वीरगाथा /रासो काव्य की विशेषताएं एवं प्रमुख कवि का परिचय

वीरगाथा साहित्य / रासो साहित्य
आदिकल मे एक ओर धार्मिक आंदोलन की क्रीडा में जैन, सिद्ध, नाथ साहित्य की निर्मिती हुई। दुसरी ओर राजाश्रय मी वीरगाथात्मक साहित्य का निर्माण हुआ। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसी वीर प्रवृत्ति को आदिकल की प्रमुख प्रवृत्ति के रूप में स्वीकार किया है और जैन,सिद्ध, नाथ साहित्य को सांप्रदायिक शिक्षा मात्र घोषित कर दिया है और उसे शुद्ध साहित्यिक कोटी में न रखकर बहिष्कृत कर दिया हैं।क्यों कि उनके अनुसार जो भी वीरगाथात्मक रचनायें प्राप्त है वे असंदिग्ध है। 
 वीरगाथाओं के संदर्भ में यह भी ध्यान रहे कि यह रचनायें भी आश्रयदाताओं की प्रशस्ती के रूप में लिखी गई है। इसलिए इन रचनाओं में अतिरंजित कल्पना का आना स्वाभाविक है।
रास अथवा रासो ग्रंथों की एक बड़ी श्रृंखला देखने में आती है।ये काव्य कई प्रकार के मिलते हैं। डॉ. माता प्रसाद गुप्त ने गीत नृत्य परक रचनाओं को रास कहा है और उनकी संख्या 100 से भी अधिक बताई है। उपदेश रसायन रास, भरतेश्वर बाहुबली रास आदि ऐसी ही रचनाएं हैं। दूसरी तरह की छंद वैविध्य परक रचनाओं को उन्होंने रासो कहा है और उन्हें शुद्ध साहित्यिक माना है। जैसे संदेश रासक, हम्मीर रासो आदि ऐसी ही रचनाएं है। यहां पर इतिहास क्रम से रासो काव्य की परंपरा पर दृष्टि रखकर इस परंपरा के कुछ प्रमुख रासो काव्य का परिचय दिया जाता है। सुविधा के लिए इन्हें दो वर्गों में विभाजित करना समीचीन है।
1) गीत नृत्य पर रास काव्य परंपरा
2) छंद वैविध्य परक रासो काव्य परंपरा
1) गीत नृत्य परक काव्य परंपरा
1) मुंजरास
 रासो काव्य की परंपरा में सबसे प्राचीन 'मुंजरास' की संभावना की जाती है 12 वीं शताब्दी में हेमचंद्र ने 'सिद्धम है' नामक प्राकृत व्याकरण में मुंजे से संबंध रखने वाले दो दोहे मुद्रित किए हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि सवंत 1197 में 'सिद्धम है' के रचना काल के पूर्व ही मुंज दास के चरित्र को लेकर अपभ्रंश में लिखा गया कोई काव्य था।मुंजरास के रचियेता का नाम अज्ञात है।
2) उपदेश रसायन रास 
रासो काव्य परंपरा में जो ग्रंथ उपलब्ध है उनमें सबसे प्राचीन उपदेश रसायन रास है। इसके रचयिता जीनंदत्त सूरि है। यह प्रकाशित रचना है। रचनाकार की रचना की तिथि इसमें नहीं है पर जिंदत्त सूरि की एक रचना 'काल स्वरूप कुलक' की रचना की थी विक्रम संवत 1200 अर्थात विक्रम 1203 है। अतः उपदेश रसायन का रचना काल 12 सौ के लगभग ही होगा ऐसा माना जाता है। 
3) भरतेश्वर बाहुबली रास
 इसके रचयिता का नाम शालिभद्र सूरी है। यह सवंत 1241 की रचना है और प्रकाशित है। इसमें भगवान ऋषभदेव के दो पुत्रों भरतेश्वर और बाहूबली में राज्य के लिए जो संघर्ष हुआ था उसका वर्णन है। स्पष्ट है कि यह रचना वीर रस की है।
4) रेवंत गिरी रास
