संत काव्य के प्रमुख कवियों का परिचय एवं विशेषताएँ
संत काव्य धारा
संत काव्य के प्रमुख कवि
संत काव्य के प्रमुख कवि
1) संत नामदेव (1270-1350) नामदेव सातारा जिले में कराड़ के पास नरसीबामणी गाँव में 1270 में उत्पन्न हुए।इनके पिता दामाशेठ और माता का नाम जोनबाई था। ये संत ज्ञानेश्वर के समकालीन थे।
'संत काव्य' का प्रयोग निर्गुण धारा के कवियों की बानियों के लिए ही किया जाता है। संत काव्य का प्रारंभ सामान्यतः पंद्रहवी शताब्दी में माना जाता है किंतु उसकी आधार भूमि उससे भी पुरानी है। भक्ति का प्रवाह दक्षिण से उत्तर की ओर आया, दक्षिण में वैष्णव भक्तों ने भक्ति को एक संबल पुष्ट दिया था। दक्षिण में वैष्णव भक्तों को 'आलवार' कहा गया हैं। ये आलवार भक्त पांचवी से दसवी शताब्दी तक होते रहे हैं। ऐसे बारह आलवार हुए। इनमें आंडाल एक स्री भक्त थी। अपनी इस उत्तरी यात्रा में जब भक्ति की लहर महाराष्ट्र में पहुंची तो संत ज्ञानेश्वर और नामदेव ने उत्तर भारत में पर्यटन कर उसका प्रसार किया। इस प्रकार 13 वी शताब्दी में आकर भक्ति की भावना में एक नए विकास की स्थिति आई, जिसमें जाति और वर्ग की भावनाएं मिट गई। नामदेव स्वय दर्जी थे। उनके विट्ठल संप्रदाय में चक्रधर, गोरा कुम्हार, सावला माली, नरहरि सुनार, चोखा भंगी, सेना नाई आदि सभी लोग थे, जैसे सब जातियों के बंधनों से मुक्त हो गए और केवल संत रह गए। संत ज्ञनेश्वर और नामदेव ने उत्तर भारत की यात्रा की और भक्ति का प्रसार किया।15 वी शताब्दी में महाराष्ट्र की यह भक्ति भावना जब उत्तर में निर्गुण संप्रदाय के संतों ने ग्रहण की तो रामानंद के आश्रय में उस पर एक नया रंग चढ़ गया। दूसरी और मुसलमानों के संपर्क में भी विशेष सूफियों के प्रेम तत्व ने उसकी प्रतिष्ठा के लिए उपयुक्त भूमि तैयार कर दी।
२) रामानंद
राम नन्द का समय 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में पड़ता है। उनके निम्नलिखित बारह शिष्य हैं।इन शिष्यों में कबीर, पीपा, रैदास, धना और सेन संत और कवि दोंनो रूपों में प्रसिद्ध हैं।
3) संत कबीर (जन्म 1455 वि. सन् 1398-मृत्यु 1575 वि. सन् 1632 में हुई।
संत कवियों में एक भक्त, युग-चिंतक और एक प्रखर व्यक्ति के रूप में कबीर का स्थान अन्यतम है। इनके जन्म और मरण की तिथियों के संबंध में पर्याप्त मतभेद है। "1455 साल गए चंद्रवार एक ठाट ठए" के आधार पर उनका जन्म सवंत 1455 (सन 1398) को माना जाता है। कुछ लोग इसका अर्थ 1455 साल बीतने पर यानि 1456 लगाते हैं। उसी प्रकार अन्य लोगों ने अपने अपने मत व्यक्त किए हैं । उनके जीवन के सम्बन्ध में जो तथ्य प्रमाणित हैं, उनके अनुसार वे जुलाहे थे और काशी में निवास करते थे। वे रामानंद के शिष्य थे।
कबीर ने 'मसि-कागद' नहीं छुआ था, कलम हाथ में नहीं पकड़ी थी। उनके शिष्यों ने उनकी वाणी को लिपिबद्ध किया था । अतः उन्होंने कितनी रचनाएं की थी, यह कहना कठिन है। सामान्यतः 'बीजक' उनकी सुप्रसिद्ध कृति मानी जाती है। कबीर की रचनाओं में सबसे अधिक संख्या सखियों की है। सखियों में कबीर ने अनुभूत ज्ञान को व्यक्त किया है। साखियाँ दोहों में लिखी गई है, पर सोरठा, चौपाई, हरि पद, गीता, सार आदि छंदों का भी उनमें प्रयोग हुआ है ।
4) रैदास (जन्म वि. 1445 सन् 1388 ई.)
कबीर के समकालीनों में रैदास अथवा रविदास उल्लेखनीय है। वे जाति के चमार थे और उनके परिवार के लोगों 'ढोरों को ढ़ोने' का कार्य करते थे। वे एक महान संत और उदार व्यक्ति थे। उनकी रचनाएं फुटकर रूप में मिलती है। कवि के रूप में उनकी रचनाओं में गहरी भगवत भक्ति के दर्शन होते हैं। एकांत निष्ठा, मानवीय प्रेम और आत्म समर्पण की भावना से ओतप्रोत उनकी वाणी आज भी भक्तों का कंठहार बनी हुई है।
5) धर्मादास
धर्मदास कबीर पंथ की छत्तीसगढ़ी शाखा के प्रवर्तक बताए जाते हैं। वे कबीर के प्रमुख शिष्य थे। उनकी रचनाएं भक्ति भाव से ओतप्रोत है । उनके फुटकर छंद भिन्न-भिन्न संग्रहों में उपलब्ध होते हैं ।
सिख गुरु परम्परा
6) नानकदेव
नानकदेव का जन्म स. 1526 विक्रमी तलवंडी नामक गाँव में हुआ। पिता का नाम कालूराम था। जो एक साधारण पटवारी थे। इनकी माता का नाम तृप्ता था। इनकी वाणी का संकलन आदि ग्रन्थ-गुरु ग्रन्थ साहब में हुआ है।सिखों में गुरु की लंबी परंपरा देखने को मिलती है। जिनमे गुरु गोविन्द सिंह, गुरु गोविन्द सिंह, गुरु तेग बहादुर आदि है।
7) दादू दयाल (जन्म वि. 1601-सन् 1544 ई.)
संत दादू का जन्म गुजरात के अहमदाबाद में माना जाता है और देहावसान राजस्थान के नाराणा गांव में, जहां इनकी गद्दी आज भी विद्यमान है। कुछ समय तक यह गार्हस्थ्य जीवन व्यतीत करते रहे और अपने पैतृक जीविका धुनियागीरी से जीवन यापन करते रहे। फिर सत्संग, चिंतन और साधना में लग गए। कहा जाता है कि अकबर ने इन्हें आध्यात्मिक चर्चा के लिए सिकरी बुलाया था । इनकी वाणी का एक संग्रह 'हरड़े वाणी' के नाम से उपलब्ध है।
8) सुंदरदास (जन्म वि. 1653 सन् 1596 ई.)
