प्रयोगवादी कविता की विशेषताएँ / प्रवृतियाँ
प्रयोगवद (1943 से 1950)
प्रयोगवादी
कविता की विशेषताएँ
प्रस्तावना
बीसवी शताब्दी
के उत्थान-काल में मानव-जीवन के मूल्यों में विशेष परिवर्तन दिखाई देता है। युद्ध की
विभीषिकाओं से त्रस्त समाज था। उसकी मान्यताएं उस मानव की मान्यताओं से भिन्न हुई जिसने
ऐसे त्रास को नहीं देखा, जिसने ऐसी वैज्ञानिकता को नहीं देखा, जिसने ऐसे नग्न यथार्थ
को नही देखा । सामाजिक, राजनैतिक परिस्थिति के उहापोह में साहित्यकार भी बदला । उसके
दृष्टिकोण में नयापन आया। वैसे तो कोई कविता तभी वास्तविक कविता
कहलाती है जब वह नई हो, पर आजकल नई कविता का विशेषण एक खास सामाजिक
परिवेश के मानव की खास तरह की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति
करनेवाला स्वर है। आरम्भ में अज्ञेय ने 'तारसप्तक' के सात कवियों को नये कवियों के रूप
में प्रतिष्ठा दिलाने का प्रयत्न किया और उसे प्रयोगवाद की संज्ञा दी।
अपने को 'राहो का अन्वेषी' कहा और नए प्रयोग करने
पर प्रयत्नशील हआ।
कुछ विद्वान प्रयोगवाद और नयी कविता
को एक ही मानते हैं। और कुछ लोग अति आधुनिक कविता को नयी कविता का नाम देते हैं। इस सम्बन्ध में एक बात ध्यान देने योग्य है। । सन् 1950 ई.में
यूरोप के कवियों ने उस समय के पिछले पंद्रह वर्षों के
काव्य को 'न्यू पोयट्री' नाम दिया। प्रयोगवाद के नए अन्वेषकों ने प्रयोगवाद से अगले
समय की कविताओं को नयी कविता नाम उसी अनुकरण पर दिया।
प्रयोगवादी
कविता का आरम्भ अज्ञेय द्वारा सम्पादित 'तारसप्तक से माना जाता है। 'तारसप्तक' में
सात कवियों की रचनाएँ संग्रहित है। इसका प्रकाशन सन 1943 ई. में हआ। तार
सप्तक के सात कवि ये है - अज्ञेय, गजानन माधव मक्तिबोध, नेमिचंद्र जैन,
भारतभूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, गिरिजाकुमार माथुर, डॉ. रामविलास शर्मा आदि l
प्रयोगवाद
का दूसरा संग्रह 'दूसरे सप्तक के नाम से सन 1951 ई. में प्रकाशित हआ। दूसरे तारसप्तक
के कवि ये हैं। भवानी प्रसाद मिश्र, शकुंतला माथुर, हरिनारायण व्यास,
शमशेर बहाद्दर सिंह, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय और धर्मवीर शास्त्री आदि l
आज के युग
में आज की परिस्थितियों ने कवि को इस तरह सोचने के लिए विवश कर दिया है। आज का कवि
अपने परिवेश के प्रति सतत जागरूक है। वह देखता है कि आज दुःख,
दैन्य, विषमता, शोषण, अराजकता, त्रास और दर्द के बीच मानव छटपटा
रहा है। वर्ण संघर्ष सर्वत्र मुखर है। वह परिस्थिति से समझौता नहीं कर पता और उसके बदले
सफलता भी नहीं मिलती है। इसलिए उसके भीतर एक घुटन, कुण्ठा
छटपटाहट रहती है। वह अपने भीतर ही भीतर घुटता रहता है। परेशान होता
है। उसकी ऐसी असमर्थ दुर्बलता और दुःख, क्षोभ केवल शब्दों के माध्यम से ही बाहर निकलता
है। इस अभिव्यक्ति द्वारा कवि किसी नए सत्य की खोज के प्रयास
का मिथ्या अहंकार रखता है। सत्य तो सूर्य है। वह पहले से है। स्वय प्रकाश को खोजकर
कोई क्या निकलेगा वह तो दूर से प्रत्यक्ष है। समाज के इस प्रत्यक्ष सत्य को प्रयोगवादी
कवि ने प्रयोग करके कविता के शब्दों में खोजने की बात कहकर
चर्वित-चर्वण करता है। प्रयोगवादी कवि जिस सत्य को खोजने में तत्पर
है, वह नयी भाषा, नये प्रतीक, नये उपमान, नये अलंकार, नये बिम्ब, नये छंद और नयी शैली
का प्रयोग करता है।
1) घोर व्यक्तिवाद
प्रयोगवादी कवि
व्यक्तिनिष्ठ है। वह अपनी बात कहता है । समाज की उपेक्षा करता है। वह अपने तक
