आकाशदीप - जयशंकर प्रसाद
श्री जयशंकर प्रसाद का जन्म सन 1890 ईस्वी में काशी के एक प्रतिष्ठित और संपन्न परिवार में हुआ था । उनकी शिक्षा अंग्रेजी फारसी और संस्कृत के विद्वानों द्वारा घर पर ही हुई । वे बचपन से ही अध्ययन शील थे और 14 वर्ष की अल्पायु में दुकान पर बहीखाता के रद्दी पन्नों पर कविताएं लिखा करते थे । उनकी प्रतिभा सर्वदा उन्मुख की थी । 47 वर्ष के जीवन काल में कहानी, उपन्यास, कविता, निबंध, इतिहास, पुरातत्व आदि सभी क्षेत्रों में पूर्ण अधिकार के साथ मौलिक रचनाओं की सृष्टि की ।हिंदी के सर्वश्रेष्ठ नाटककार, कथाकार और छायावाद के उन्नायक रचनाकार माने जाते हैं ।
प्रसाद जी ने भाव प्रधान सुंदर कहानियां लिखी है । जिनमें भारतीय आदर्श के प्रति आस्था मिलती है । उस युग के कई लेखक प्रसाद शैली के अनुगामी हुए ।हिंदुस्तानी भाषा आंदोलन के कारण उनकी प्रभाव में संस्कृतनिष्ठ शैली कुछ समय के लिए लोप सी हो गई थी । नई कहानी के कुछ लेखकों ने उनकी भाषा को अपनाकर हमारी भाषा को प्रभावशाली बनाया है उनकी कहानी का ढांचा भले ही काल्पनिक आधार पर हो वह मानव के हृदय की यथार्थ भावनाओं और द्वंद को मुखरित करता है । कथोपकथन कवित्वमय होने के कारण हृदय को झकझोर देता हैं । संस्कृतनिष्ठ भाषा कहीं-कहीं क्लिस्ट होने पर भी मानवीय गुणों की व्याख्या करती है । पात्र परिस्थितियों के साथ भावुक होने पर भी सही भाव व्यक्त करते हैं माधुर्य का पुट उनकी अपनी विशेषता है ।
आकाश दीप नाटकीय संवादों और अभिनयात्मक पद्धति से पात्रों का विकास करता है । संपूर्ण प्राकृतिक वातावरण कलात्मक संस्कृतिनिष्ठ शैली में निबद्ध है ।मानवीय भावनाओं का अद्भुत चरित्र चित्रण एक चतुर शिल्पी की भांति संजोया गया है इसमें भारतीय संस्कृति के परिवेश में एक स्वस्थ आदर्श को अपनाया गया है ।इसमें नारी के अत्यंत भावुक ह्रदय का रेखांकन लेखक ने प्रस्तुत किया है ।
प्रस्तुत कहानी के नायक बुद्ध गुप्त है और नायिका चंपा है संध्या का समय है । बुद्ध गुप्त और चंपा एक नाव पर बंदी है । वह दोनों आमने-सामने बंदी रूप में बांध दिए गए हैं । समुद्र में हिलोरे उठने के कारण वे एक दूसरे से टकराते हैं वह एक दूसरे को पहचानते नहीं, फिर भी एक दूसरे की मदद करना चाहते हैं । लहरों के धक्के एक दूसरे को पुलकित कर रहे हैं । उनको मुक्ति की आशा है । वह स्नेह का आलिंगन दोनों ही अंधकार से मुक्त हो जाते हैं और एक दूसरे के गले मिलते हैं तब बुद्ध गुप्त को चंपा के स्त्री होने का पता चलता है और वह उसे पूछता है कि क्या तुम स्त्री हो ? फिर वह कहती है कि क्या स्त्री होना कोई पाप है? इसी तरह एक दूसरे का परिचय हो जाता है । उसी नाव पर अन्य लोग भी बंदी थे । नाव की रस्सी टूट जाने के कारण नाव के सभी सैनिक उसी ओर जाते हैं । उस नाव को ठीक करने में लगे रहते हैं । बुद्ध गुप्त बंधन से मुक्त हो जाता है और पोत अध्यक्ष मणिभद्र के चुनौती को मंजूर करता है। दोनों में द्वंद्व युद्ध होता है । नाविक मणिभद्र हार जाता है । बुद्धगुप्त का वर्चस्व उस नाव पर निर्माण होता है । बुद्ध गुप्त के शरीर पर लगे घाव को चंपा बांध देती है ।
नाविक बुद्धगुप्त यात्रा करते हैं, उसके साथ चंपा है । चंपा अपना परिचय देते हुए कहती है कि मुझे यहां मणिभद्र के वासनाओं के कारण बंदी बनाया गया है । मेरे पिता कुछ वर्ष पहले इसी नाव पर नाविक थे । उन्हें जल समाधि मिलने के बाद मैं पिछले 8 साल से इसी नाव पर जीवन बिता रही हूं लेकिन एक दिन मणिभद्र की नजर मुझ पर पड़ी और उसने मुझे अपनी वासना का शिकार बनाना चाहा । मेरे धिक्कार करने पर उसने मुझे यहां बंदी बनाया है । मैं क्षेत्रीय की पुत्री हूं l