सुंदर दास उच्च कोटि के संत और कवि थे उन्होंने 42 ग्रंथों की रचना की थी। जिनमें 'सुंदर विलास' और 'ज्ञान समुद्र' विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने अपनी रचनाओं में भक्ति, योग और नीति का चित्रण किया है। रज्जब की तुलना में यह दादू के शिष्यों में अधिक ख्यात थे। सुंदर दास ने सवैया और कवित्त लिखे हैं और काव्यंगों के प्रति अन्य संतों की अपेक्षा अधिक जागरुकता दिखाई है।
9) मलूक दास (स. 1631-1739)
मलूक दास का जन्म अकबर के राज्य काल में और मृत्यु औरंगजेब के राज्य काल में हुई थी। मलूक दास ने अनेक ग्रंथ लिखे थे जिनमें 'ज्ञानबोध, रतनखाना, भक्ति विवेक, बारह खड़ी, ब्रज लीला, ध्रुव चरित, सुख सागर आदि उल्लेखनीय है। मलूक दास की रचनाओं में 'ज्ञानबोध' विशेष महत्वपूर्ण है । मलूकदास के सम्बन्ध में बताया जाता है -
"अजगर करें न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कह गये, सब के दाता राम।"
10) यारी साहब
कहां जाता है कि इनका संबंध किसी शाही घराने से था और ऐश्वर्य त्यागकर ये संत बने थे। उनकी समाधि दिल्ली में बताई जाती है। इनके रचनाओं का संग्रह 'रत्नावली' के नाम से प्रसिद्ध है। उनकी कविताओं में आध्यात्मिक अनुभूति की गहराई, तल्लीनता और निर्द्वन्द्वता के दर्शन होते हैं। उनमें एक प्रकार का मस्तानापन मिलता है जिसके कारण उन्हें सूफियों से प्रभावित माना जाता है।
इनके अतिरिक्त सेन नाई 15वीं शताब्दी, धना पीपा जन्म वि. 1472 सन् 1415, गरीबदास जन्म 1774 वि. सन् 1717 आदि उल्लेखनीय संत हैं।ये सभी कवि समाज के उपेक्षित वर्ग से सम्बंधित थे।
'संत काव्य' का प्रयोग निर्गुण धारा के कवियों की बानियों के लिए ही किया जाता है। संत काव्य का प्रारंभ सामान्यतः पंद्रहवी शताब्दी में माना जाता है किंतु उसकी आधार भूमि उससे भी पुरानी है। भक्ति का प्रवाह दक्षिण से उत्तर की ओर आया, दक्षिण में वैष्णव भक्तों ने भक्ति को एक संबल पुष्ट दिया था। दक्षिण में वैष्णव भक्तों को 'आलवार' कहा गया हैं। ये आलवार भक्त पांचवी से दसवी शताब्दी तक होते रहे हैं। ऐसे बारह आलवार हुए। इनमें आंडाल एक स्री भक्त थी। अपनी इस उत्तरी यात्रा में जब भक्ति की लहर महाराष्ट्र में पहुंची तो संत ज्ञानेश्वर और नामदेव ने उत्तर भारत में पर्यटन कर उसका प्रसार किया। इस प्रकार 13 वी शताब्दी में आकर भक्ति की भावना में एक नए विकास की स्थिति आई, जिसमें जाति और वर्ग की भावनाएं मिट गई। नामदेव स्वय दर्जी थे। उनके विट्ठल संप्रदाय में चक्रधर, गोरा कुम्हार, सावला माली, नरहरि सुनार, चोखा भंगी, सेना नाई आदि सभी लोग थे, जैसे सब जातियों के बंधनों से मुक्त हो गए और केवल संत रह गए। संत ज्ञनेश्वर और नामदेव ने उत्तर भारत की यात्रा की और भक्ति का प्रसार किया।15 वी शताब्दी में महाराष्ट्र की यह भक्ति भावना जब उत्तर में निर्गुण संप्रदाय के संतों ने ग्रहण की तो रामानंद के आश्रय में उस पर एक नया रंग चढ़ गया। दूसरी और मुसलमानों के संपर्क में भी विशेष सूफियों के प्रेम तत्व ने उसकी प्रतिष्ठा के लिए उपयुक्त भूमि तैयार कर दी।
२) रामानंद
राम नन्द का समय 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में पड़ता है। उनके निम्नलिखित बारह शिष्य हैं।इन शिष्यों में कबीर, पीपा, रैदास, धना और सेन संत और कवि दोंनो रूपों में प्रसिद्ध हैं।
3) संत कबीर (जन्म 1455 वि. सन् 1398-मृत्यु 1575 वि. सन् 1632 में हुई।
संत कवियों में एक भक्त, युग-चिंतक और एक प्रखर व्यक्ति के रूप में कबीर का स्थान अन्यतम है। इनके जन्म और मरण की तिथियों के संबंध में पर्याप्त मतभेद है। "1455 साल गए चंद्रवार एक ठाट ठए" के आधार पर उनका जन्म सवंत 1455 (सन 1398) को माना जाता है। कुछ लोग इसका अर्थ 1455 साल बीतने पर यानि 1456 लगाते हैं। उसी प्रकार अन्य लोगों ने अपने अपने मत व्यक्त किए हैं । उनके जीवन के सम्बन्ध में जो तथ्य प्रमाणित हैं, उनके अनुसार वे जुलाहे थे और काशी में निवास करते थे। वे रामानंद के शिष्य थे।
कबीर ने 'मसि-कागद' नहीं छुआ था, कलम हाथ में नहीं पकड़ी थी। उनके शिष्यों ने उनकी वाणी को लिपिबद्ध किया था । अतः उन्होंने कितनी रचनाएं की थी, यह कहना कठिन है। सामान्यतः 'बीजक' उनकी सुप्रसिद्ध कृति मानी जाती है। कबीर की रचनाओं में सबसे अधिक संख्या सखियों की है। सखियों में कबीर ने अनुभूत ज्ञान को व्यक्त किया है। साखियाँ दोहों में लिखी गई है, पर सोरठा, चौपाई, हरि पद, गीता, सार आदि छंदों का भी उनमें प्रयोग हुआ है ।
4) रैदास (जन्म वि. 1445 सन् 1388 ई.)
कबीर के समकालीनों में रैदास अथवा रविदास उल्लेखनीय है। वे जाति के चमार थे और उनके परिवार के लोगों 'ढोरों को ढ़ोने' का कार्य करते थे। वे एक महान संत और उदार व्यक्ति थे। उनकी रचनाएं फुटकर रूप में मिलती है। कवि के रूप में उनकी रचनाओं में गहरी भगवत भक्ति के दर्शन होते हैं। एकांत निष्ठा, मानवीय प्रेम और आत्म समर्पण की भावना से ओतप्रोत उनकी वाणी आज भी भक्तों का कंठहार बनी हुई है।
5) धर्मादास
धर्मदास कबीर पंथ की छत्तीसगढ़ी शाखा के प्रवर्तक बताए जाते हैं। वे कबीर के प्रमुख शिष्य थे। उनकी रचनाएं भक्ति भाव से ओतप्रोत है । उनके फुटकर छंद भिन्न-भिन्न संग्रहों में उपलब्ध होते हैं ।
सिख गुरु परम्परा
6) नानकदेव
नानकदेव का जन्म स. 1526 विक्रमी तलवंडी नामक गाँव में हुआ। पिता का नाम कालूराम था। जो एक साधारण पटवारी थे। इनकी माता का नाम तृप्ता था। इनकी वाणी का संकलन आदि ग्रन्थ-गुरु ग्रन्थ साहब में हुआ है।सिखों में गुरु की लंबी परंपरा देखने को मिलती है। जिनमे गुरु गोविन्द सिंह, गुरु गोविन्द सिंह, गुरु तेग बहादुर आदि है।
7) दादू दयाल (जन्म वि. 1601-सन् 1544 ई.)