सीमित रहकर घोर।अहवादी बन गया है । इस तरह से स्वकेंद्रित भवों की अभिव्यक्ति
प्रयोगवादी कवि के अनेक कविताओं में मिलती है।
“मैं जो घाना हूँ
मैं जो शुद्ध
अंधेरे का बना हूँ
मुझेपकडे रहो
-- भवानी प्रसाद मिश्र
2) नग्न यथार्थवद l”
प्रयोगवादी
कविता में दूषित मनोवृत्ति के बहुत से चित्र देखने में आते हैं। कवि यथार्थ की बात
कहना चाहता है। यथार्थ के साथ पूरी ईमानदारी निभाना चाहता है। उस क्रम में वह यह नहीं देखता कि उसे क्या कहना
है और क्या नहीं कहना । फल यह है कि बहुत
से कवियों ने भद्दे भदेस और अश्लील प्रयोग किये हैं। इन्हें वे यथार्थ की अभिव्यक्ति
कहते हैं। पर अभिव्यक्ति अपने आप में नंगी है। इस विषय में सबसे
अधिक जागरूक कवि अज्ञेय की कविता में भी भदेसपन मिलता है l
"मूत्र
संचित मृतिका के वृत में
तीन टांगो
पर खड़ा नत-ग्रीव
। धैर्य धन
गदहा।
यही भाव कुवर
नारायण की कविता में भी व्यक्त हए है।
आमाशय, यौनाशय,
गर्भाशय
| जिसकी जिंदगी
का यही आशय
३) निराशावाद
युग की परिस्थितियों के पत्थरों को फोड़ने में असमर्थ
कवि निराशा में डूबा हुआ है। वह जो कुछ पाना चाहता है, वह प्राप्त नही होता। वह जिस परिवेश को पलटना चाहता है, वह पलटा नहीं जाता। ऐसे लगता है
प्रयोगवादी युवा कही संतुष्ठ नहीं है। बात यह
है कि कवि तादाद से जादा कुछ पाना चाहता है। प्राप्त न होने पर निराशा में डूब जाता
है। इसलिए कवि कई बार निराश दर्द की फरमाईश करता है।
इस तरह के भाव के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है।
"जीवन
देना
ऐसा दुःख जो
सहान जाय
इतना दर्द
कि कहा न जाय" ---- अज्ञेय
प्रयोगवादी
कवि की कविता में अतिशय बौद्धिकता है। भावना के साथ कवि
विचार को भी प्रस्तुत करता है। उनकी कविता इस दृष्टि
से एक विशेष बौद्धिक स्थर के व्यक्तियों के लिए है। इन कवियों की वाणी में बौद्धिकता
के बोझ से भावना दब गई है। स्वयं प्रयोगवादी कवियों ने इस तथ्य को स्वीकार
किया है। इस सम्बन्ध में डॉ. धर्मवीर भारती के विचार ध्यान देनेयोग्य है। 'प्रयोगवादी कविता में भावना है, किन्तु हर भावना के सामने एक प्रश्नचिन्ह
लगा हुआ है। इसी प्रश्नचिन्ह को आप बौद्धिकता कह सकते हैं।
5) संत्रास,
कण्ठाऔर घुटन
आलोच्य कवियों
की आशा-आकांक्षाएं आकाश को चूमती है। पर उनके पैर जमीन के नीचे गडे होते हैं। वह न
जाने कहाँ-कहाँ तक जाना चाहता है। और क्या-क्या पाना चाहता है। वह न वहाँ जा पता है
और न वह आ पता है। इसलिए एक दुःख एकघुटन
उसके भीतर रहता है। समाज में अपने स्थान को न पाने के कारण वह त्रास के दंश से विकलित
रहता है। यह भी माना जाता है कि फ्रायड के दमित वासना के सिद्धान्त के अनुसार सेक्स की दृष्टि से पराजित कवि अपने अचेतन
मन से दु:खी है, वही कुण्ठा है। इसीलिए वर्णन अंधकार का
करना चाहता है पर उसकी दमित वासना यानी कुण्ठा उसमे झलक आती है। जैसे-
"सो रहा
है झोप अधियाला
नदी की जाँघ
पर
डाह से सिहरी
हुई यह चादनी
चार पैरों
से उलझकर
झाँक जाती है।
--------------अज्ञेय
6) क्षणवाद
में विद्यास
प्रयोगवादी
कवि क्षणवाद में बहुत विश्वास रखता है। उसकी मान्यता है कि जो क्षण हम भोग रहे हैं
वही अपना है। जो क्षण हम भोग
रहे हैं उसी की मूल्य है । वैसे इस तरह की प्रवृत्ति आतित्ववाद की देन है, जिसका थोड़ा
बहुत प्रभाव प्रयोगवादी
के अधिकांश कवियों की कविता में देखने को मिलता है। अज्ञेय ने क्षण के महत्व पर प्रकाश
डालते हुए अपने विचार निम्नलिखित पंक्तियों में व्यक्त किया है-
"एक क्षण-क्षण
में प्रवाहमान
व्यप्त सम्पूर्णता!
