सिद्ध साहित्य की विशेषताएँ एवं प्रमुख कवि
सिद्ध साहित्य
प्रस्तावना:-
प्रथम
सिद्ध
कवि
और
हिंदी
के
प्रथम
कवि
सरहप्पा
का
आविर्भाव
काल 817 वि. माना
जाता
हैं।
इसी
आधार
पर
सिद्धों
का
समय 827 वि. से 1257 ईसवी
तक
निर्धारित
किया
गया
है।
गौतम
बुद्ध
के
मृत्यु
के
पश्चात
बौद्ध
धर्म
दो
सम्प्रदायों
में
विभक्त
हो
गया।
हीनयान
और
महायान
।
बाद
में
महायान
के
भी
कई
भाग
हो
गए
जिन
में
वज्रयान
और
सहजयान
मुख्य
है।
धीरे-धीरे
वज्रयान
और
सहजयान
में
मंत्र
चमत्कार
और
वाममार्ग
समां
गया।
इस
प्रकार
कालान्तर
में
मंत्रो
द्वारा
सिद्धि
का
चमत्कार
प्रस्तुत
करनेवाले
साधक
सिद्ध
कहलाए।
सिद्धों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्त्व
का प्रचार करने के लिए जो साहित्य जन भाषा में लिखा हैं वह सिद्ध साहित्य के नाम से
प्रचलित हुआ है। राहुल सांकृत्यायन ने 84 सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है। जिनमें
सरहप्पा से यह साहित्य आरम्भ होता है। इसलिए इन्हें हिंदी का प्रथम कवि माना जाता है।
सिद्ध साहित्य के कवियों की परंपरा सातवी शताब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी तक मानी
जाती है। बौद्ध धर्म विकृत होकर बहुत दिनों से वज्रयान संप्रदाय के रूप में देश के
पूर्वी भाग में प्रचलित था। बौद्ध तांत्रिक सिद्ध कहे जाते थे। इन सिद्धों में अलौकिक
होने की बात की जाती थी। इसी कारण नौंवी तथा दसवीं शताब्दी में जनता के ऊपर इनका काफी
प्रभाव था। नालंदा, विक्रमशिला उनके केंद्र थे। वे संस्कृत अपभ्रंश मिश्रित देशज भाषा
का प्रयोग करते थे। सिद्ध कवियों ने ऐसी भाषा का प्रयोग किया, जिसके सांस्कृतिक आयाम
निकलते हैं। सिद्धों और नाथों की मानवीय भाषा का नाम 'संध्या भाषा' बताया जाता है।
हरप्रसाद शास्त्री के मतानुसार संध्या भाषा का अर्थ है- कुछ समझने जैसी कुछ न समझने
जैसी। मतलब कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट भाषा किन्तु ज्ञान के प्रकाश से स्पष्ट हो जायेगी
ऐसी भाषा है। कुछ विद्वान् संध्या का अर्थ साँझ लगते हैं । क्योंकि साँझ के समय का
चित्र भी कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट होता है। कुछ विद्वानों ने संध्या का अर्थ संदी
देश की भाषा लगाया है और संदि को बिहार तथा बिहार की पूर्वी सीमा और बंगाल की पश्चिमी
सीमा के मिलने के स्थान को संध्या कहा गया है।
दूसरा मत कुछ अधिक प्रचलित है। पर तीसरा
मत निराधार है। वास्तव में शास्त्री जी के मत से यह शब्द 'संध्या भाषा' है । यह सिद्ध
वाममार्गी थे तथा उनकी परंपरा में स्री ( शक्ति ) सेवन आवश्यक समझा गया । आगे चलकर
कबीर ने इसकी कटु आलोचना की । फिर भी उन्हों ने सिद्धों की शब्दावली और सांकेतिक भाषा
ग्रहण किए बिना नहीं रह सके।
सिद्ध कवियों ने अपने चार्यगीत, पझटिका
पध्दडी, चौपाई, आदि छन्दों में रचे हैं। पृष्ठभूमि के रूप में सिद्ध काव्य का अध्ययन
महत्वपूर्ण है। बाद में संत काव्य पर इसका विशेष प्रभाव पड़ा है। सिद्धों ने वर्ण व्यवस्था
और जाति प्रथा का घोर विरोध किया है। कबीर ने भी इस मान्यताओं का खंडन किया है। इसी
