिधा
और लक्षणा द्वारा अपना अपना अर्थ ज्ञात कराके शांत हो जाने पर जिसके द्वारा अन्य
अर्थ की प्रतीति होती है, उसे व्यंजना , शब्द शक्ति कहते हैं l
जैसे – ‘सूर्य अस्त हो गया l’ इसका
मुख्यार्थ या सांकेतिक अर्थ है – सूर्य डूब गया, दिन बीत गया, लक्ष्यार्थ होगा -
संध्या हो गयी है l जबकि
व्यंजक या व्यंजना शब्द शक्ति से अर्थ होगा प्रयोक्ता और श्रोता की रूचि, स्थिति
और प्रवृत्ति के अनुसार अब मुझे दीपक आदि जलाकर प्रकाश की व्यवस्था करनी चाहिए,
काम बंदकर घर चलना चाहिए, पूजा, वन्दना और आरती करनी चाहिए, भोजन करना चाहिए, सैर
के लिए जाना चाहिए आदि l ये सब
मुख्यार्थ और लक्ष्यार्थ से भिन्न या विशेष अन्यार्थ ही हैं l व्यंजना शब्द
शक्ति उन्हीं ध्वनि व्यंजक आर्थो का बोध कराने के कारण ही व्यंजना है l
व्यंजना शब्द शक्ति से अन्यार्थ या विशेष अर्थ का
ज्ञान कराने वाला शब्द ‘व्यंजक’ कहलाता है l जबकि उस व्यंजक शब्द से प्राप्त अर्थ को ‘व्यंग्यार्थ’
या ‘ध्वन्यार्थ’ कहा जाता है l प्रसाद की ‘कामायनी’ का एक उदारण है -
“हे अभाव की चपल बालिके,
री ललाट की खल रेखा !
हरि-भरी-सी
दौड़-धूप ओ,
जलमाया की चल रेखा l”
कवि ने ‘अभाव की चपल बालिके’ से कष्टों के कारण
हृदय को अस्थिर कर देने वाली चिंता’ यह व्यंग्यार्थ ग्रहण किया है l इसी प्रकार ‘ललाट
की खल रेखा’ पद का व्यंग्यार्थ ‘दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति’ से है l चिंता हो ‘हरी-भरी
सी दौड़ धुप’ कहकर व्यंग्यार्थ या ध्वन्यार्थ के रूप में कवि ने अभाव चिंता ग्रस्त
व्यक्ति की आशा-संयत अनवरत प्रयत्नों के अर्थ को ग्रहण किया है l इस प्रकार
पद्य का प्रत्येक वाक्य व्यंग्यार्थ से परिपूर्ण है l यह स्पष्टीकरण
मुख्यार्थ या लक्ष्यार्थ के द्वारा संभव नहीं हो पाता l बल्कि
व्यंग्यार्थ या ध्वन्यार्थ के ग्रहण से ही सम्भव हो सका है l
व्यंजना के मुख्य दो भेद किये गये हैं -
1. शाब्दी व्यंजना
2. आर्थी व्यंजना
1. शाब्दी व्यंजना में व्यंजक
शब्दों को हटाकर उसके स्थान पर उसका समानार्थक या पर्याय वाचक शब्द अन्य कोई शब्द
नहीं रखा जा सकता है l ऐसा
करने से अभिव्यक्ति दुर्बल हो सकती है और कई बार अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है – जैसे
चिरजीवौ जोरी जुरै क्यों न सनेह गँभीर।
को घटि ए बृषभानुजा वे हलधर के बीर॥
यहाँ ‘वृषभानुजा’ और
‘हलधर’ विशेष प्रयोग से ही विचित्र सम्बन्ध स्थापित हुआ है l एक
प्रकार का हास्य निर्मित हुआ है l राधा वृषभ (बैल ) की अनुजा
(छोटी बहन ) है l यहाँ कृष्ण भी कुछ कम नहीं है । वे हलधर
(बैल) के बीर (भाई) हैं । इसलिए यहाँ हास्य ध्वनि विशेष शब्द प्रयोग के कारण हुआ है l इसमें हम किसी भी शब्द को बदल नहीं सकते हैं l अतः
यह शाब्दी व्यंजना है l
चिरजीवौ = 1. सदा जीते रहो, 2. चिर+जीवो = घासपात खाते
रहो। जुरै = जुटे, एक साथ मिले। स्नेह = 1. प्रेम, 2. घी। गँभीर = गम्भीर अगाध।
घटि = न्यून, कम, छोटा। वृषभानुजा = 1. वृषभानु+ जा = वृषभानु की बेटी, 2. वृषभ +
अनुजा = साँड की छोटी बहिन। हलधर = 1. बलदेव, 2. हल+धर = बैल। बीर = भाई
(राधा-कृष्ण की यह) जोड़ी चिरजीवी हो। (इनमें) गहरा प्रेम क्यों न बना रहे?
(इन दोनों में) कौन किससे घटकर है? यह हैं (बड़े बाप!) वृषभानु की (लाड़ली) बेटी,
(और) वे हैं (विख्यात वीर) बलदेवजी के छोटे भाई!