संत दादू का जन्म गुजरात के अहमदाबाद में माना जाता है और देहावसान राजस्थान के नाराणा गांव में, जहां इनकी गद्दी आज भी विद्यमान है। कुछ समय तक यह गार्हस्थ्य जीवन व्यतीत करते रहे और अपने पैतृक जीविका धुनियागीरी से जीवन यापन करते रहे। फिर सत्संग, चिंतन और साधना में लग गए। कहा जाता है कि अकबर ने इन्हें आध्यात्मिक चर्चा के लिए सिकरी बुलाया था । इनकी वाणी का एक संग्रह 'हरड़े वाणी' के नाम से उपलब्ध है।
8) सुंदरदास (जन्म वि. 1653 सन् 1596 ई.)
सुंदर दास उच्च कोटि के संत और कवि थे उन्होंने 42 ग्रंथों की रचना की थी। जिनमें 'सुंदर विलास' और 'ज्ञान समुद्र' विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने अपनी रचनाओं में भक्ति, योग और नीति का चित्रण किया है। रज्जब की तुलना में यह दादू के शिष्यों में अधिक ख्यात थे। सुंदर दास ने सवैया और कवित्त लिखे हैं और काव्यंगों के प्रति अन्य संतों की अपेक्षा अधिक जागरुकता दिखाई है।
9) मलूक दास (स. 1631-1739)
मलूक दास का जन्म अकबर के राज्य काल में और मृत्यु औरंगजेब के राज्य काल में हुई थी। मलूक दास ने अनेक ग्रंथ लिखे थे जिनमें 'ज्ञानबोध, रतनखाना, भक्ति विवेक, बारह खड़ी, ब्रज लीला, ध्रुव चरित, सुख सागर आदि उल्लेखनीय है। मलूक दास की रचनाओं में 'ज्ञानबोध' विशेष महत्वपूर्ण है । मलूकदास के सम्बन्ध में बताया जाता है -
"अजगर करें न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कह गये, सब के दाता राम।"
10) यारी साहब
कहां जाता है कि इनका संबंध किसी शाही घराने से था और ऐश्वर्य त्यागकर ये संत बने थे। उनकी समाधि दिल्ली में बताई जाती है। इनके रचनाओं का संग्रह 'रत्नावली' के नाम से प्रसिद्ध है। उनकी कविताओं में आध्यात्मिक अनुभूति की गहराई, तल्लीनता और निर्द्वन्द्वता के दर्शन होते हैं। उनमें एक प्रकार का मस्तानापन मिलता है जिसके कारण उन्हें सूफियों से प्रभावित माना जाता है।
इनके अतिरिक्त सेन नाई 15वीं शताब्दी, धना पीपा जन्म वि. 1472 सन् 1415, गरीबदास जन्म 1774 वि. सन् 1717 आदि उल्लेखनीय संत हैं।ये सभी कवि समाज के उपेक्षित वर्ग से सम्बंधित थे।
संत काव्य की सामान्य प्रवृत्तियां
पृष्टभूमि
निर्गुण भक्ति से संबंध रखने वाली ज्ञानाश्रयी शाखा के अंतर्गत संत काव्य का एक विशिष्ट स्थान है। वैसे संत शब्द बहुत व्यापक है। किंतु संत काव्य का प्रयोग निर्गुण धारा के कवियों की बानियों के लिए ही किया जाता है। संत काव्य का प्रारंभ सामान्यतः पंद्रहवी शताब्दी में माना जाता है । किंतु उसकी आधार भूमि उस से भी पुरानी है। भक्ति का प्रवाह दक्षिण से उत्तर की ओर आया। इस समय जब भक्ति की धारा महाराष्ट्र में पहुंची तब संत ज्ञानेश्वर और नामदेव (1270 - 1350) ने उत्तर भारत में पर्यटन कर उसका प्रचार किया नामदेव ने विट्ठल संप्रदाय का निर्माण किया और इस संप्रदाय के अंतर्गत बहुत सारे संत मिल गए। इनमें स्वयं नामदेव दर्जी थे। कुम्हार, माली, सुनार, भंगी, नाई आदि सभी लोग थे। जैसे सब जाति बंधनों से मुक्त हो गए और केवल संत रह गए।
संतो के संबंध में विचार करते हुए हमारा ध्यान नाथों और सिद्धों की ओर चला जाता है। उन्होंने अंधविश्वासों का विरोध किया था। विरोध का यही भाव संत कवियों में मिलता है। कबीर ने सहज गुरु, शून्य, निरंजन आदि को उन्हीं से ग्रहण किया है। संतों ने सगुण निर्गुण से परे ब्रह्म की महिमा गाई है। उन्होंने जनसामान्य को प्रश्रय दिया और इसके लिए ही अवतारवाद, मूर्ति पूजा, कर्मकांड आदि का विरोध किया । इसके अतिरिक्त मानवतावादी जीवन दृष्टि को महत्व देते हुए उन्होंने धार्मिक विद्वेष को दूर करने का प्रयास किया।
संत काव्य की सामान्य प्रवृत्तियां निम्नानुसार स्पष्ट की जा सकती है ।
1) निर्गुण ईश्वर में विश्वास
संत कवियों के काव्य की महति विशेषता या प्रवृत्ति उनका निर्गुण ईश्वर में विश्वास था। कबीर दास ने साधु-संतों को संबोधित करते हुए इसका बार-बार उल्लेख किया है।
"निर्गुण राम जपहु रे भाई।" इन भक्तों के सामने दूसरा कोई विकल्प नहीं था। भक्ति के विधान के साथ अनेक व्यवधान भी खड़े थे। हिंदुओं के बहुदेववाद और अतिशय विश्वास के सामने मुसलमानों का एकेश्वरवाद बहुत सशक्त बन गया था। इसलिए यदि इन के काव्य में कहीं कहीं राम नाम आया भी है तो वह निर्गुण निराकार ब्रह्म के लिए प्रयुक्त हुआ है। कबीरदास ने कहां है -
"दशरथ सूत तिहुं लोक बखाना
राम नाम का मरम है आना।"
इसी तरह अन्य संत कवियों ने भी निर्गुण ब्रह्म के स्वरूप को अपने काव्य के माध्यम से अभिव्यक्त किया है।
2) सद्गुरु का महत्व/ गुरु कृपा की स्वीकृति
ज्ञानमार्गी संत कवियों ने गुरु को बहुत मूल्यवान स्वीकार किया है। भक्तिकाल के अधिकांश संत कवि अधिक पढ़े लिखे नहीं थे। ऐसी स्थिति में उन को अध्यात्म का मार्ग दिखलाने वाला उनका गुरु ही होता था। गुरु जैसा चाहता था वैसा ही अपने शिष्यों को बना देता था। इसीलिए गुरु को उस समय बहुत अच्छा माना जाता था। गुरु का महत्व कबीर के विचारों से स्पष्ट हो जाता है।-
"जैसे गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागो पाय बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताय।"
ज्ञानमार्गी संतों ने जो आध्यात्मिक ज्ञान और अनुभव प्राप्त किया था वह पुस्तकों के माध्यम से नहीं विचार करने तथा सत्संगति करने और अच्छी संगति करने के लिए अच्छे गुरु की आवश्यकता होती थी। इसीलिए कबीर ने गुरु को शिष्य को सुधारने वाला कुम्हार कहां है।
3) सत्संगति का महत्व
सत्संगति के प्रभाव को संत कवियों ने बड़े सशक्त शब्दों में स्वीकार किया है। दादू ने व्यक्त किया है कि यदि साधु मिल जाता है तो उसकी संगति के प्रभाव से ह्रदय में भगवान के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जाता है।