इससे कदापि
बड़ा नहीं था महाबुद्धि जो
पिया था अगस्त्य
ने।"
गिरिजाकुमार
माथुर ने जो क्षण भोग का बितायाथा वे उसकी अभिव्यक्ति इन शब्दों में करते हैं -
"प्रथम
मिलन के उस ठंडे कमरे में
छत के वातायन
से नींद मंदी सी एक किरण भी
थक कर लौट-लौट
जाती थी।" ------ गिरिजाकुमार माथर
7) रूढ़ि का
विरोध और नवीनता का मोह
प्रयोगवादी
कवि सत्य के अन्वेषी है। उनका परम्परा में विश्वास नहीं है। जो बात रूढ़ि से प्रसिद्ध
है उसका विरोध उन्हें करना है। इससे बड़ी बात और क्या होगी कि वे अपने
बनाने वाले को भी नहीं मानते हैं। ईश्वर उनके लिए मर चूका है। क्योकि नीत्से उसे दफन चूका है। भारतीय औदार्य को इनके यहाँ स्थान नहीं है।
डॉ. जगदिशकुमार के शब्दों में 'नये कवि को अपने देश
के इतिहास में कही ऐसा कुछ नजर नहीं आता जिस पर वह गर्व कर सके।" नवीनता के इस
मोह कवियों ने कहने के ढंग में भी नवीनता लाने का प्रयत्नपूर्वक
प्रयोग किया है। अज्ञेय ने अपनी प्रेयसी की संदरता के लिए प्राचीन शब्दावली का बहिष्कार किया है। उसके लिए नई उपमाएँ दी है, नये उपमान चुने हैं।
उनकी 'कलगी बाजरे की' कविता इस दृष्टि से
ध्यान देने योग्य है।
"अगर
मैं तमको
लजाती सॉझ
के नभ की अकेली तरीका
अब नही कहता
या शरद की
भोर की नीहार नहाई कुई,
टटकी कली चम्पे
की। ----अजेय
8) श्रृंगार और प्रेम की सहज अभिव्यक्ति
प्रयोगवादी कवियों
में सेक्स और यौवन सम्बन्ध की अति यथार्थवादी अभिव्यक्ति मिलती है। और उसकी आलोचना
भी हुई है। पर इसके साथ ही इस तथ्य को आँखों से ओशाल नहीं
किया जा सकन था कि प्रेम और श्रृंगार की सहज अभिव्यक्ति
अनेक कविताओं में बड़ी सफलता के साथ की गई है। दरअसल आज का कवि किसी दमयंती और इंदुमती
या पद्मावती के श्रृंगार और प्रेम को प्रमुखता नहीं देवा
। गिरिजाकुमार माथुर का 'चूड़ी का टुकड़ा' श्रृंगार और प्रेम की सहज अभिव्यक्ति का अच्छा उदाहरण है। इतना ही नहीं अन्यत्र भी कवि ने श्रृंगार की
सहज अभिव्यक्ति की है।
"बड़ा
काजल ऑज है आज
भरी आँखों
में हल्की लाज
तुम्हारे ही
महलों में प्राण
जला क्या दीपक
सारी रात।“
प्रेम की अनुभूति
के अनेक उदहारण प्रयोगवादी कविता में मिलते है। कवि घुमा-फिराकर अपने भाव न कहकर सहज
रूप में वास्तविकता व्यक्त करता है। तभी तो धर्मवीर भारती
स्पष्ट कहते हैं।
"इन फिरोजी
होठों पर बर्बाद मेरी जिंदगी"
या
"नगरवधु की शुभ दन्त-पंक्तियों के नीले-नील