 इसके रचयिता विजय सेन सूरि है। इसका रचनाकाल सवंत 1228 माना गया है। इस में गिरिनार के जैन मंदिरों के पुनरुद्धार की कथा है। यह रचना चार कड़वको में विभक्त है। इसमें 80 छंद है। यह गीत नृत्य पर रास प्रतीत होता है।
5) आबू रास
 इस रास की रचना पल्हाण कवि ने सवंत 1289 में की थी। इसमें 55 छंद है । यह एक धार्मिक रास काव्य है। इसमें वस्तुपाल तेजपाल द्वारा आबू पर्वत पर मंदिर निर्माण करने का निर्णय किया गया है। यह सरल भाषा में लिखी गई रचना है गए ।
6)सुकुमाल रास 
यह 34 छंदों की एक छोटी सी रचना है। इसके रचयिता देल्हण कवि माने गए हैं। किसी विद्वान ने देवेंद्र सूरी को इसका रचयिता माना है।
7) कछुली रास 
इस रास के रचयिता का नाम प्रज्ञा तिलक है। इसमें 35 छंद है इसमें जैन लोगों के 1 तीर्थ कछुली ग्राम का वर्णन है ।
8) समरा रास 
समरा रास के रचयिता अंबा देव सूरी है। यह 110 छंदों की एक रचना है।  
9) बिसलदेव रास 
का रचयिता नरपति नाल्हा है। यह हिंदी की एक प्रसिद्ध प्राचीन रचना है। इसके रचनाकाल के विषय में कई मत देखने में आते हैं। डॉक्टर श्यामसुंदर दास ने उसको सवंत 1220 की रचना माना है। आचार्य शुक्ल सवंत 1212 और गौरीशंकर हीराचंद ओझा सवंत 1272 की रचना मानते हैं ।
2)छन्द वैविध्य परक रासो परंपरा 
10) संदेश रासक
 छन्द वैविध्य परक रासो परंपरा रासो ग्रंथों की परंपरा में संदेशरासक सबसे प्राचीन है। इसके रचयिता अब्दुल रहमान है। इस ग्रंथ की रचना की तिथि का ठीक ठीक पता नहीं है। मुनि जनविजय  इसका समय मुहम्मद गोरी के आक्रमण से पूर्व का मानते हैं। और उसका स्थान मुल्तान मानते हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी उसे 11 वीं शताब्दी का मानते हैं और अगर चंद नाहटा को चौदहसौ के आसपास की रचना मानते हैं ।
11) हम्मीर रासो 
हम्मीर रासो के नाम से इस परंपरा में कई रचनाओं का उल्लेख किया जाता है । इनमें तीन हम्मीर रासो प्रसिद्ध ग्रंथ है। पहला हम्मीर रासो वह ग्रंथ है जिसके आठ छंद प्राकृत पैंगलम नामक ग्रंथ में आए हैं। यह छन्द हम्मीर की प्रशंसा में रचे गए हैं । अतः विद्वानों ने इस हम्मीर रासो का रचना काल हम्मीर के समय को ही माना है। हम्मीर का समय सवंत 1295 से 1398 तक माना जाता है ।
12) पृथ्वीराज रासो
 रासो काव्य परंपरा का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ पृथ्वीराज रासो है इसके रचयिता का नाम चंद्रवरदाई है। यह बहुत बड़ा ग्रंथ है। हिंदी का आरंभिक काल का सर्वाधिक गौरवशाली ग्रंथ है साथ ही यह ग्रंथ हिंदी की सबसे अधिक विवादास्पद रचना है। ग्रंथ के अध्ययन से पता चलता है कि चंदबरदाई पृथ्वीराज चौहान का सखा घनिष्ठ और सहायक था उसका जन्म पृथ्वीराज के साथ ही हुआ था और वह मृत्यु को भी उसके साथ ही प्राप्त हुआ था परमाल रासो पृथ्वीराज रासो ग्रंथ में महोबा समय के नाम से जो भाग जुड़ा हुआ है उसका नाम परमाल रासो दिया गया है। इस ग्रंथ के संपादक डॉ. श्यामसुंदर दास है। उन्होंने सन 1976 में पृथ्वीराज रासो से अलग स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में इस नाम से नागरी प्रचारिणी सभा काशी से इसे प्रकाशित कराया है ।