"साधु मिले तब उपजे हिरदे हरि को हेत।
दादू संगति साधु की कृपा करें तब देत।"
इसी तरह सभी संत कवियों ने अपनी वाणी द्वारा साधु की संगति को सराहा है।
4) रूढ़ियों और आडंबरों का विरोध
संत कवियों का समाज हिंदू और मुस्लिम सभ्यता का मिलाजुला समाज था। उस समय दोनों ही धर्मों के समाज में आडंबर का बहुत अधिक प्रयोग हो रहा था। संत कवियों ने समाज को सीधे रास्ते पर लाने के लिए आडंबर का विरोध किया। उन्होंने इसके लिए हिंदुओं की भी और मुस्लिमों की भी आलोचना की। कबीरदास इस तरह के आलोचकों में सबसे आगे थे। उन्होंने हिंदुओं के जप, माला, तिलक, छापा, तीर्थ स्नान, मूर्ति पूजा इन सभी बातों को आडंबर माना है। इस संदर्भ में कबीर कहते हैं -
"दुनिया कैसी बावरी पाथर पूजन जाए।
घर की चाकी कोई न पूजे जाको पीसो खाए।"
मुसलमानों के आडंबर की आलोचना करते हुए रोजा, नमाज, हज, आजान लगाना इन सभी बातों को कबीर ने व्यर्थ माना है। इस पर कवि कबीर कहते हैं -
"कंकड़ पत्थर जोड़ कर मस्जिद लई बनाय ता चढ़ मुल्ला बाग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।"
5) जाति-पाँति का विरोध
संत कवियों के काव्य की यह एक खास विशेषता है कि उन्होंने जाति पाति के भेदभाव का विरोध किया है। भगवान के दरबार में न कोई ऊंचा है ना निचा है, न कोई ब्राह्मण है न कोई शुद्र है। भगवान जाति का भूखा नहीं भाव का भूखा होता है। इसीलिए कबीर का यह कथन प्रसिद्ध है।
"जाति पाति पूछे नहीं कोई हरि को भजे सो हरि का होई ।"
इस का विशेष कारण यह है कि एक तो सभी संत निम्न जाति से संबंध रखते थे। कबीर जुलाहे थे, रैदास चमार थे। इसके अतिरिक्त साथ-साथ इन संतो को हिंदू और मुसलमानों में एकता स्थापित करनी थी। इसीलिए कबीर ने हिंदू और मुसलमानों की कुरीतियों और भेदभाव को समान रुप से फटकारा है। इन सारी बातों के निचोड़ के रूप में वह कहते हैं -
"कहत कबीर सुनो भाई साधो हिंदू तुरक न कोय।"
संत कवियों की वाणी समाज को सुधारने वाली थी। इसलिए जो भी संतों के साथ मिल गया उसके सारे जाति पाँति के बंधन छूट गए। भगवान भक्ति के रंग में जो भी मिल जाता है तब कोई ऊंच-नीच नहीं रह जाता। इसलिए कबीर के यह शब्द बहुत ही महत्वपूर्ण है -
"लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल
लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल।"
6) बहुदेववाद तथा अवतारवाद का विरोध
संत कवियों ने बहुदेव वाद तथा अवतारवाद का विरोध किया है कारण एक तो शंकराचार्य का अद्वैतवाद का प्रभाव शेष था और दूसरे राजनीतिक आवश्यकता भी थी। शासक वर्ग मुसलमान एकेश्वरवादी था। हिंदू मुस्लिम दोनों जातियों के विद्वेष को शांत करके उन में एकता की स्थापना के लिए उन्होंने एकेश्वरवाद का संदेश सुनाया और बहुदेववाद का विरोध किया। कबीर कहते हैं -
"अक्षय पुरुष एक पेड़ है निरंजन डार।
त्रिदेवा शाखा भये पात भया संसार।"
7) रहस्यात्मक उक्तियां
रहस्यात्मक उक्तियां ज्ञानमार्गी संत कवियों की वाणी का श्रृंगार है। इन कवियों ने निराकार ईश्वर की चर्चा के प्रसंग में ऐसे भावों की अभिव्यक्ति की है, जिन्हें हिंदी साहित्य में रहस्यवादी भाव कहां गया है। रहस्यवाद को स्पष्ट करते हुए आचार्य राम चंद्र शुक्ला जी लिखते हैं - "आत्मा परमात्मा का जो अभेद है तथा जो ब्रह्मोन्मुखी प्रवृत्ति है, साधना के क्षेत्र में जिसे अद्वैतवाद कहते हैं, काव्य में उसे ही रहस्यवाद कहते हैं। इस तरह के भावों की अभिव्यक्ति संत कवियों के काव्य में बार-बार की गई है कबीर कहते हैं कहते हैं -
"दुलहिनि गावहु मंगलाचार
हम घरि आये हो राजा राम भरतार।"
या
"जल में कुंभ कुंभ में जल है भीतर बाहर पानी। फूटा कुंभ जल जल ही समान यह तत कहो गयानी।"
अथवा
"आई न सकूं तुझ पै, सकू तुझ बुलाई।
जियरा यों ही लेहुगे, बिरह तपाई-तपाई।"
8) भजन तथा नाम स्मरण
भजन तथा नाम स्मरण के विषय में सभी संत कहते हैं कि वह मन ही मन में होना चाहिए।प्रकट में ना हो
"सहजो सुमिरन कीजिए हिरदे माही छुपाई
होट होट सू ना हिलै सकै नहीं कोई पाई।"
इन लोगों ने ईश्वर प्राप्ति के लिए प्रेम और नाम स्मरण को परमात्मा माना है वेद शास्त्र इस संबंध में निरर्थक है।
"पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होई।"
9) श्रंगार वर्णन एवं विरह की मार्मिक उक्तियां
संत काव्य में श्रंगार तथा शांत रस का अधिक चित्रण हुआ है। प्रणय की दोनों अवस्थाओं- संयोग और वियोग का अत्यंत कलात्मक वर्णन हुआ है। उपदेश परक सूक्तियों में शांत रस की व्यंजना हुई है। उपदेश में कहीं-कहीं इनका स्वर बहुत कर्कश हो गया है किंतु वहां भी लोकसंग्रह की भावना निहित है। इस प्रसंग में इनके व्यक्तित्व की सारी अक्कड़ता और रुक्षता धूल जाती है। नीचे की कुछ पंक्तियां दृष्टव्य है। इनमें सुर जैसा रस तथा मीरा जैसी विरह तिव्रता है।
" विरहिणी उभी पंथ सिरी पंथी बुझै धाई
एक शब्द कहीं पीव का कबरें मिलेंगे आई।"
" आई न सको तुझ पे सको न तुझ बुलाई
जियरा यो ही लेहुगे क्या बिरह तपाई तपाई।"
10) लोकसंग्रह की भावना
इस वर्ग के सभी कवि पारिवारिक जीवन व्यतीत करने वाले थे। नाथ पंथियों की भाँति योगी नहीं थे। यही कारण है कि इनकी वाणी में जीवन जगत के अनुभव की सर्वांगिनता है। संतों की साधना में वैयक्तिकता की अपेक्षा सामाजिक का अधिक है। संतों ने आत्म शुद्धि पर बहुत बल दिया है किंतु वह भी समाज की दृष्टि में रखकर चली है। नाथ पंथियों की साधना व्यक्तिगत और पद्दति शास्त्रीय थी। जब की संतों की साधना सामाजिक और पद्दति स्वतंत्र है। यहां संत समाज सुधारक भी हैं और कवि भी इन्होंने कृष्ण कवियों के समान समाज और राजनीति से आंखें बंद नहीं की थी। उन्होंने अपने समय के समाज का चित्रण अपने काव्य के माध्यम से किया है।
