समकालीन कविता की विशेषताएँ

 समकालीन / सत्तरोत्तरी हिंदी कविता की प्रमुख विशेषतायें

पृष्ठभूमि

सन 1970 के बाद हिंदी कविता में फिर एक परिवर्तन दृष्टिगोचर हुआ । इस युग के कवियों एवं आलोचकों ने भी काव्य स्वरूप के मानक निर्धारित करने के लिए प्रयास किए हैं । सत्तोरत्तरी हिंदी कविता यह साठोत्तरी हिंदी कविता के बाद की कविता है । इस पीढ़ी के कवियों की निगाह में कविता का संबंध भयानक घिनौने एवं निर्लज्ज यथार्थ से था, रंगीन कल्पना से नहीं ।  सत्तरोत्तरी-कविता जीवन के काफी निकट थी । इसी पीढ़ी की कविता की भाषा रोजमर्रा की बोल-चाल वाली घरेलू भाषा से संबंधित है l जिसके कारण कविता की लय बातचीत की लय पर आधारित है । सत्तरोत्तरी कविता की विशेषताओं पर अनेक विद्वानों ने अलग-अलग ढंग से अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है कि "समकालीन कविता की बनावट ने कविता की अर्थ-प्रक्रिया को अपने ढंग से कठिन बनाया है । एक और पाठक श्रोता-श्रोता की रचनात्मक भागीदारी का है, जिसके कारण अर्थ की एकनिष्ठाता प्रभावित हुई है, तो दूसरे छोर पर स्वंय कविता का रूप-विन्यास अस्त-व्यस्त हुआ है । एकदम समकालीन परिदृश्य पर कविता की पहचान कठिनतर होती गई है।"

सन 1976 में प्रकाशित डॉ. विश्वंभर नाथ उपाध्याय की पुस्तक 'समकालीन कविता की भूमिका' में प्रथमत: समकालीन कविता के स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है । अपने इस ग्रंथ में उपाध्याय जी ने लिखा है- "समकालीन कविता में जो हो रहा है (बीकमिंग) का सीधा खुलासा है । इसे पढ़कर वर्तमान काल का बोध हो सकता है l क्योंकि उसमें जीते, संघर्ष करते, लड़ते, हकलाते, तड़पते, गरजते, तथा ठोकर खाकर सोचते वास्तविक आदमी का परिदृश्य है । समकालीन कविता में असंतोष, रोष एवं विद्रोह का विस्पोट है, इसीलिए उसमें से अनुपात संतुलन, सामरस्य, क्लासिकपूर्णता, परिष्कृति आदि नहीं है । उनमें मुक्ति बोधक चट्टानें अंधड़, लूटपाट, सिंहगर्जन, उपहास, व्यंग्य, लताड और मार धाड़ है । उसमें काल का होता हुआ रूप है । जीवन और मूल्यों की अमूर्त धारणाओं के स्थान पर सताए हुए लोगों का विवेचन और विद्रोह है।" इस प्रकार समकालीन कविता को यदि हम काव्य आंदोलन अथवा काव्य आंदोलनो का समन्वित रूप स्वीकार करते हैं, तो डॉ. विश्वंभर नाथ उपाध्याय को इस काव्य आंदोलन के प्रवर्तक मानना समीचीन होगा ।

समकालीन कवियों में रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह, रामदरश मिश्र, धूमिल, लीलाधर जगूड़ी, मलयज, चंद्रकांत देवताले, एकांत श्रीवास्तव, नरेश कुमार, अशोक चक्रधर, कात्यायनी, अरुण कमल, राजेश जोशी, उदय प्रकाश, मंगलेश डबराल ज्ञानेंद्रपति आदि कवियों को रखा जा सकता है । इन कवियों में सुदामा पांडेय 'धूमिल' महत्वपूर्ण कवि है, जिनकी कविता समकालीन कविता का प्रतिनिधित्व करती है।

1) राजनीतिपरकता

कविता और राजनीति का गहरा संबंध है । समकालीन कविता पर भी राजनीति का प्रभाव पड़ा है। सामाजिक जीवन में राजनीति इस कदर प्रविष्ट हुई है कि समाज का हर क्षेत्र आज राजनीति का अखाड़ा बन गया है। इस समसामायिक जीवन का चित्रण समकालीन कवि पूरी प्रतिबद्धता के साथ अपने कविता में कर रहा है । सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ ने अपने काव्य 'संग्रह संसद से सड़क तक', 'सुदामा पांडे का प्रजातंत्र', तथा 'कल सुनना मुझे', संग्रहित कविताओं के माध्यम से अपने इन्हीं अनुभवों, सामाजिक -राजनीतिक चेतना को अभिव्यक्त किया है।