13) कायम रासो 
यह एक मुस्लिम कवि न्यामत खा जान कवि की रचना है। उन्होंने इस ग्रंथ की रचना के संबंध में लिखा है ।इस रचना में सावंत 1710 की भी घटनाएं है। जिससे मोतीलाल मेनारिया ने इस रचना का काल 1711 माना है। 
14) विजयपाल रासो 
विजयपाल रासो नामक रचना अपूर्ण है इसके केवल 42 चंद्र प्राप्त हुए हैं ।इसके रचयिता का नाम अल्लाह सिंह भाट है। खुमान रासो इस ग्रंथ के रचयिता दलपति विजय है। इन का दूसरा नाम दौलत विजय भी कहा गया है। खोज करने पर यह सत्य प्रकाश में आया कि दलपति विजय एक जैन कवि थे।
15) कलीयुग रासो
 रासो काव्य की परंपरा में कलियुग रासो अंतिम प्रसिद्ध रचना है। इसके रचयिता का नाम रसिक गोविंद है । इस रासो काव्य की रचना उन्होंने 1865 में की थी यह एक छोटी सी रचना है। जिसमें केवल कवित्त छंद है।
वीरगाथा साहित्य की विशेषताएं
 हिंदी साहित्य का आदिकल समस्त आलोचनायें पचाते हुए अपनी कुछ निजी विशेषताएं रखता है। प्राचीन समय की सामग्री समूचे रूप में प्राप्त न होने के कारण साहित्य के इतिहास की रूपरेखा का सर्वमान्य आलेखन दुस्तर रहा है। पर आदिकाल के अस्तित्व की छाप से कोई साहित्य का व्यक्ति कैसे मुक्त रख सकता है। सामान्यतः इस समय की प्रवृतियां इस प्रकार है। 
1) संदिग्ध रचनाएं/ रचनाओं की अप्रामाणिकता 
आदिकाल के नाम से जिन रचनाओं का नाम लिया जाता है उनकी प्रामाणिकता विवादास्पद है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 4 साहित्यिक पुस्तकों का उल्लेख किया है। उनके द्वारा इस काल के अंतर्गत गिनाई गई अन्य  पुस्तकें देश भाषा काव्य की है। इनके अतिरिक्त मिश्र बंधुओं ने जिन अन्य पुस्तकों का निर्देशन किया है, उनमें से अधिकांश पुस्तकों को शुक्ल जी ने जैन धर्म के तत्व संबंधी, योग संबंधी या नोटिस मात्र कह कर संदेह प्रकट किया है। जो 4 साहित्यिक पुस्तकें शुक्ल जी द्वारा मान्य है उनके नाम यह है। विजयपाल, रासो हम्मीर रासो, कीर्ति लता और कीर्तिपताका देशराज भाषा काव्य की 8 पुस्तके वे इन्हें बताते हैं। खुमान रासो, बीसलदेव, रासो पृथ्वीराज रासो, जय चंद्र प्रकाश, जय मयंक जस चंद्रिका, परमाल रासो, खुसरो की पहेलियां और विद्यापति की पदावली इन सभी पुस्तकों की प्रामाणिकता के विषय में संदेह है। 
2) युद्धों का सजीव वर्णन 
वीरगाथा काल के नाम से अभिहित इस काल की रचनाओं का मुख्य विषय वीर रस से संबंधित रहा है। वीर रस की अभिव्यक्ति के लिए एक राजा का दूसरे राजा के प्रति क्रोधित होना और तत्पश्चात युद्ध के लिए तत्पर होना प्रायः सर्वत्र देखा जाता है। युद्ध के अनेक प्रसंग इन रचनाओं में भरे पड़े हैं । इस समय के लोगों का आदर्श ही यह था कि लड़कर मारे जाएं। इसी से यह कथन प्रसिद्ध है 