प्रकार सिद्धों की गीति शैली रूपक तत्त्व, उलट बासियाँ, रहस्यात्मकता आदि प्रवृतियां
बाद में संत साहित्य में गृहीत हुई।
प्रमुख सिद्ध कवियों का संक्षिप्त परिचय
:-
1) सरहप्पा / सरहपाद
इन्हीं के अन्य नाम सरहपाद, सरोजभद्र बताएं जाते हैं। यह ब्राह्मण भिक्षुक थे
। राहुल संकृत्यायन जी ने इनका समय 769 माना है। जिससे अधिकांश विद्वान सहमत है। इन्होंने
32 ग्रंथ लिखे हैं, जिनमें 'दोहाकोश' प्रसिद्ध है। इन्होंने गुरु सेवा का महत्व तथा
पाखंड और आडंबर का विरोध किया है। इनकी भाषा हिंदी है। कहीं-कहीं अपभ्रंश भाषा का प्रभाव
दिखाई
देता
है।
सरहपाद
नालंदा
में
बौद्ध
धर्म
का
अध्यापन
करते
इनका
काल 7वीं 8वीं
शताब्दी
में
रहा
है।
राहुल
सांकृत्यायन
कहते
है
कि "जब
वहाँ
का
जीवन
दम
घोटू
लगने
लगा
तब
उन्होंने
भिक्षु
का
बाना
छोड़ा
और
दूसरी
या
छोटी
जाति
की
तरुणी
के
साथ
खुल्लम
खुल्ला प्यार या सहज यान करने
लगे।" ऐसा वे मानते हैं। जीवन की सहज वासनाओं की पूर्ति ही सहज यान है । ऐसा उन्होंने
माना है। और उस में विलीन हो गए।
2) शबरिप्पा :- इनका जन्म क्षेत्रीय स्कूल में 780 ईसवी में हुआ था।ये सरहपाद
के शिष्य थे। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'चर्यापद' है। भाषा सरहपाद से मिलती जुलती है। इन्होंने
साधना के क्षेत्र में बहियाचारों की कटु निंदा की है।
3) लुइप्पा :- यह राजा धर्मपाल के शासनकाल में कायस्थ
परिवार में पैदा हुए थे यह शबरी पा के शिष्य थे इनके साधना का प्रभाव देखकर उड़ीसा
के राजा और मंत्री इनके शिष्य हुए । चौरासी सिद्धों में इनका स्थान सबसे ऊंचा माना
जाता है। इनकी कविता रहस्य भावना से परिपूर्ण है।
4) डोम्बिप्पा :-
मगध के क्षत्रिय वंश में 840 ईस्वी में इनका जन्म हुआ था। विरूपा से इन्होंने
दीक्षा ली थी। ईन्होंने 21 ग्रंथ लिखे हैं। जिनमें 'योगाचार्य', 'डोम्बिगीतिका' आदि
प्रसिद्ध है।
5) कन्हप्पा :- इनका जन्म कर्नाटक के ब्राह्मण परिवार
में 820 ईस्वी में हुआ यह बिहार में रहते थे इनके गुरु जालंधर अप्पा के मार्गदर्शन
में अपना कार्य किया है।और वह उनको गुरु मानते थे इनके लिखे हुए ग्रंथ 74 बताए जाते
हैं, जिन में अधिकांश ग्रंथ दार्शनिक विषयों पर है।
6) कुम्भप्पा :- कपिलवस्तु के ब्राह्मण परिवार में इनका
जन्म हुआ था परंतु इनके जन्म काल का पता नहीं मिलता है। इनके गुरु चरपार्टीनाथ थे ईन्होंने
16 ग्रंथ लिखे हैं।
उपर्युक्त प्रमुख सिद्ध कवियों के अतिरिक्त अन्य
सिद्ध कभी भी अपनी वाणी का प्रचार करते थे इन कवियों ने हिंदी कविता साहित्य में जो
प्रवृत्ति आरंभ की उसका प्रभाव भक्ति काल तक चलता रहा। योग साधना के क्षेत्र में भी
इनका प्रभाव पहुंचा कृष्ण भक्ति के मूल में जो प्रवृत्ति मार्ग है उसके प्रेरणा के
सूत्र हमें इनके साहित्य में मिलते हैं।
सिद्ध साहित्य की विशेषताएं
1) मन्त्र तंत्र
पर आधारित साधना
सिद्ध
कवियों
की
साधना
पद्धति
मन्त्र
तंत्र
पर
आधारित
थी।
प्रत्येक
तांत्रिक
संप्रदाय
में
देवता
मंत्र
और
तत्त्व
दर्शन
की
पारिभाषिक
शब्दावली
भिन्न-भिन्न
है।
किन्तु
इनकी
साधना
पद्धति
सब
की
सामान
है।इन्होंने
वज्रयान
तंत्र
का
प्रचार
किया।
सदाचार
में
आस्था
तथा
जीवन
के