धूमिल के अनुसार वर्तमान राजनीतिक विसंगतियों को जिम्मेदार हमारी जनता है । जिसकी कोई रीढ़ की हड्डी नहीं है। कवि जनता को समझाते हैं कि हमारी जनता चालाक राजनेताओं के बहकावे में आकर अपने अधिकारों को भूल चुकी है । इसीलिए उन्हें सावधान करते हुए कवि लिखते हैं -

" हे भाई हे ! अगर चाहते हो

कि हवा का रुख बदले

तो एक काम करो-

हे भाई हे !

संसद जाम करने से बेहतर है -

सड़क जाम करो।"

2) धर्मनिरपेक्षता

धर्मनिरपेक्षता समकालीन कविता की प्रमुख विशेषता रही है। अतः समकालीन कविता के अंतर्गत धर्मनिरपेक्षता की भावना साफ दिखाई पड़ती है। भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है l इस बात का फायदा राजनेताओं ने उठाया हैं । इस पर अपनी विवेचना प्रस्तुत करते हुए डॉ. नरेंद्र सिंह लिखते हैं कि "स्वतंत्रता के पश्चात आजाद भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश घोषित किया गया, जहां सभी धर्मावलंबियों को अपने-अपने धार्मिक अनुष्ठान करने की पूरी छूट दी गई । लेकिन भारत के स्वतंत्र होते ही हिंदू-मुसलमानों के बीच भयानक दंगा छिड़ गया । आज भी अक्सर दंगे भड़क उठते हैं ।“ दरअसल अंग्रेजों की फुट डालो और राज करो की जातीय द्वेष की नीति का सत्ता पक्ष ने अपने स्वार्थ सिद्धि में स्वतंत्रता पश्चात खूब उपयोग किया है । आज हिंदू और मुसलमानों के बीच खाई इस कदर बढ़ी है कि उन्होंने एक दूसरे पर विश्वास करना ही बंद कर दिया है । इसी को लक्ष्य करके नागार्जुन ने लिखा है :-

"कि इतने में, एक और युवक

इन कानों में फुसफुसा के कह गया- 

'खबरदार यह मुसलमान है'

इसके रिक्शे पर कभी ना बैठना आप।"

सांप्रदायिक जातीय द्वेष दिनों-दिन इस भयावने अंदाज में बढ़ रहा है कि इससे हर जागरुक नागरिक चिंतित हैं । लेकिन मौजूदा सरकार अपने बेटों की राजनीति में मस्त है । उसे मरने कत्ल होने वालों से बस इतनी सी हमदर्दी है कि खत्म होने के बाद मृतक के परिवार को कुछ हजार रुपए मुआवजा दे दें । युवा कवि गोरख पांडे हिंदू-मुसलमानों के दंगे पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैं : 

"अपना-अपना धर्म बचाओ 

मिल-जुल कर के छुरा चलाओ

आपस में कटकर मर जाओ।"

3)  लोकतंत्र की असफलता का चिंतन समकालीन हिंदी कविता की एक और विशेषता लोकतंत्र की असफलता रही है। समकालीन हिंदी कविता में लोकतंत्र एवं जनतंत्र की सफलता की खुलकर चर्चा की गई है । इस पर सविस्तार विवेचन करते हुए डॉ. नरेंद्र सिंह लिखते हैं कि "लोकतंत्र अर्थात् जनता का शासन वर्तमान युग की आदर्श शासन व्यवस्था है। स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद भारत में लोकतंत्र शासन व्यवस्था कायम की गई । लोकतंत्र की आत्मा जनता की संप्रभुता है। इस प्रकार की शासन पद्धति में लिखित सविधानों द्वारा मानव अधिकारों की घोषणा, वयस्क मतदान द्वारा मनपसंद नेता चुनने की सुविधा, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष प्रणालियों की स्थापना, प्रेस की स्वतंत्रता, अपने विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, बिना किसी भेदभाव के समस्त नागरिकों के समान विकास के लिए प्रशासन का जन सेवक रूप आदि जनवादी उपादानों का प्रयोग होता है।“ जनतंत्र, प्रजातंत्र, लोकशाही आदि लोकतंत्र के समानार्थी शब्द है । कहने को तो भारत में लोकतंत्र शासन व्यवस्था है, लेकिन देश की शासन व्यवस्था पर पूंजीवादी शिकंजा इतना कसा हुआ है कि यह लोकतंत्र एक विकृत लोकतंत्र बनकर रह गया है। स्वार्थी नेताओं, जिन्होंने धन एवं कुर्सी के मोह में लोकतंत्र को विकृत किया और कर रहे हैं l इसकी असलियत उजागर करते हुए युवा कवि गोरख पांडे ने अपनी कविता 'कुर्सी नामा' में लिखा है :