"बारह बरस लै कूकर जीये और तेराह ललै जीये सियार।
 बरस अठाहरा क्षत्री जीये आगे जीवन को धिक्कार।"
 उधर लोगों का स्वभाव भी अकारण युद्ध मोल लेने का हो गया था। विवाह आदि तो प्रायः युद्ध के बल पर ही हुआ करते थे। इसी से यह कथन प्रसिद्ध है कि 'जेहि की बिटिया सुंदर देखी तेहि पर जाए धरे हथियार'। अतः युद्धों की प्रधानता के कारण काव्य की सृष्टि करने वाले कवियों के लिए वह उनके जाने माने अनुभव थे।  उन्होंने युद्ध देखे थे। कुछ कवि तो ऐसे भी थे जो स्वयं भी युद्ध में भाग लेते थे। शस्त्र और शास्त्र का साक्षात प्रयोग करते थे। यही कारण है कि इस समय के काव्य में युद्ध का सजीव वर्णन हुआ है।
3) वीर रस की अभिव्यक्ति 
आदिकाल की एक प्रवृत्ति वीर रस की अभिव्यक्ति की है। युद्ध प्रिय जनता के भाव इस काल के कवियों ने इस प्रकार की वाणी में वर्णित किए हैं जिसमें अपूर्व उत्साह देखने को मिलता है। उत्साह भरी बातें वीर रस की द्योतक है। उत्साह वीर रस का स्थाई भाव है। चंद्रवरदाई ने पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज चौहान और उसके अनेक सरदार, सामंतों के उत्साह को देखने को मिलता है। वे सब प्रसंग वीर रस के हैं। संयोगिता को पृथ्वीराज चौहान ले आने में समर्थ हो जाता है। उस समय भयानक युद्ध होता है । पृथ्वीराज के सरदार उसे यह सलाह देते हैं कि वह संयोगिता को लेकर दिल्ली चला जाए इतने में हम शत्रुओं से लड़ कर उन्हे रोके रहेंगे। अतिशय दर्द भरा पृथ्वीराज चौहान अपने उत्साह को व्यक्त करते हुए निडर वाणी में सरदारों को फटकारता है। उनके शब्द वीर रस की अभिव्यक्ति से पूर्ण है।
 "मति घट्टी सामंत मरण हउ मोहि दिखावहु।
 जम चिट्ठी बिणु कदन होइ जवु तुम उ बतावहु।"
(हे सामंतो तुम्हारी मति घट गई है जो मुझे मरने का हउवा दिखला रहे हो। तुम ही बताओ कि यम की चिट्ठी के बिना क्या किसी का विनाश हो सकता है।) पृथ्वीराज रासो के अतिरिक्त परमाल रासो में तो वीर रस सबसे अधिक है।
4) श्रंगार रस की अभिव्यक्ति 
आदिकाल के काव्य में श्रंगार रस की अभिव्यक्ति भी ध्यान देने योग्य है। इस काल के वीरों का युद्ध अनेक बार तो सुंदर स्त्री के लिए ही होता था। उस स्त्री के श्रंगार का वर्णन करने में आदिकाल का कवि सक्षम है। इस काल में श्रृंगार के संयोग और वियोग के अनेक मनोरथ प्रसंग आदिकाल में मिलते हैं। संयोगिता के दिल्ली में आ जाने पर और पृथ्वीराज के साथ किए गए केली विलास के समय चंदवरदाई ने संयोगिता के नखशिख का जमकर वर्णन किया है। कवि ने शृंगार के आलंबन के रूप में कन्नौज की दासियों के प्रति बड़ी रुचि दिखलाई है। उनकी सुंदरता हाव् भाव, नखशिख आदि का बड़ा विस्तृत और मनोहारी वर्णन किया है। यह वर्णन कई स्थलों पर बड़ा मांसल भी बन गया है। राजा देखता है सोने के रंग वाली, चंचल नेत्र वाली दासियाँ सोने के कलश हिलाकर गंगा जी में जल भर रही है। कवि ने उनकी उंगलियां, पिंडलियां, जांघ, कटी, वक्ष, हार, कपोल, अधर, भौहे, आँखे, नाक, दांत, ललाट का शृंगार मई भाषा में अलंकृत वर्णन किया है। चंद पृथ्वीराज चौहान को बताता है कि यह सब पनिहारी ने हैं । नगर की स्त्रियों की शोभा का तो कहना ही क्या । उसके बाद कवि जमकर नगर की स्त्रियों के श्रंगार का वर्णन करता है।