चिन्ह उभर आये हैं।
एक स्थान पर
इस तरह की अभिव्यक्ति करते हुए कवि कहता है।
"मैंने
कसकर तुम्हें पकड़ लिया है।
और जकड़ती
जा रही हूँ मैं
और निकट और
निकट ।" -H- धर्मवीर भारती
9) नगरों का
परिवेश
प्रयोगवादी कवियों
ने अपनी कविता में नगरों के परिवेश को अधिक मात्रा में लिया है। यों कछ कवी ऐसे
जरूर है जो इन महानगरों के प्रपंच से बाहर निकले है पर अधिक मात्रा
नगरों की बातों को नगर की समस्याओं को और नगरों की विसंगति को लेकर लिखी
गई कविताओं की हैं। बड़ी-बड़ी मिलों की धुंआ उगलती चिमनियां भीड़ भाड़ वाली सड़के,
काफी हाऊस, पार्क,सिनेमा घर, ऊँची इमारतों आदि से सम्बन्ध रखनेवाली
कविताएँ बहत देखने में आती है।
घर है मुहल्ले
में
मुहल्ला नगर
में
नगर है प्रदेश
में
- देश कई पृथ्वी
पर
अनगिनत नक्षत्रों
मेंदेश
पृथ्वी एक
छोटी----गिरिजाकुमार माथुर
10) नये ढंग
का प्रकृति वर्णन
प्रयोगवादी
कवितयों ने अपनी कविता में नगरों के जीवन को अधिक मात्रा में चित्रित किया है। प्रकृति
कवैभव गाँव में होता है। इसलिए इस कविता में ग्रामीण प्राकृतिक वैभव
का निरीक्षण वे ही कवि कर पाये हैं जिनका सम्बन्ध गाँव से रहा है। इस दृष्टि से गिरिजाकुमार माथर की कविताएँ ऐसी मिलती है। जहाँ प्रकृति का नैसर्गिक
स्वरूप भी उभरा है। 'वसंत की रात 'शाम की
धुप', 'सूरज का पहिया, 'सावन की रात, मारी और मेघ', 'बरफ का चिराग'' रात मेहनत की'
आदि उनकी कविताएँ प्रकृति वर्णन से युक्त है। 'ठाव बानी'
कविता में कवि एक परिवेश को उभारता है। उसे देखिए-
"लाल
पत्थर लाल मिट्टी
लाल कंकड़
लाल बजरी
लाल फुले ढाक
के वन
डांग गाती फ़ाग
कजरी l
इसी प्रकार
प्रकृति वर्णन अज्ञेय की कविता में भी मिलता है।
11) गध्यात्मकता
नयी कविता
जहाँ अनेक अन्य साधनों में प्राचीन कविता से भिन्न है, वह गठन की दृष्टि से भी वह भिन्न
दिखाई देती है। कविता के लिए प्रायः छन्दोब्धता का त्याग कर दिया
गया है। वैसे तो मुक्त छंद का प्रयोग निराला के समय से ही आरम्भ हो गया था पर वहाँ कवियों ने लय को नहीं नाकारा
था । प्रयोगवादी कवियों के लिए लय भी कोई मतलब का नहीं रहा। कविता एक तरह
से गद्य बन गई। एक उदाहरण देखिए :-
"व्यास
आज का : केवल क्यूरेटर
गणेश : पटवारी
कृष्ण और कृष्णम्माचारि
कुछ समझ में
नहीं आता
ओव्यास
ओ अर्जुन
ओ कुरुक्षेत्र
कहाँ हूँ मैं?
कहाँ हूँ मै?
कहाँ हूँ मै
?
कहाँ हूँ मै?