"कुर्सी खतरे में है तो प्रजातंत्र खतरे में है

कुर्सी खतरे में है तो देश खतरे में है

कुर्सी खतरे में है तो दुनिया खतरे में है

कुर्सी न बचे 

तो भाड़ में जाए प्रजातंत्र

देश और दुनिया ।"

जनता भोली भाली है l वह इस जनतंत्र की असलियत से बेखबर है । धूमिल कहते हैं कि जनता अभी भी नहीं जानती कि :-

"अपने यहां जनतंत्र 

एक ऐसा तमाशा है

जिस की जान मदारी की भाषा है।"

4) प्रेम के प्रति नया दृष्टिकोण

समकालीन हिंदी कविता में प्रेम के नए दृष्टिकोण का वर्णन किया गया है । प्रेम के प्रति नया दृष्टिकोण इस पर अपने विचार स्पष्ट करते हुए डॉ. रविंद्रनाथ दरगन ने लिखा है- "कि प्रेम के विघटन का सबसे प्रबल रूप उन रचनाओं में मिलता है, जहां इसे मात्र देह भोग के रूप में देखा गया है। आधुनिक कवि बौद्धिक है, वह अपने बौद्धिकता से मानवीय संबंधों को भी रेशनलाइज करता है। प्रेम के भाव प्रधान रूप को उसने समाप्त प्राय पाया है और अनुभव किया कि शारीरिक तृप्ति को प्रेम नाम देना गलत है। हर चीज को क्यों न यथार्थ परिप्रेक्ष में देख कर उसे सही नाम दिया जाए। युग में प्यार के अवमूल्यन की स्थिति को एक कवयत्री  स्पष्ट करती है:-

" प्यार शब्द घिसते-घिसते,

चपटा हो गया है

हमारी समझ में 

सहवास आता है।"

इसी क्रम में प्रेम के प्रति नया दृष्टिकोण इस पर अपने विचार प्रकट करते हुए डॉ. नरेंद्र सिंह ने लिखा है कि "साठोत्तरी जनवादी कवियों में प्रेम एक नई जमीन प्राप्त करने में सफल हुआ है । धूमिल की कविताओं में केवल प्रेम भावना उन्हें मानवीय रिश्तो से प्राप्त हुआ । 'पत्नी के लिए' शीर्षक कविता की यह पंक्तियां प्रेम के बदलते भाव की यथार्थ अनुभूति को सिद्ध करती है :-

" तुम्हारी अंगुलियां जैसे कविता की

गतिशील पंक्तियां हैं।"

आज के समाज ने जहां स्त्रियों का शोषण किया है, वहां धूमिल ने इस शोषण के विरुद्ध इतनी जोरदार तल्खी से लिखा है कि ऊपरी तौर पर अश्लील एवं गलिच्छ सा लगता है । लेकिन यह सच है कि आज के विकृत पूंजीवादी व्यवस्था में एक किराए का मकान एक नारी से अधिक अहम बन गया है :-

" एक संपूर्ण स्त्री होने के पहले ही

गर्भाधान की क्रिया से गुजरते हुए

उसने जाना कि प्यार

घनी आबादी वाली बस्तियों में

मकान की तलाश है।"

आज शहरों में पूंजीवादी सभ्यता में अखंड डूबी युवतियां है l जिनको अपने ऐशो- आराम से ही फुर्सत नहीं है:-

" पिकनिक से लौटती हुई लड़कियां

प्रेम गीतों के गरारे करती है।

ऐसी युवतियां पूंजीवादी सभ्यता के सुनहरे हवाई लोक में जीवन जी रही है। उनकी सोच आने वाले कल को कोई महत्व नहीं देती । उनका तो सिद्धांत है, खाओ पियो और मौज करो, देश-दुनिया की फिकर मूर्खों के जिम्मे छोड़ दो।