5) अतिश्योक्ति पूर्ण वर्णन की प्रवृत्ति
 काव्य में कल्पना और अतिश्योक्ति का समावेश सभी जगह देखने में आता है पर आदिकाल के साहित्य में उसका प्रयोग बहुत अधिक देखने में आता है। चारण कवियों ने अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में बहुत बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया है। उदाहरण के लिए कवि वर्णन करता है कि जिस दिन पृथ्वीराज चौहान का जन्म हुआ उस दिन कन्नौज में खटका हो गया। जिस दिन पृथ्वीराज का जन्म हुआ उस दिन गजनी शहर भग्न हो गया।
6) जनजीवन की उपेक्षा 
आदिकालीन साहित्य में जन साधारण को अनुभूति का विषय नहीं बनाया गया है। बौद्ध सिद्धों और नाथों ने जिस उपदेश प्रधान और खंडन-मंडन भरी वाणी का उपयोग किया उसमें समाज की ओर ध्यान देने का अवकाश नहीं था। जैन मुनियों  ने जिस तरह काव्य की रचना की उंसमें भी राजा महान सामंतो के चरित्रों का दर्शन किया गया है। उसमें भी जनजीवन के लिए कोई स्थान नहीं था। चारण कवियों की विस्तार भरी अभिव्यक्ति में भी मूलतः राजा, सामंत, योद्धा और युद्ध ही वर्ण्य विषय रहे हैं। समाज की प्रायः उपेक्षा हुई है ।
7) संकुचित राष्ट्रीयता/ राष्ट्रीयता का राज्य तक पर्यवसान
 आदि काल के कवियों ने समूचे राष्ट्र पर दृष्टि नहीं रखी। उनकी राष्ट्रीयता की परिधि बड़ी सिमित रही है। जो जिस राजा के यहां रहता था उस कवि ने उसी राजा के राज्य को राष्ट्र माना। एक तरह से उस समय के कवि की दृष्टि में राज्य ही राष्ट्र था पूरा देश नहीं । चंदबरदाई ने पृथ्वीराज चौहान के राज्य को ही अपना राष्ट्र माना। जयचंद के दरबार में भट्ट केदार और मधुकर कवि थे । वे कन्नौज के राज्य को ही अपना राष्ट्र मानते थे। यही कारण था कि आदि काल का कवि अपने आश्रय दाताओं को युद्ध के लिए प्रेरित करता रहा, परंतु एकता की परिधि का विस्तार नहीं कर सका। इतिहासकारों ने राजपूतों की वीरता की प्रशंसा करते समय यही कहा है कि वह मरना जानते थे लड़कर मरना पसंद करते थे। लेकिन राष्ट्रीयता की जिस व्यापकता और प्रौढ़ता की आवश्यकता होती है, उसमें कवि की जो भूमिका हो सकती है, वह उनमें नहीं थी। 
8) रास या रासो ग्रंथों की प्रचुरता
 आदिकाल में ऐसे अनेक ग्रंथ लिखे गए जो रास, रासो ग्रंथ कहे जाते हैं। जो उस समय के बाद सिद्धों और नाथों की वाणी भी अपना महत्व रखती है, परंतु अधिकांश रचनाएं रास, रासो नामक देखने में आती है। मंजु रास, उपदेश रसायन रास, भरतेश्वर बाहुबली रास, जीव दया रास, चंदनबाला रास, आदि रास रचनाएं देखने में आती है। उसी तरह पृथ्वीराज रासो, बिसलदेव रासो, खुमान रासो, परमाल रासो आदि ग्रंथों से भी प्रौढ़ता का परिचय मिलता है।