बुद्ध गुप्त और चंपा एक द्वीप पर आते हैं उस दीप का कोई नाम न होने के कारण उसे चंपा द्वीप कहते हैं उसमें ऐसी दीप वह व्रत में रखा जाता है उसमें द्वीप लगाया जाता है और वह चाहते हैं कि उसका आकाशदीप नक्षत्र की तरह चमकता रहे फिर चंपा अपनी दासी जया को बुलाती है जो रंग से काली है चंपा को वह रानी संबोधती है । चंपा यह जानना चाहती है कि महानायक बुद्ध गुप्त कब आएंगे? तब वे आते हैं और कहते हैं कि तुमने जो यह दीप जलाया है वह किस के इंतजार में जलाया है? फिर बुद्ध गुप्त कहता है कि चंपा तुम मेरी प्राण दात्री हो तुम मेरा सर्वस्व हो । चंपा कहती है कि तुमने दस्यु वृत्ति तो छोड़ दी परंतु ह्रदय वैसा ही अकरुण संतृष्ण और ज्वलनशील है । तुम भगवान के नाम पर हंसी उड़ाते हो । मेरे आकाशदीप पर व्यंग करते रहे हो । बुद्ध गुप्त को चंपा से बहुत प्यार हो जाता है । वह चंपा से कहता है कि तुम मुझे कुछ भी करने के लिए कहो मैं तुम्हारे लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हूं । फिर वह अपने पिता की हत्या को छोड़कर वह उसे माफ कर देती है, फिर भी बुद्ध गुप्त उसे पूछता है कि क्या तुमने मुझे सही माफ किया, फिर चंपा कहती है कि विश्वास मत कीजिए फिर भी मैं तुमसे प्यार करती हूं । बुद्ध गुप्त चंपा को विश्वास दिलाना चाहता है कि वह उसके पिता का हत्यारा नहीं है । लेकिन वह कहती है कि काश यदि मैं तुम्हारे बात का विश्वास करती तो कितना अच्छा होता, लेकिन ऐसा नहीं होता । बुद्ध गुप्त कहता है कि मैं पाप को नहीं मानता ईश्वर को नहीं मानता दया को नहीं समझ सकता मैं उस लोक में विश्वास नहीं रखता पर मुझे अपने ह्रदय के एक दुर्लभ अंग पर श्रद्धा हो चली है । तुम न जाने कैसे एक बहती हुई तारिका के समान मेरे सुनने में उदित हो गई हो ।
चंपा बुद्धगुप्त की इन बातों को सुनती रही और कहा कि मैं तुम्हारे साथ आने के लिए तैयार हूं और ना विवाह के लिए । मैं केवल अपने पिता की स्मृति पर दीप जलाना चाहती हूं । फिर वह सब कुछ छोड़ना चाहती है बुद्ध गुप्त भारत आना चाहता है जब वह जल में नाव लेकर निकलते हैं और चंपा देखती है और वह भी नाव की ओर बढ़ती है वह भी बुद्ध गुप्त के साथ भारत चली आना चाहती है परंतु नहीं आ पाती ।
कहानी की नायिका के मन में पिता के प्रति अनन्य श्रद्धा है और अपने प्रियतम के प्रति भी बहुत प्यार है । पिता की स्मृति पर वह आकाश दीप जलाती है फिर भी वह बुद्ध गुप्त के साथ प्रेम होने के कारण पिता का कातिल होने के कारण उसके प्रेम को ठुकरा ती है । यह कितनी शताब्दियों पहले की कथा है । चंपा और अजीवन उसमें आलोक जलाती रही किंतु उसके बाद भी बहुत दिन द्वीप निवासी उस माया ममता और स्नेहा सेवा की देवी की समाधि सदृश्य उसकी पूजा करते थे । एक दिन काल की कठोर हाथों ने उसे भी अपनी चंचलता से गिराया ।
निष्कर्ष :
आकाश द्वीप कहानी में चंपा के चरित्र के माध्यम से प्रेम और घृणा का स्वीकार और अस्वीकार का इतना तीव्रतम द्वन्द्व व्यक्त किया गया है कि जो अन्यत्र नारी पात्र में शायद ही देखा जा सके । चंपा ने बुद्ध गुप्त को ठुकरा कर पित्र प्रेम को महत्व दिया है, किंतु चंपा द्वीप में रहकर अपने प्रेम की गंभीरता को और भी गंभीर बना सकी ।फिर भी चंपा के प्रेम का एक उज्जवल पक्ष स्पष्ट हो उठता है ।
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