5) सहज सरल एवं आक्रामक भाषा

सहज सरल एवं आक्रामक भाषा समकालीन हिंदी कविता की सबसे बड़ी विशेषता है । समकालीन कविता की भाषा एकदम सरल तथा आक्रामक तेवर की है। इस पर अपनी विवेचना प्रस्तुत करते हुए डॉ. नरेंद्र सिंह ने लिखा है कि "भाषा के निर्माण का अर्थ किसी नयी भाषा का निर्माण कदापि नहीं । भाषा को मात्र शब्द-संयोग वाक्य-विन्यास तथा अर्थ के क्षेत्र में नए आयाम देना है । मगर यह निर्माण भाषा की परंपरा के अंतर्गत ही संभव है l इसके परे नहीं । रूपवादियों को यह निर्माण बड़ा रुचिकर लगता है, मगर जहां इसकी परिणीति असंप्रेषणीय भाषा में ही संभव है । अहँवादी, आतंकवादी अराजकतावादी या शून्यवाद का जनवादी कवियों में कोई स्थान नहीं । एक सीधी सरल भाषा को मुक्तिबोध जनवादी क्रांति का तिक्ष्ण हथियार बना देते हैं । 

"मानो या मत मानो

इस नाजुक घड़ी में 

चंद्र है सविता है 

पोस्टर ही कविता है।

चटाख में लगी हुई

कारतूस गोली के धड़ाके से टकरा।

प्रतिरोधी कविता बनती है पोस्टर।"

जन कवि नागार्जुन की कविताएं जितनी सहज एवं सरल प्रतीत होती है, उनकी मारक शक्ति उतनी ही तीव्र होती है। बानगी देखिए :-

"जली डाल की ठूठ पर गई कोकिला कुक 

बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक ।"

इसीलिए कविता के शिल्प की अपेक्षा नागार्जुन ने भाषा पर अधिक ध्यान दिया है । रोजमर्रा की जिंदगी से नागार्जुन साधारण से साधारण शब्द चुनते हैं l उसे एक आक्रमक भाषा का रूप प्रदान करते हैं । कौन-सा शब्द कहां फिट कर देने से भाषा की आक्रमकता बढ़ेगी, इसका उन्होंने हमेशा ध्यान रखा है l यही कारण है कि नागार्जुन की कविताओं में भाषा का सहज एवं सरल रूप होते हुए भी उस में एक पैनी आक्रमकता पाई जाती है।

"इंदु जी, इंदु जी 

क्या हुआ आपको 

भूल गई बाप को।"

6) व्यंग्यात्मकता

समकालीन जनवादी कवियों की कविताएँ व्यंग्य की पैनी धार से सुसज्जित है। व्यंग्यात्मक कविताओं के मामले में नागार्जुन का कोई जवाब नहीं है l यह सच है कि नागार्जुन की अनेक उच्चकोटि की कविताएँ उनकी व्यंग्य कविताएँ ही हैं । नागार्जुन के मारक व्यंग्य का निशाना वह बनता है जो शोषक-शासक वर्ग से सबन्ध जनता को ठगने या कुचलने की बुरी नियत रखता है। नागार्जुन परिस्थितियों और वस्तुओं में अंत: संबंध देखते हैं । इसलिए सामाजिक विधान की असंगतियों को राजनीति से कटकर नहीं पेश करते । यही कारण है कि उनके राजनीतिक व्यंग्य  में शासक-शोषित वर्ग के प्रति उनका रोष तथा दलित जनों के लिए उनका अत्यधिक ममत्व एक साथ विद्यमान है। उनके व्यंग्य की मारक धार के नमूने देखिए -

" मत पूछो तुम इनका हाल 

सर्वोदय के नटवरलाल।"

7) सपाटबयानी

समकालीन कविता के अंतर्गत सपाटबयानी एक प्रमुख विशेषता रही है । अशोक बाजपेई भी इस बात को स्वीकार करते हुए लिखते हैं कि "नयी कविता बिम्ब केंद्रित रही है l अक्सर कवियों में बिम्ब का ऐसा घटा-टोप तैयार हुआ है कि सातवें दशक तक आते-आते प्रगतिशील विचारों वाले कवियों को यह महसूस हुआ कि कविता को बिम्ब से मुक्त करके ही उसे जीवंत और प्रासंगिक रखा जा सकता है l इसी का उत्तर था कविता में सपाटबयानी।" अशोक वाजपेई ने रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह, शमशेर आदि जनवादी कवियों की कविताओं पर सपाटबयानी का आरोप लगाया है । नामवर सिंह की धारणा है की कविता ने सपाटबयानी का यह आग्रह वस्तुतः गद्य सुलभ जीवंत वाक्य विन्यास को पुनः प्रतिष्ठित करने का प्रयास है, जिस के मार्ग में बिम्बवादी रुझान निश्चित रूप से बाधक रहा है।"