--- लक्ष्मीकांत वर्मा
इस कविता के
गद्य गण की और नए कविता के समर्थकों का ध्यान भी गया है। पर क्योंकि यह एक ऐसे साँचे मेंढली गयी कविता है कि उस में गध्यात्मकता
को रोका भी कैसे जा सकता है। डॉ. राकेश गुप्त ने इन कविता में प्रसाद गुण की अनिवार्यता की ओर संकेत किया है। इसी के सन्दर्भ में लिखी गयी पंक्तियों में
कितना प्रसादत्व और आकर्षण है-
"और उधर
की चौखडिया नाली के पास,
राम धोबी के
लडके की बिटिया नहा रही है। ---वसंत देव
12) व्यंग्य
इस कविता में
व्यंग्य का स्वर अच्छी प्रकार मुखरित हुआ है। कवि काव्य को सीधे न कहकर कुछ ऐसे
प्रकार से व्यक्त करता है कि वह पाठक के हृदय में चुभती है। उसमें
सहजता नहीं एक तल्खी है। सामान्य बात को भी कभी चाहे उसे घुमा फिराकर कहने
में कितना ही व्यायम करना पड़े पर वह असामान्य बनाकर कहता है। कहीं-कही यह व्यंग निरर्थक लगते हैं और कहीं इनमें
समानता भी लगती है। इस दृष्टि से भवानी प्रसाद मिश्र की 'गीत फरोश' कविता ध्यान देने
योग्य है। कवि ने स्वयं कवि कर्म की व्यावसायिकता पर बड़ा चुभनेवाला व्यंग्य किया है।
"जी हा
हुजूर मै गीत बेचता हूँ
मैं तरह-तरह
के गीत बेचता हूँ
मैं किसम-किसम
के गीत बेचता हूँ
जी माल देखिये
दाम बताऊंगा।
बेकाम नहीं
है, काम बताऊंगा।
यह गीत सख्त
सरदर्द भुलायेगा
यह गीत पिया
को पास बुलाएगा।'
कवि यह मानता
है कि संसार के सभी व्यक्ति समाजका प्रत्येक वर्ग अपने आप में अपूर्ण है। प्रत्येक
व्यक्ति किसी न किसी प्रकार के न फरेब धोका
दिखाव और बनावट के जमाने में बद है। इस जमाने में कोई व्यक्ति ऐसा नही हजो निष्कलुष
हो जिसकी जिदगी दूध की धुली हई हो।
'ना निरापद
कोई नही है
ठीक आदम कद कोई नही है।
न तुम न मै न वे
नवे न मैन तुम
कोई है! कोई
है! कोई है!
जिसकी जिंदगी
दूध की धोई है? -- भवानी प्रसाद मिश्र
व्यंग्य की
दृष्टि से अज्ञेय, गिरिजाकुमार माथुर, धर्मवीर भारती आदि की कविता भी ध्यान देने योग्य
है । भी इसी प्रकार तल्खी के स्वर का उदाहरण निम्नलिखित पंक्तियों में देखिए -
"सूरज
उगते ही
मनहूस लोग
भजन गाने लगते हैं।
और हम अपनी
बेकरी की सोचने लगते हैं। ---जगदीश चतुर्वेदी
या
"चाय
का होटल कवि नहीं बनाता
वर्ना गली-गली
फिरते ग़ालिब।"
13) दुरूहता
प्रयोगवादी
कविता में दरुहता मिलती है। इस दुरूहता का कारण एक तो कवि मानस
की जटिलताएं हैं। कवि अपने भीतर मथ चूका होता
है कि वह क्या कहे और क्यान कहे जीवन का परिवेश अनस्तित्व और उलझन उसकी अनुभूति को
जटिल बना देता है। यह उलझाव की अभिव्यक्ति करता है। प्रयोगवादी
कवियों में मुक्तिबोध ऐसे है जिन्हें अपनी कविता की दुरूहता का
अहसास है। वे एक स्थल पर इसे
स्वीकार करते हुए कहते है अपने काव्य की अस्पष्टता पर मेरी दृष्टि गयी है।
"हाय
(नहीं चैन)
जागते ही कट
गई रैन
(प्रेम यानी
इश्क यानीलव)
14) भाषा प्रयोग
भाषा की विशिष्ठता
नयी कविता में मिलती है। कवि शब्दों के अर्थ की गहराई को पहचानना चाहता है यह
शब्दों के संस्कार के प्रति सजग है। एक क्रिया शब्द 'बिताना है एक
गुजारना है। दोनों के अर्थ में स्थूल खास भेद नहीं है पर दोनों के। संस्कार अलग हैं।" जैसे चैत का नशीला दिन मैंने बिताया नहीं है, केवल
गुजार दिया। इसी प्रकार भाषा में अंग्रेजी, उर्दू ऐसे बहुत सारे
शब्दों का प्रयोग अपनी कविता में करता है। जैसे
"किसने