“प्रसाद की ‘कामायनी’
एक उदाहरण है –
नीचे जल था ऊपर हिम
था
एक तरल था एक सघन
एक तत्व की ही
प्रधानता
कहो उसे जड़ या चेतन l”
इस पद्य में ‘प्रधानता’ ऐसा है कि जिसके स्थान पर पर्यायवाची शब्द नहीं रखा जा सकता है l क्योंकि इसी पर सारा व्यंग्यार्थ या ध्वन्यार्थ पूर्णतः आश्रित है l ‘प्रधानता’ शब्द का महत्व है इसलिए शब्दी व्यंजना
है l
2. आर्थी व्यंजना : जब व्यंग्यार्थ
या ध्वन्यार्थ किसी विशेष शब्द पर अवलंबित न होकर समग्र अर्थ पर अवलंबित रहता है, तब आर्थी व्यंजना होती है l जैसे-
“अबला जीवन हाय ! तुम्हारी यही कहानी l
अंचल में है दूध और आँखों में पानी l”
यहाँ सामान्य सांकेतिक या मुख्यार्थ केवल यह होगा
कि नारी जीवन की कहानी मात्र इतनी है कि उसके अंचल में दूध और आँखों में पानी रूप
में आंसू रहा करते हैं l यहाँ
मुख्यार्थ अंचल में दूध के सन्दर्भ में तो फिर भी नारी शरीर-गुण को व्यक्त करता
है, l
वात्सल्य रस की व्यंजना होती है l यहाँ आँखों में पानी का विशेष कोई भाव नहीं है l ऐसी स्थिति
में हम इसका ध्वनित या व्यंजित होने वाला अर्थ व्यंग्यार्थ को ग्रहण करते हैं, तभी
विशेष भाव पल्ले पड़ता है l
व्यग्यार्थ है कि नारी के जीवन में एक ओर तो वात्सल्य, ममत्व एवं
स्नेह का भाव है तो दूसरी ओर उसे अपनी परिवेशगत विशेषताओं के कारण हमेशा
कष्टपूर्ण जीवन – आंसू बहते हुए जीना पड़ता है l यहीं अर्थ कवि को अभिप्रेत है l अत: यहाँ आर्थी व्यंजना है l
आर्थी व्यंजना के दो भेद हैं : 1. लक्षणामूला आर्थी व्यंजना 2. अभिधामूला आर्थी व्यंजना
1. लक्षणामूला आर्थी व्यंजना :
जहाँ व्यंग्यार्थ के मूल में लक्षणा शब्द शक्ति
से व्यक्त लक्ष्यार्थ रहा करता है, वहाँ लक्षणामूला आर्थी व्यंजाना होती है l केशव की
‘रामचंद्रिका’ से एक उदाहरण है - जैसे-
“हम कुलघातक सत्य तुम्ह, कुल पालक दससीस
अन्धहु बधिर ना अस कहहिं नयन कान तव बीस l”
यह अंगद का रावण के प्रति कथन है l अपने पिता के
घातक राम का साथ देने के कारण जब रावण अंगद को ‘कुलघातक’ कहकर संबोधित करता है, तो
उसे फटकारने तथा अपने से भी बढ़कर गया-बीता बताने के लिए अंगद उससे कहता है l जो तुम मेरे लिए
कह रहे हो, वह कोई अँधा और बहरा भी नहीं कह सकता, फिर तुम्हारे तो नयन कान बीस-बीस
हैं l
लक्ष्यार्थ है बीस कान रहते हुए भी तुम बहरे हो, बीस आँख रहते हुए भी अंधे हो l इसके बाद
व्यंग्यार्थ यह व्यक्त होता है कि जो राम बाली जैसे महावीर को भी मार सकता है, वह सामान्य व्यक्ति नहीं है
अतः उसकी शरण में जाकर मैंने कुल का नाश नहीं, बचाव या पालन किया है l तुम भी यदि
बचाव या बचना चाहते हो, अपने आप को बुद्धिमान मानते हो, तो उसी राम के शरण में आजाओ । ऐसा न
करने पर तुम एक गये बीते व्यक्ति ही रहोगे l इस व्यंग्यार्थ की प्राप्ति पहले लक्ष्यार्थ के
बाद ही हुई है l अतः यहाँ
लक्षणामूला आर्थी व्यंजना स्पष्ट है l
2. अभिधामूला आर्थी व्यंजना : - जिस
व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति के मूल में अभिधा का योगदान भी रहा करता है, उसे अभिधामूला
आर्थी व्यंजाना कहते हैं l
“महादेवी वर्मा की पंक्ति है -
“विरह की घड़ियाँ हुई अलि -
मधुर मधु की यामिनी से l’’
कवियत्री ने साधिका की विरह आवस्था का यहाँ वर्णन
किया है l साधना
की एक स्थिति में पहुँच कर साध्य-साधक में तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित हो जाया
करता है l तब सभी कुछ मधुर हो जाया करता है, इस मुख्यार्थ
का बोध यहाँ स्पष्ट है, पर मधुर शब्द ही यहाँ तादात्म्य से प्राप्त माधुर्य- आनंद
को बाद में व्यंजित करता है l इस
प्रकार मुख्यार्थ के बाद व्यंग्यार्थ की प्रतीति होने के कारण यह अभिधामूला आर्थी
व्यंजना स्पष्ट है l
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