8) अलंकारों से परहेज

समकालीन कविता के अंतर्गत अलंकारों का उपयोग नहीं किया गया हैं । समकालीन कविता की भाषा इंद्रजाल से मुक्त अभिधा प्रधान भाषा है । इसमें तद्भव शब्दों का अधिक प्रयोग हुआ है । यह शब्द बोल चाल की भाषा के अभिन्न अंग है । साथ ही इस युग के कवियों ने तत्सम, देशज, उर्दू, अंग्रेजी एवं अन्य भाषा के शब्दों का भी धड़ल्ले से प्रयोग किया है । इस युग के अधिकांश कवियों ने तुक मिलाने की परवाह नहीं की है l छंद हीनता का खुलकर दुरुपयोग किया है । इस कविता में गेयता को अस्वीकार तथा लयात्मकता की उपेक्षा के कारण गद्यांभास विकसित हुआ है । समकालीन कवियों ने शब्द-चयन शब्द लाघव एवं शब्द बचत की तरफ अपेक्षित सतर्कता नहीं बरती है, जिससे उनकी कविताओं का कवितापन भी प्रभावित हुआ है । इस युग की कविता बोलचाल की भाषा से अधिक संबंध रखने वाली है । इसमें लय का अभाव होने के साथ-साथ तुकबंदी को भी दूर रखा गया है।

9) नारी जीवन का यथार्थ चित्रण

समकालीन कविता में भूमंडलीकरण, बाजारीकरण, निजीकरण, साम्राज्यवाद एवं नव उपनिवेशवाद आदि ने संबंधित दुनिया में एक नया बदलाव लाया है l नारी जीवन पर पड़े विभिन्न प्रभाव को समकालीन काव्य में यथार्थ रूप में देखा जा सकता है । संसार में भारतीय नारी की पहचान एक सहज, सरल एवं परिवार के प्रति अपने कर्तव्य को निभाने के रूप में है । जो सदा अपने परिवार के सुख में अपने को सुखी पाती है l ऐसा करने में ही उसे आनंद की अनुभूति मिलती है । चंद्रकांत देवताले ने अपनी एक कविता 'पर कम खुदा न थी परोसनेवाली' के माध्यम से नारी के स्वरूप को उजागर किया है। 

"पर कम खुदा न थी परोसने वाली

बहुत है अभी इसमें 

मैंने तो देर से खाया

कहते परोसती जाती

माँ थी 

सब के बाद खाने वाली

जिसके लिए दाल नहीं 

देचकी में बची थी हलचल 

चुल्लू-भर पानी की 

और कटोर-दान में भाफ के चंद्रमा जैसी

रोटी की छाया थी।"

10) समसामयिक जीवन बोध

समकालीन कविता में समसामायिक जीवन का चित्रण हुआ है । आज के युग में आदमी जब तक घर में है, तब तक यह माना जा सकता है कि वह सामने हैं। दिखलाई पढ़ रहा है, किंतु घर से निकलने के बाद आदमी वापस लौट आएगा कि नहीं कोई नहीं कह सकता । वह वाहनों की भीड में दुर्घटनाग्रस्त हो सकता है, आतंकवादियों द्वारा मारा जा सकता है, कुछ भी हो सकता है । आदमी कितना असुरक्षित हो गया है l कविता की दो पंक्तियां देखिए :-

"जो एक बार घर से निकला 

उसका फिर कोई घर नहीं ।"

कवि जैसे एक समसामायिक सत्य को पाठक के सामने पेश करता है -

"जो घर से निकल गया उसका इंतजार मत करना

कहां जाएगा कहां ले जाएगी हवा उसे 

कहां किस खंदक किस पुल के पाये में

मेले की लाश उस की

तुम पहचान भी सकोगे या नहीं 

या एक ही निशान होगा जांघ का वो काला तिल तुम्हारे पास वो।"