11) नारी के प्रति दृष्टिकोण
संत कवियों ने नारी की कड़ी आलोचना की है। उन्होंने नारी को माया का प्रतीक माना है। उनके अनुसार कनक और कामिनी यह दोनों दुर्गम घटिया है। इसीलिए कबीर कहते हैं -
"नारी की झाई परत अंधो होत भुजंग
कबीरा तिनकी कौन गति जो नित नारी के संग।"
आश्चर्य इस बात है कि जहां एक ओर उन्होंने नारी की इतनी निंदा की है वही दूसरी ओर सती और पतिवृत्ता के आदर्श की मुक्त कंठ से प्रशंसा भी की है। कबीर कहते हैं -
"पतिव्रता मैली भली काली कुंचित कुरूप
पतिव्रता के रूप पर वारो कोटि स्वरूप।"
12) माया से सावधान
सभी संत कवियों ने माया से सावधान रहने का उपदेश दिया है। क्योंकि माया महा ठगिनी होती है और यह भगवान से मिलने के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा हैं। इसीलिए सभी संत कवियों ने माया की निंदा की है। क्योंकि माया ही सबसे बड़ी बाधक है।
13) संत प्रायः अनपढ़ थे।
" मसि कागद छुयो नहीं कलम गहयो न हाथ" उक्ति प्रायः सभी संत कवियों पर चरितार्थ होती है। यह लोग अशिक्षित थे। अतः बोलचाल की भाषा को ही इन्होंने अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। साहित्यिक भाषा के प्रयोग में ये सक्षम थे। संत लोग अपने मत का प्रचार करने के लिए इधर-उधर भ्रमण करते रहते थे। अतः उनकी भाषा खिचड़ी या सधुक्कड़ी हो गई।
14) संतो की भाषा सधुक्कड़ी है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने संतो की भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहां है। संत निरंतर भारत भ्रमण करते थे इसीलिए विभिन्न प्रदेशों की भाषा का प्रभाव उन पर दिखाई देता है। इन में अवधी, ब्रज भाषा, खड़ी बोली, पूर्वी हिंदी, फारसी, अरबी, राजस्थानी, पंजाबी भाषाओं के शब्दों का मिश्रण हो गया है। जैसे
"अषाडियाँ झाई परी पंथ निहारि निहारि।
जीभड़िया छाला पडया राम पुकारी पुकारी।"
15) संतो की भाषा में एकरूपता नहीं है
संत कवि अपने सिद्धांतों के प्रचार के लिए निरंतर भ्रमण करते थे इसलिए वह जिस प्रदेश में गए है उस प्रदेश की बोलियों के शब्द या भाषा उनके काव्य में समाविष्ट हुए हैं। ज्यादातर अपने-अपने प्रदेश के कवियों ने अपने प्रादेशिक बोली का प्रयोग यथासंभव ज्यादा किया है।
16) संत काव्य में साखी और सबद की अधिकता ।
संत काव्य में साखियां और सबद की अधिकता है। जिसे साक्षी भी कहते हैं । इसका छंद दोहा है। जिसका प्रयोग हिंदी और अपभ्रंश साहित्य में भी किया गया है। लोक साहित्य में सबद का प्रयोग प्रचुर मात्रा में प्रचलित है।
17 संतों का मूल उद्देश्य अपने सिद्धांतों का प्रचार करना था।
संतो का मूल उद्देश्य अपने सिद्धान्तों का प्रचार करना था। इसलिए उन के संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ठीक ही कहा है -" कविता करने के लिए उन्होंने कविता नहीं की है उनकी विचारधारा सत्य की खोज में बही है उसी का प्रकाश करना उनका ध्येय है। उनकी विचारधारा का प्रवाह जीवन धारा के प्रवाह से भिन्न नहीं उनमें उनका ह्रदय घुला मिला है उनकी प्रतिभा ह्रदय संबंधित है इसी कारण उनके काव्य में भाव पक्ष और कला पक्ष विद्यमान है।
18) संत काव्य में रस योजना
संत कवियों की वाणी में संसार की असारता व्यक्ति ज्ञान और भक्ति आदि के भावों की अभिव्यक्ति हुई है। इनको इनकी वाणी में संसार की दृष्टि से विचार करें तो सर्वाधिक प्रयुक्त रस शांत रस मिलता है। कबीरदास जब कहते हैं - 'ना घर मेरा ना घर तेरा' तो शांत रस की अभिव्यक्ति होती है।
19) उलट बासियों का प्रयोग
संत कवियों में से अनेक संत ऐसे हुए हैं जिन्होंने उलट वासियों के प्रयोग किए हैं । उलट वासियों को अर्थ विपर्यय रूपक भी कहां गया है। जिससे कवि अध्यात्मिक भाव को ऐसे ढंग से कहता है जो सुनने में उलटे लगते हैं परंतु उनमें गंभीर आध्यात्मिक विचार होते हैं । इस तरह के वर्णन आध्यात्मिकता के तत्व को कुछ खास व्यक्तियों तक ही पहुंचाने की कामना से किए जाते हैं। इस तरह का एक उदाहरण कबीर की वाणी में देखिए -
"समुंदर लागी आग नदिया जल कोयल भई
देख कबीरा जाग मछली रुखा चढ़ गई ।"
20) संगीत प्रेम
संत कवियों की वाणी में अनुभूति की गहराई देखने में आती है। उस अनुभूति को उन्होंने संगीत का सहारा देकर बहुत प्रभावशाली बना दिया है। ऐसे अनेक जन श्रुतियां है कि कोई संत भजनिक था और कोई गायक था। इनमें से कुछ बड़े प्रसिद्ध गायक भी थे। कहते हैं दादू पंत के संत गरीबदास बड़े अच्छे गायक थे। विद्वानों के अनुसार संतों की वाणी में अनेक राग दिखाई देते हैं उदाहरण के लिए राग गौड़ीय, राग बिलावल, राग सोरठा, राग सारंग, राग धनाश्री, राग मारू, राग भैरव, राग पूरी राग आसावरी, राग रामकली, राग मल्हार इसी तरह के राग उनके काव्य में मिलते हैं।राग ठीक बैठा तो ठीक है अन्यथा कोई बात नहीं ।इसलिए उन्होंने बड़ी महत्वपूर्ण बात कही गई मिलती है - "तुम जानू गीत है यह निज ब्रह्मविचार" उन की वाणी में भावुकता संक्षिप्तता मुक्तक शैली, गेयता आदि विशेषताएं संगीत की होती है और यह संत कवियों के काव्य में बार-बार देखने में आती हैं ।
21) छंद प्रयोग
संत कवियों की रचनाएं पद्य में ही होती है। यह संत अधिकतर कम पढ़े लिखे थे। इनको छंदशास्त्र की शिक्षा का ज्ञान भी नहीं था और उन्होंने अपने काव्य रचना छंद शास्त्र के ज्ञान को प्रकट करने के लिए लिखा भी नहीं था। उन्होंने अनेक प्रकार के छंदों की रचना की है। सुंदर दास के बारेमें विद्वानों ने माना है कि उन्होंने लगभग 50-60 तरह के छोटे बड़े छन्दों का प्रयोग किया है। उनकी अति प्रसिद्ध रचना 'सुंदर विलास' है। उस अकेली रचना में नौ तरह के छंदों का प्रयोग भी करते हैं। इन में प्रमुख रूप से कवित्त, सवैया, छप्पय, कुंडली, अरिल्ल, बर्वे आदि है। इसी प्रकार सभी संत कवियों के काव्य में छंदों का प्रयोग दिखाई देता है।