9) भाषा प्रयोग
 आदिकालीन साहित्य में भाषा के कई प्रयोग देखने में मिलते हैं। इस काल में अपभ्रंश के प्रयोग की न्यूनता और पुरानी हिंदी के प्रयोग का प्रचार बढ़ रहा था, परंतु अपभ्रंश का एकदम आभाव भी नहीं था । बौद्ध सिद्ध और नाथ सिद्धों की वाणी अपभ्रंश और अपभ्रंश बहुल हिंदी के रूप में दिखलाई देती है। यह भाषा की प्रवृत्ति पृथ्वीराज रासो तक में देखने में आती है। दूसरी ओर जैन मुनियों ने जो ग्रंथ लिखे हैं उनमें अपभ्रंश का प्रचुर प्रयोग मिलता है।
10) डिंगल और पिंगल भाषा का प्रयोग
 आदिकालीन काव्य में डिंगल और पिंगल भाषा का प्रयोग मिलता है। डिंगल एक राजस्थानी भाषा है। वास्तव में यह राजस्थान की एक बोली मारवाड़ी का ही साहित्यिक रूप है। डिंगल के समानांतर या जिसे कुछ लोगों ने डिंगल के अनुकरण पर प्रयोग में आने वाली भाषा माना है । उसका नाम पिंगल है। पिंगल प्रायः ब्रज भाषा के लिए प्रयोग किया जाता है। पृथ्वीराज रासो की एक प्रति जो लंदन में सुरक्षित है उसकी भाषा पिंगल लिखी हुई है। कुछ लोग रासो को पिंगल की रचना मानते हैं। राजस्थान और ब्रज में बोली जाने वाली यह भाषा है, डिंगल और पिंगल।
11) छंद प्रयोग
 आदिकाल के कवियों ने छंद के प्रयोग में एक विशेष अभिरुचि दिखलाई देती है। इस समय की अपभ्रंश की रचनाओं में सबसे अधिक प्रयोग दोहा छंद का देखने में आता है। इस छंद में प्रायः मुक्तक काव्य की रचना हुई है। कहीं-कहीं कड़वको के बनाने में भी दोहे का प्रयोग हुआ है। वैसे इस समय चौपाई आदि छंद लिखकर उसके क्रम को तोड़ने के लिए धत्ता छंद का प्रयोग किया जाता था, परंतु चौपाई का कड़वक और अंत में दोहे का धत्ता देने की भी पद्धति देखने में आती है। आदिकालीन कथा काव्य में सबसे अधिक प्रयुक्त छंद चौपाई है । दोहे और चौपाइयों का प्रयोग 'ढोला मारू रा दूहा' में सबसे पहले देखने में आता है।
12) अलंकार प्रयोग 
आदिकाल की अनेक रचनाओं में अलंकारों का प्रयोग होता रहा है। परंतु वह प्रयोग कम है और शायद नहीं के बराबर है पर पृथ्वीराजरासो में अलंकारों के प्रयोग की कमी पूरी हो जाती है । कवि ने अनेक प्रसिद्ध अलंकारों को बड़ी समर्थता और कलात्मकता के साथ प्रयोग किया है। रूपक बांधने में कवि बहुत सिद्धहस्त है। तरह-तरह के रूपक पृथ्वीराज रासो में देखने में आते हैं। अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा को रूपक उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक, संदेह, भ्रांतिमान, अतिश्योक्ति आदि अनेक अलंकार कवि ने प्रयोग किया है। इस तरह आदिकाल के आरंभ के काव्य में अलंकार की प्रवृति कम है पर उत्तरोत्तर वह बढ़ती गई है।

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