11) दलित समस्या का चित्रण

समकालीन हिंदी दलित कविता सामाजिक न्याय, स्वतंत्रता और सभी क्षेत्रों में समानता की बात करती हैं । वह परंपरागत मिथकों को उठाकर उन्हें नया अर्थ देने की कोशिश करती हैं। विषमता पर आधारित समाज व्यवस्था के लोगों ने जैसा व्यवहार शंबूक के साथ किया था, वैसा ही व्यवहार एकलव्य के साथ भी किया था । सामंती व्यवस्था के पोषक समाज ने सोचा होगा एक शुद्र सम्मान योग्य, शक्तिशाली और योग्य समाज को दिशा देने वाला धनुर्धर न बन जाए l  इसीलिए उन्होंने दक्षिणा के बदले में उसका अंगूठा मांग लिया होगा । इस बारे में सी. बी. भारती अपनी कविता में लिखते हैं कि-

"यह द्रोणाचार्य को

द्रोणाचार्य की जाती को 

उसके द्वारा निर्मित व्यवस्थाओं को

बर्दाश्त न था ।"

आज की दलित कविता विद्रोही है । वह पुरानी मान्यताओं, परंपराओं, नैतिकता और आस्था के प्रति विद्रोह करती है । दलितों के साथ हुए अन्याय, अत्याचारों और शोषण पर टिकी समाज की वर्ण व्यवस्था को नकारती है। इसी क्रम में मलखान सिंह अपने कविता 'सुनो ब्राह्मण' में सामंती संस्कृति के धर्म के ठेकेदारों को सचेत करते हुए कहते हैं -

"तो सुनो! वशिष्ठ 

द्रोणाचार्य तुम भी सुनो 

हम तुमसे घृणा करते हैं 

तुम्हारे अतीत

तुम्हारी आस्थाओं पर थूकते हैं।"

12) आदिवासी जीवन का यथार्थ 

समकालीन कविता में आदिवासी जीवन का यथार्थ पहली बार चित्रित हुआ है l वस्तुतः समकालीन हिंदी कविता में आदिवासी विमर्श जोरों पर है । आदिवासी जीवन की विभिन्न स्थितियों, परिस्थितियों पर अनेक साहित्यकार लेखनी चला रहे हैं, जिनमें लक्ष्मण गायकवाड, रमणिका गुप्ता, रामदयाल मुंडा, लीलाधर मंडलोई, चेतन मांझी, शरद पाटिल, सुदामा जाधव, रोजकेर कट्टा, हरिराम मीणा, माया बोरसे पाल लिंगदोह आदि ने महत्वपूर्ण आदिवासी समस्या पर अपनी लेखनी चलाकर उनके जीवन को उजागर किया है । समकालीन हिंदी कवयित्री निर्मला पुतुल ने आदिवासी नारी का यथार्थ चित्रण किया है । निर्मला पुतुल ने नारी होने के नाते नारी भावना एवं संवेदना की अभिव्यक्ति इस प्रकार दी है।

" तन के भूगोल से परे

एक स्त्री के,

मन की गांठें खोलकर,

कभी पढ़ा है,

तुमने इसके भीतर का

खौलता इतिहास।"

इस प्रकार समकालीन कविता ने जीवन और जगत की सच्चाइयोँ को बेबाकी से वर्णित किया है। इसमें समकालीन जगत के सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक जीवन की यथार्थ बयानी है तो नारी, दलित एवं आदिवासी विमर्श से जुड़े विभिन्न मुद्दे भी प्रमुखता से वर्णित है । 21वीं सदी के बदलाव एवं भूमंडलीकरण के प्रभाव भी हम समकालीन कविता के माध्यम से अनुभूत कर सकते हैं । इस प्रकार समकालीन कविता जीवन की सच्चाईयों का कटु दस्तावेज है । एक ऐसा दर्पण है जो समाज के बदरंग, बदहाल चेहरे को भी स्पष्टता से प्रतिबिंबित करता है ।

अन्य विशेषताएँ :- राष्ट्र के प्रति जाग्रति 

समाज जागृति 

प्रदुषण के प्रति जागृति 

आदिवासी के प्रति जागृति 

पर्यावरण पर दृष्टि 

आतंकवाद पर दृष्टि 

ग्रामीण जीवन पर दृष्टि 

जातिवाद पर दृष्टि 

महंगाई पर कविता 

भ्रष्ट नेता पर कविता 

नारी का बदलता रूप 


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