22) अलंकार प्रयोग
संत कवियों के वाणी में तरह-तरह के अलंकारों का प्रयोग भी देखने में आता है। यद्यपि यह स्पष्ट है कि उन्होंने अलंकार को प्रयोग में जानबूझकर लाने की चेष्टा नहीं की। अनुभूति की तीव्रता कई बार अलंकार के द्वारा ही व्यक्त हो पाती है। संतों ने रूपक अलंकार का प्रयोग बड़ी सफलता के साथ किया है। कबीर जब कहते हैं - "संतो भाई आई ज्ञान की आंधी रे" तब बिना प्रयास ही रूपक अलंकार का प्रयोग हो जाता है। या वे कहते हैं "माया दीपक नर पतंग भ्रमि-भ्रमि ईवै परत" तो भी रूपक अलंकार का प्रयोग हो जाता है। विद्वानों ने लगभग 40-45 तरह के अलंकारों को संतों की वाणी में गिनाया है। अधिकतर अलंकार उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, श्लेष, यमक, अनुप्रास आदि ह। इस प्रकार संत कवियों ने अपनी वाणी का इन विशेषताओं के माध्यम से प्रचार किया है।
पृष्टभूमि
निर्गुण भक्ति से संबंध रखने वाली ज्ञानाश्रयी शाखा के अंतर्गत संत काव्य का एक विशिष्ट स्थान है। वैसे संत शब्द बहुत व्यापक है। किंतु संत काव्य का प्रयोग निर्गुण धारा के कवियों की बानियों के लिए ही किया जाता है। संत काव्य का प्रारंभ सामान्यतः पंद्रहवी शताब्दी में माना जाता है । किंतु उसकी आधार भूमि उस से भी पुरानी है। भक्ति का प्रवाह दक्षिण से उत्तर की ओर आया। इस समय जब भक्ति की धारा महाराष्ट्र में पहुंची तब संत ज्ञानेश्वर और नामदेव (1270 - 1350) ने उत्तर भारत में पर्यटन कर उसका प्रचार किया नामदेव ने विट्ठल संप्रदाय का निर्माण किया और इस संप्रदाय के अंतर्गत बहुत सारे संत मिल गए। इनमें स्वयं नामदेव दर्जी थे। कुम्हार, माली, सुनार, भंगी, नाई आदि सभी लोग थे। जैसे सब जाति बंधनों से मुक्त हो गए और केवल संत रह गए।
संतो के संबंध में विचार करते हुए हमारा ध्यान नाथों और सिद्धों की ओर चला जाता है। उन्होंने अंधविश्वासों का विरोध किया था। विरोध का यही भाव संत कवियों में मिलता है। कबीर ने सहज गुरु, शून्य, निरंजन आदि को उन्हीं से ग्रहण किया है। संतों ने सगुण निर्गुण से परे ब्रह्म की महिमा गाई है। उन्होंने जनसामान्य को प्रश्रय दिया और इसके लिए ही अवतारवाद, मूर्ति पूजा, कर्मकांड आदि का विरोध किया । इसके अतिरिक्त मानवतावादी जीवन दृष्टि को महत्व देते हुए उन्होंने धार्मिक विद्वेष को दूर करने का प्रयास किया।
संत काव्य की सामान्य प्रवृत्तियां निम्नानुसार स्पष्ट की जा सकती है ।
1) निर्गुण ईश्वर में विश्वास
संत कवियों के काव्य की महति विशेषता या प्रवृत्ति उनका निर्गुण ईश्वर में विश्वास था। कबीर दास ने साधु-संतों को संबोधित करते हुए इसका बार-बार उल्लेख किया है।
"निर्गुण राम जपहु रे भाई।" इन भक्तों के सामने दूसरा कोई विकल्प नहीं था। भक्ति के विधान के साथ अनेक व्यवधान भी खड़े थे। हिंदुओं के बहुदेववाद और अतिशय विश्वास के सामने मुसलमानों का एकेश्वरवाद बहुत सशक्त बन गया था। इसलिए यदि इन के काव्य में कहीं कहीं राम नाम आया भी है तो वह निर्गुण निराकार ब्रह्म के लिए प्रयुक्त हुआ है। कबीरदास ने कहां है -
"दशरथ सूत तिहुं लोक बखाना
राम नाम का मरम है आना।"
इसी तरह अन्य संत कवियों ने भी निर्गुण ब्रह्म के स्वरूप को अपने काव्य के माध्यम से अभिव्यक्त किया है।
2) सद्गुरु का महत्व/ गुरु कृपा की स्वीकृति
ज्ञानमार्गी संत कवियों ने गुरु को बहुत मूल्यवान स्वीकार किया है। भक्तिकाल के अधिकांश संत कवि अधिक पढ़े लिखे नहीं थे। ऐसी स्थिति में उन को अध्यात्म का मार्ग दिखलाने वाला उनका गुरु ही होता था। गुरु जैसा चाहता था वैसा ही अपने शिष्यों को बना देता था। इसीलिए गुरु को उस समय बहुत अच्छा माना जाता था। गुरु का महत्व कबीर के विचारों से स्पष्ट हो जाता है।-
"जैसे गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागो पाय बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताय।"
ज्ञानमार्गी संतों ने जो आध्यात्मिक ज्ञान और अनुभव प्राप्त किया था वह पुस्तकों के माध्यम से नहीं विचार करने तथा सत्संगति करने और अच्छी संगति करने के लिए अच्छे गुरु की आवश्यकता होती थी। इसीलिए कबीर ने गुरु को शिष्य को सुधारने वाला कुम्हार कहां है।
3) सत्संगति का महत्व
सत्संगति के प्रभाव को संत कवियों ने बड़े सशक्त शब्दों में स्वीकार किया है। दादू ने व्यक्त किया है कि यदि साधु मिल जाता है तो उसकी संगति के प्रभाव से ह्रदय में भगवान के प्रति प्रेम उत्पन्न हो जाता है।
"साधु मिले तब उपजे हिरदे हरि को हेत।
दादू संगति साधु की कृपा करें तब देत।"
इसी तरह सभी संत कवियों ने अपनी वाणी द्वारा साधु की संगति को सराहा है।
4) रूढ़ियों और आडंबरों का विरोध
संत कवियों का समाज हिंदू और मुस्लिम सभ्यता का मिलाजुला समाज था। उस समय दोनों ही धर्मों के समाज में आडंबर का बहुत अधिक प्रयोग हो रहा था। संत कवियों ने समाज को सीधे रास्ते पर लाने के लिए आडंबर का विरोध किया। उन्होंने इसके लिए हिंदुओं की भी और मुस्लिमों की भी आलोचना की। कबीरदास इस तरह के आलोचकों में सबसे आगे थे। उन्होंने हिंदुओं के जप, माला, तिलक, छापा, तीर्थ स्नान, मूर्ति पूजा इन सभी बातों को आडंबर माना है। इस संदर्भ में कबीर कहते हैं -
"दुनिया कैसी बावरी पाथर पूजन जाए।
घर की चाकी कोई न पूजे जाको पीसो खाए।"
मुसलमानों के आडंबर की आलोचना करते हुए रोजा, नमाज, हज, आजान लगाना इन सभी बातों को कबीर ने व्यर्थ माना है। इस पर कवि कबीर कहते हैं -
"कंकड़ पत्थर जोड़ कर मस्जिद लई बनाय ता चढ़ मुल्ला बाग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।"
5) जाति-पाँति का विरोध