स्वाभाविकता
को
विश्वास
में
बदल
दिया।
2) जाति-पाती
के भेदभाव की
निंदा
तांत्रिक
साधना
पद्धति
में
जाति-पाती
के
भेदभाव
की
निंदा
की
गई
है।
सिद्ध
कवि
उच्च
नीच
के
भेदभाव
को
नहीं
मानते
थे।
इस
साधना
पद्धति
में
सभी
को
समान
अधिकार
प्राप्त
था।
3) योग
साधना पर अधिक
बल
सिद्ध
सम्प्रदाय
के
कवियोने
योग
साधना
पर
अत्यधिक
बल
दिया
है।
तांत्रिक
साधना
के
लिए
शरीर
शुद्धि
प्रथम
आवश्यक
है।
क्योंकि
ब्रमांड
में
जो
शिव
और
शक्ति
है, शरीर
में
वही
सहस्राधार
और
कुण्डलिनी
है।
इसलिए
योग
के
माध्यम
से
शरीर
शुद्ध
करने
पर
बल
दिया
जाता
है।
4) वैदिक
देवता के प्रति
अनास्था
सिद्ध
कवियोने
वैदिक
देवताओं
का
घोर
विरोध
किया
है।
इन्होंने
मूर्ति
पूजा
का
विरोध
किया
है।
इनके
स्थान
पर
लोगों
को
प्रश्रय
दिया
है।सभी
सम्प्रदायों
में
ब्राम्हण
वाद, पौराणिक
रूढ़ी
का
विरोध
किया
गया
है।
5) इसी
जनम में मुक्ति
तांत्रिक
साधना
पद्धति
में
मरणोपरान्त
मुक्ति
या
निवारण
प्राप्ति
की
अपेक्षा
इसी
जीवन
काल
में
सिद्धियों
को
प्राप्त
करना
आवश्यक
बताया
है।
6) चमत्कार
प्रदर्शन सभी सम्प्रदायों
में समान रूप
से मिलता है।
7) गुरु
को अत्यधिक महत्व
साधना
पद्धति
में
गुरु
को
अत्यधिक
महत्वपूर्ण
स्थान
दिया
गया
है।
8) छंद
प्रयोग
सिद्ध
कवियों
की
रचनाएँ
अधिकतर
चर्या
गीतों
में
हुई
हैं।
तथापि
इसमें
दोहा, चौपाई
जैसे
लोकप्रिय
छंद
भी
प्रयुक्त
हुए
हैं।
जनता
के
रिहदय
में बैठ जानेवाले छोटे-छोटे
छन्दों
और
गीतों
में
ही
इस
साहित्य
की
रचना
हुई।
सिद्ध
कवियों
के
दोहा
बहुत
ही
प्रिय
छंद
रहा
है।
यु
कही-कही
सोरठा
और
छप्पय
का
भी
प्रयोग
हुआ
है।
9) श्रृंगार
और शांत रस
का प्रयोग
सिद्ध
कीवियों
की
रचना
में
विशेष
कर
श्रृंगार
और
शांत
रस
का
प्रयोग
हुआ
है।
कहीं-कहीं
पर
बहुत
श्रृंगार
ही
मिलता
है।
इन
सिद्धों
की
रचना
में
जो
अलौकिक
रहस्य
है
वही
आगे
चलकर
कबीर
और
दादु
की
रचनाओं
में
मिलता
है।
जिनमें
काव्य
लक्षणों
की
उतनी
अधिक
व्यवस्था
नहीं
है, जीतनी
मनोवैज्ञानिक
रहस्य
संचार
को
है।
10) सिद्धों
की भाषा
सिद्ध
कवि
अधिकतर
नालंदा
और
विक्रम
शीला
में
रहते
थे
।
अतः
उनकी
भाषा
बिहारी
के
निकट
की
अर्धमागधी
अपभ्रंश
भाषा
ही
है।
उनकी
भाषा
में
जनबोली
मागधी
का
आभास
मिलता
है।
इस
भाषा
को 'संध्या
भाषा' नाम
भी
दिया
है।
सिद्ध
साहित्य
की
भाषा
में
भाषा
विज्ञान
विशारदों
के
सामने
बड़ी
मनोरंजक
सामग्री
प्रस्तुत
की
है।
11) उलटबाँसीयों
का प्रयोग
सिद्ध
कवियों
ने
अपनी
रचनावों
में
उलटबाँसी
यों
का
प्रयोग
किया
है।
12) अलौकिकता
13) रूपकों
का प्रयोग
14) खंडन-मंडन
की पद्धति
15) रहस्यात्मकता
सम्बन्धि प्रवृत्तियाँ
16) पारिभाषिक
शब्दावली का प्रयोग
17) योग
की शब्दावली
सिद्ध
साहित्य का महत्व
सिद्ध
साहित्य
का
महत्व
इस
बात
में
बहुत
अधिक
है
कि
उसने
हमारे
साहित्य
के
अधिरूप
की
सामग्री
प्रमाणिक
ढंग
से
प्राप्त
होती
है।
चारण
कालीन
साहित्य
तत्त्वों
ने
केवल
तत्कालीन
राजनितिक
जीवन
की
प्रति
छाया
है।
यह
सिद्ध
साहित्य
शताब्दियों
से
आनेवाली
धार्मिक
और
सांस्कृतिक
विचारधारा
का
एक
स्पष्ट
दस्तावेज
है।
सिद्ध
साहित्य
में
हमें
रहस्यवाद
के
बीज
मिल
जाते
हैं।
Comments
Post a Comment