कहा कि वह चटकीले साइनबोर्ड
यहाँ हर माल
सस्ता बिकता है
गले में लटकाकर
निस्तेज चुहल से भरी
झड्किले रेश्स्त्रा काफी हाऊस
सिनेमा, क्लब,
थियेटर, फैशन की दुकानों पर धूमे।" ---सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
15) छंद प्रयोग
छंद के परित्याग
का पूरा आग्रह प्रयोगवादी कविता में मिलता है। यो तो मुक्त-छंद में कविता करने का आरम्भ
'निराला' ने बड़ी शक्ति-सामर्थ्य से कर दिया था पर प्रयोगवादी
कवि अधिक काट छाट में लगता है। प्रयोगवादी कवि छंद को स्पष्ट नकारता है।
छंद पयोग की दृष्टि से लय का महत्व स्वीकारा गया है। नया कवि कही शब्द की लय पर बल
देता है । कहीं अर्थ की लय पर। कुछ कवियों ने लोकगीत की लय का भी
प्रयोग किया है। जैसे
"यह डूबी
डूबी उदासी का आलम
मै बहुत अनमनी
चले नहीं जाना बालम।"
16) अलंकार
प्रयोग
अलंकार की
प्रवृत्ति से कोई काव्य अलग नहीं है। नई कविता में भी अलंकारों का प्रयोग मिलता है,
उपमा, विशेषता लप्तोपमा का प्रयोग बहुत अधिक देखने में आता है। रूपक, उत्प्रेक्षा
आदि अलंकार भी खूब खुलकर प्रयोग में आये हैं। कवि ने दो अलंकारों के
प्रयोग में नवीनता अधिक दिखलाई है, मानवीकरण और विशेषण-विपर्यय कवि कवि कही जड़ प्रकृति
का कहीं भवों का मानवीकरण करता है। शब्दों के अप्रचलित विशेषण
देकर या विशेषण का विशेष्य के बाद प्रयोग करने में कविता। को नया रूप
देता है ।मानवीकरण का एक उदाहरण इस प्रकार है।
"आसमान
बाबा ने हनुमान चालीसा
डूबी हुई बानी
में गाना शुरू किया।" ---मुक्तिबोध
अलंकारो के प्रयोग में सबसे अधिक उल्लेखनीय तथ्य नये-नये
उपमानों का प्रयोग है। अजेय की दृष्टि में पुराने उपमान
मैले हो गए है।
17) बिम्ब का प्रयोग
बिम्ब का प्रयोग नई
कविता में अपेक्षाकृत अधिक उत्तमता के साथ देखने में आता है। कवियों की विचार-चयन
की परिधि विविधतामयी और व्यापक
है। जीवन और जगत के अनेक आयामों को मूर्तिमंत बनाने के लिए कवियों ने तरह-तरह के बिम्बों का विधान किया है। 'अंधा-युग' में धर्मवीर भारती ने महाभारत के युद्ध
की विभीषिका के अंत का बिम्ब इन शब्दों में
उभारा है-
"यह महायुद्ध
के अंतिम दिन की संध्या
है छाई चारों ओर उदासी गहरी
कौरवों के महलों का सूना
गलियारा
है घूम रहे केवल दो बूढ़े
प्रहरी
18) प्रतीक विधान
प्रतीक का माध्यम अपनाकर प्रयोगवादी कवियों ने
कथ्य का वैशिष्ट्य दिखाया है धर्मवीर भारती ने तो पूरी रचना ही प्रतीक रूप में
उपस्थित की है l महाभारत के युद्ध को विभीषिका को प्रतीक
बनाकर आधुनिक महासमरो की भयंकरता को बतलाया है l उनकी दृष्टि में अज्ञान की ऐसी स्थिति सदैव रहा करती है, जैसी महाभारत
के समय थी l जैसे –
“उस दिन अंधायुग अवतरित हुआ जग पर बिताता नहीं वह
रह रह कर दोहराता है l” अंधायुग
19) लक्षणा शक्ति
लक्षणा शक्ति का प्रयोग भी आज की कविता के शिल्प
की एक विशेषता है l लक्षणा
का प्रयोग नयी कविता का कोई निजी वैशिष्ट्य नहीं है l क्योकि लाक्षणिक प्रयोग प्राचीन काल से ही
साहित्य में होते रहे हैं l भाषा की वक्रता और
शक्तिमत्ता के लिए लक्षणा शक्ति बहुत सहायक सिद्ध होती है l जैसे –
‘’निकल गई सपने जैसी वह मीठी बातें
वंशी में अब नींद भरी है l” - गिरिजाकुमार माथुर
इस प्रकार प्रयोगवादी कविता प्रवृत्तियाँ रेखांकित की जा सकती है l
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