संत कवियों के काव्य की यह एक खास विशेषता है कि उन्होंने जाति पाति के भेदभाव का विरोध किया है। भगवान के दरबार में न कोई ऊंचा है ना निचा है, न कोई ब्राह्मण है न कोई शुद्र है। भगवान जाति का भूखा नहीं भाव का भूखा होता है। इसीलिए कबीर का यह कथन प्रसिद्ध है।
"जाति पाति पूछे नहीं कोई हरि को भजे सो हरि का होई ।"
इस का विशेष कारण यह है कि एक तो सभी संत निम्न जाति से संबंध रखते थे। कबीर जुलाहे थे, रैदास चमार थे। इसके अतिरिक्त साथ-साथ इन संतो को हिंदू और मुसलमानों में एकता स्थापित करनी थी। इसीलिए कबीर ने हिंदू और मुसलमानों की कुरीतियों और भेदभाव को समान रुप से फटकारा है। इन सारी बातों के निचोड़ के रूप में वह कहते हैं -
"कहत कबीर सुनो भाई साधो हिंदू तुरक न कोय।"
संत कवियों की वाणी समाज को सुधारने वाली थी। इसलिए जो भी संतों के साथ मिल गया उसके सारे जाति पाँति के बंधन छूट गए। भगवान भक्ति के रंग में जो भी मिल जाता है तब कोई ऊंच-नीच नहीं रह जाता। इसलिए कबीर के यह शब्द बहुत ही महत्वपूर्ण है -
"लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल
लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल।"
6) बहुदेववाद तथा अवतारवाद का विरोध
संत कवियों ने बहुदेव वाद तथा अवतारवाद का विरोध किया है कारण एक तो शंकराचार्य का अद्वैतवाद का प्रभाव शेष था और दूसरे राजनीतिक आवश्यकता भी थी। शासक वर्ग मुसलमान एकेश्वरवादी था। हिंदू मुस्लिम दोनों जातियों के विद्वेष को शांत करके उन में एकता की स्थापना के लिए उन्होंने एकेश्वरवाद का संदेश सुनाया और बहुदेववाद का विरोध किया। कबीर कहते हैं -
"अक्षय पुरुष एक पेड़ है निरंजन डार।
त्रिदेवा शाखा भये पात भया संसार।"
7) रहस्यात्मक उक्तियां
रहस्यात्मक उक्तियां ज्ञानमार्गी संत कवियों की वाणी का श्रृंगार है। इन कवियों ने निराकार ईश्वर की चर्चा के प्रसंग में ऐसे भावों की अभिव्यक्ति की है, जिन्हें हिंदी साहित्य में रहस्यवादी भाव कहां गया है। रहस्यवाद को स्पष्ट करते हुए आचार्य राम चंद्र शुक्ला जी लिखते हैं - "आत्मा परमात्मा का जो अभेद है तथा जो ब्रह्मोन्मुखी प्रवृत्ति है, साधना के क्षेत्र में जिसे अद्वैतवाद कहते हैं, काव्य में उसे ही रहस्यवाद कहते हैं। इस तरह के भावों की अभिव्यक्ति संत कवियों के काव्य में बार-बार की गई है कबीर कहते हैं कहते हैं -
"दुलहिनि गावहु मंगलाचार
हम घरि आये हो राजा राम भरतार।"
या
"जल में कुंभ कुंभ में जल है भीतर बाहर पानी। फूटा कुंभ जल जल ही समान यह तत कहो गयानी।"
अथवा
"आई न सकूं तुझ पै, सकू तुझ बुलाई।
जियरा यों ही लेहुगे, बिरह तपाई-तपाई।"
8) भजन तथा नाम स्मरण
भजन तथा नाम स्मरण के विषय में सभी संत कहते हैं कि वह मन ही मन में होना चाहिए।प्रकट में ना हो
"सहजो सुमिरन कीजिए हिरदे माही छुपाई
होट होट सू ना हिलै सकै नहीं कोई पाई।"
इन लोगों ने ईश्वर प्राप्ति के लिए प्रेम और नाम स्मरण को परमात्मा माना है वेद शास्त्र इस संबंध में निरर्थक है।
"पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होई।"
9) श्रंगार वर्णन एवं विरह की मार्मिक उक्तियां
संत काव्य में श्रंगार तथा शांत रस का अधिक चित्रण हुआ है। प्रणय की दोनों अवस्थाओं- संयोग और वियोग का अत्यंत कलात्मक वर्णन हुआ है। उपदेश परक सूक्तियों में शांत रस की व्यंजना हुई है। उपदेश में कहीं-कहीं इनका स्वर बहुत कर्कश हो गया है किंतु वहां भी लोकसंग्रह की भावना निहित है। इस प्रसंग में इनके व्यक्तित्व की सारी अक्कड़ता और रुक्षता धूल जाती है। नीचे की कुछ पंक्तियां दृष्टव्य है। इनमें सुर जैसा रस तथा मीरा जैसी विरह तिव्रता है।
" विरहिणी उभी पंथ सिरी पंथी बुझै धाई
एक शब्द कहीं पीव का कबरें मिलेंगे आई।"
" आई न सको तुझ पे सको न तुझ बुलाई
जियरा यो ही लेहुगे क्या बिरह तपाई तपाई।"
10) लोकसंग्रह की भावना
इस वर्ग के सभी कवि पारिवारिक जीवन व्यतीत करने वाले थे। नाथ पंथियों की भाँति योगी नहीं थे। यही कारण है कि इनकी वाणी में जीवन जगत के अनुभव की सर्वांगिनता है। संतों की साधना में वैयक्तिकता की अपेक्षा सामाजिक का अधिक है। संतों ने आत्म शुद्धि पर बहुत बल दिया है किंतु वह भी समाज की दृष्टि में रखकर चली है। नाथ पंथियों की साधना व्यक्तिगत और पद्दति शास्त्रीय थी। जब की संतों की साधना सामाजिक और पद्दति स्वतंत्र है। यहां संत समाज सुधारक भी हैं और कवि भी इन्होंने कृष्ण कवियों के समान समाज और राजनीति से आंखें बंद नहीं की थी। उन्होंने अपने समय के समाज का चित्रण अपने काव्य के माध्यम से किया है।
11) नारी के प्रति दृष्टिकोण
संत कवियों ने नारी की कड़ी आलोचना की है। उन्होंने नारी को माया का प्रतीक माना है। उनके अनुसार कनक और कामिनी यह दोनों दुर्गम घटिया है। इसीलिए कबीर कहते हैं -
"नारी की झाई परत अंधो होत भुजंग
कबीरा तिनकी कौन गति जो नित नारी के संग।"
आश्चर्य इस बात है कि जहां एक ओर उन्होंने नारी की इतनी निंदा की है वही दूसरी ओर सती और पतिवृत्ता के आदर्श की मुक्त कंठ से प्रशंसा भी की है। कबीर कहते हैं -
"पतिव्रता मैली भली काली कुंचित कुरूप
पतिव्रता के रूप पर वारो कोटि स्वरूप।"
12) माया से सावधान
सभी संत कवियों ने माया से सावधान रहने का उपदेश दिया है। क्योंकि माया महा ठगिनी होती है और यह भगवान से मिलने के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा हैं। इसीलिए सभी संत कवियों ने माया की निंदा की है। क्योंकि माया ही सबसे बड़ी बाधक है।
13) संत प्रायः अनपढ़ थे।
" मसि कागद छुयो नहीं कलम गहयो न हाथ" उक्ति प्रायः सभी संत कवियों पर चरितार्थ होती है। यह लोग अशिक्षित थे। अतः बोलचाल की भाषा को ही इन्होंने अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। साहित्यिक भाषा के प्रयोग में ये सक्षम थे। संत लोग अपने मत का प्रचार करने के लिए इधर-उधर भ्रमण करते रहते थे। अतः उनकी भाषा खिचड़ी या सधुक्कड़ी हो गई।
14) संतो की भाषा सधुक्कड़ी है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने संतो की भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहां है। संत निरंतर भारत भ्रमण करते थे इसीलिए विभिन्न प्रदेशों की भाषा का प्रभाव उन पर दिखाई देता है। इन में अवधी, ब्रज भाषा, खड़ी बोली, पूर्वी हिंदी, फारसी, अरबी, राजस्थानी, पंजाबी भाषाओं के शब्दों का मिश्रण हो गया है। जैसे
"अषाडियाँ झाई परी पंथ निहारि निहारि।
जीभड़िया छाला पडया राम पुकारी पुकारी।"
15) संतो की भाषा में एकरूपता नहीं है
संत कवि अपने सिद्धांतों के प्रचार के लिए निरंतर भ्रमण करते थे इसलिए वह जिस प्रदेश में गए है उस प्रदेश की बोलियों के शब्द या भाषा उनके काव्य में समाविष्ट हुए हैं। ज्यादातर अपने-अपने प्रदेश के कवियों ने अपने प्रादेशिक बोली का प्रयोग यथासंभव ज्यादा किया है।
16) संत काव्य में साखी और सबद की अधिकता ।
संत काव्य में साखियां और सबद की अधिकता है। जिसे साक्षी भी कहते हैं । इसका छंद दोहा है। जिसका प्रयोग हिंदी और अपभ्रंश साहित्य में भी किया गया है। लोक साहित्य में सबद का प्रयोग प्रचुर मात्रा में प्रचलित है।
17 संतों का मूल उद्देश्य अपने सिद्धांतों का प्रचार करना था।
संतो का मूल उद्देश्य अपने सिद्धान्तों का प्रचार करना था। इसलिए उन के संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ठीक ही कहा है -" कविता करने के लिए उन्होंने कविता नहीं की है उनकी विचारधारा सत्य की खोज में बही है उसी का प्रकाश करना उनका ध्येय है। उनकी विचारधारा का प्रवाह जीवन धारा के प्रवाह से भिन्न नहीं उनमें उनका ह्रदय घुला मिला है उनकी प्रतिभा ह्रदय संबंधित है इसी कारण उनके काव्य में भाव पक्ष और कला पक्ष विद्यमान है।
18) संत काव्य में रस योजना
संत कवियों की वाणी में संसार की असारता व्यक्ति ज्ञान और भक्ति आदि के भावों की अभिव्यक्ति हुई है। इनको इनकी वाणी में संसार की दृष्टि से विचार करें तो सर्वाधिक प्रयुक्त रस शांत रस मिलता है। कबीरदास जब कहते हैं - 'ना घर मेरा ना घर तेरा' तो शांत रस की अभिव्यक्ति होती है।
19) उलट बासियों का प्रयोग
संत कवियों में से अनेक संत ऐसे हुए हैं जिन्होंने उलट वासियों के प्रयोग किए हैं । उलट वासियों को अर्थ विपर्यय रूपक भी कहां गया है। जिससे कवि अध्यात्मिक भाव को ऐसे ढंग से कहता है जो सुनने में उलटे लगते हैं परंतु उनमें गंभीर आध्यात्मिक विचार होते हैं । इस तरह के वर्णन आध्यात्मिकता के तत्व को कुछ खास व्यक्तियों तक ही पहुंचाने की कामना से किए जाते हैं। इस तरह का एक उदाहरण कबीर की वाणी में देखिए -
"समुंदर लागी आग नदिया जल कोयल भई
देख कबीरा जाग मछली रुखा चढ़ गई ।"
20) संगीत प्रेम
संत कवियों की वाणी में अनुभूति की गहराई देखने में आती है। उस अनुभूति को उन्होंने संगीत का सहारा देकर बहुत प्रभावशाली बना दिया है। ऐसे अनेक जन श्रुतियां है कि कोई संत भजनिक था और कोई गायक था। इनमें से कुछ बड़े प्रसिद्ध गायक भी थे। कहते हैं दादू पंत के संत गरीबदास बड़े अच्छे गायक थे। विद्वानों के अनुसार संतों की वाणी में अनेक राग दिखाई देते हैं उदाहरण के लिए राग गौड़ीय, राग बिलावल, राग सोरठा, राग सारंग, राग धनाश्री, राग मारू, राग भैरव, राग पूरी राग आसावरी, राग रामकली, राग मल्हार इसी तरह के राग उनके काव्य में मिलते हैं।राग ठीक बैठा तो ठीक है अन्यथा कोई बात नहीं ।इसलिए उन्होंने बड़ी महत्वपूर्ण बात कही गई मिलती है - "तुम जानू गीत है यह निज ब्रह्मविचार" उन की वाणी में भावुकता संक्षिप्तता मुक्तक शैली, गेयता आदि विशेषताएं संगीत की होती है और यह संत कवियों के काव्य में बार-बार देखने में आती हैं ।
21) छंद प्रयोग
संत कवियों की रचनाएं पद्य में ही होती है। यह संत अधिकतर कम पढ़े लिखे थे। इनको छंदशास्त्र की शिक्षा का ज्ञान भी नहीं था और उन्होंने अपने काव्य रचना छंद शास्त्र के ज्ञान को प्रकट करने के लिए लिखा भी नहीं था। उन्होंने अनेक प्रकार के छंदों की रचना की है। सुंदर दास के बारेमें विद्वानों ने माना है कि उन्होंने लगभग 50-60 तरह के छोटे बड़े छन्दों का प्रयोग किया है। उनकी अति प्रसिद्ध रचना 'सुंदर विलास' है। उस अकेली रचना में नौ तरह के छंदों का प्रयोग भी करते हैं। इन में प्रमुख रूप से कवित्त, सवैया, छप्पय, कुंडली, अरिल्ल, बर्वे आदि है। इसी प्रकार सभी संत कवियों के काव्य में छंदों का प्रयोग दिखाई देता है।
22) अलंकार प्रयोग
संत कवियों के वाणी में तरह-तरह के अलंकारों का प्रयोग भी देखने में आता है। यद्यपि यह स्पष्ट है कि उन्होंने अलंकार को प्रयोग में जानबूझकर लाने की चेष्टा नहीं की। अनुभूति की तीव्रता कई बार अलंकार के द्वारा ही व्यक्त हो पाती है। संतों ने रूपक अलंकार का प्रयोग बड़ी सफलता के साथ किया है। कबीर जब कहते हैं - "संतो भाई आई ज्ञान की आंधी रे" तब बिना प्रयास ही रूपक अलंकार का प्रयोग हो जाता है। या वे कहते हैं "माया दीपक नर पतंग भ्रमि-भ्रमि ईवै परत" तो भी रूपक अलंकार का प्रयोग हो जाता है। विद्वानों ने लगभग 40-45 तरह के अलंकारों को संतों की वाणी में गिनाया है। अधिकतर अलंकार उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, श्लेष, यमक, अनुप्रास आदि ह। इस प्रकार संत कवियों ने अपनी वाणी का इन विशेषताओं के माध्यम से प्रचार किया है।
Better
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
DeleteThank u very much
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