शरणदाता - कहानी का आशय - अज्ञेय
सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन'अज्ञेय' जी का जन्म सन 1911 इसवी में कसिया गोरखपुर में हुआ था । यह करतारपुर पंजाब के मूल निवासी है । पिता डॉ. हीरानंद शास्त्री पुरातत्व विभाग में उच्च अधिकारी थे । अज्ञेय ने पिता के साथ पूरा भारत भ्रमण किया है ।आपका क्रांतिकारी आंदोलन से संबंध रहा है और समाजवादी विचारधारा अपनाई है । कवि, कथाकार आलोचक, चित्रकार और प्लास्टर की मूर्ति निर्माण करने में सफल शिल्पी है। अपनी विशिष्ट प्रतिभा के अनुकूल विद्रोह और क्रांति आप की विचारधारा के मूल है। नए लेखकों को आपकी प्रांजल भाषा अनूठे सजीव वातावरण और सशक्त पात्रों ने प्रभावित किया है ।
'पगोड़ा वृक्ष, विपथगा', कोटरी के बात,' 'रोज', 'अमर बल्लारी', कड़िया, 'चौधरी की वापस आदि लेखक की अमर कहानियां है।
'शरणदाता मानव के संघर्ष की अनूठी कहानी है । भारतीय लोकतंत्र बनने के बाद पंजाब के हरे भरे प्रदेश में सांप्रदायिक दंगे हुए । हजारों ग्रहग्रस्त उखड़कर शरणार्थी बन गए । सदियों पुरानी मानवता स्नेह ममता की डोर टूट गई और पैशाचीक वृत्ति में मानव सब आपसी नाते रिश्ते भूल गया, लेकिन एक ममतामई नारी ने जीवन की दीप्तिमान स्नेह की डोरी से मानव की रक्षा कर पुरानी परंपरा निभाई । सांप्रदायिक भावनाओं में अंधे हुए मानव की हिंसा, क्रोध और ईर्ष्या के साथ मानवीय गुणों के प्रति आस्था रखने वाले लोग भी है । मानवता मरती नहीं वह स्थाई है इस ओर लेखक ने अपनी कथा को मोड़ दिया है । नारी कल्याणी है उसके हृदय की विशालता का सुंदर चित्रण एक सफल शिल्पी के समान उभारा गया है ।
मनुष्य जब सांप्रदायिकता को अतिरिक्त महत्व देता है तब वह मनुष्य न रहकर हैवान बन जाता है । वास्तविकता यह है कि 'शरणदाता' को किसी ना किसी को तो अपना मानना ही पड़ता है इसी का चित्रण कहानीकार ने भारतीय परंपरा को मध्य नजर रखते हुए हिंदू मुसलमान के संबंधों को उजागर किया है ।
कहानी के देवेंद्रलाल हिंदू है और रफीकुद्दीन मुसलमान है दोनों गहरे मित्र हैं और एक दूसरे के पड़ोसी भी हैं भारत पाकिस्तान का विभाजन होने के कारण सब हिंदू अपने - अपने हिंदू मुल्कों में नौ दो ग्यारह हो रहे हैं और मुसलमान भी रफीकुद्दीन के पड़ोसी और मित्र देवेंद्रलाल भी अपने अपने हिंदू मुल्कों में जाना चाहते हैं लेकिन रफीकुद्दीन उन्हें रोक लेता है । वह अपने मित्र को और बरसों पुरानी दोस्ती को टूटने नहीं देना चाहता । शहर में हिंदू को मार दिया जा रहा है, उनके घरों को आग लगाई जा रही है, फिर भी रफीकुद्दीन देवेंद्रलाल को विश्वास दिलाता है कि तुम्हें कुछ नहीं होने दूंगा । वह समझता है कि अगर हम अपने पड़ोसी की हिफाजत नहीं करें तो मुल्क की हिफाजत क्या खाक करेंगे? लाहौर के हिंदू मोहल्लों में मुसलमानों ने कब्जा कर लिया है फिर भी रफीकुद्दीन देवेंद्रलाल की हिफाजत की जिम्मेदारी लेत है और उन्हें कहीं जाने नहीं देता हैं ।
देवेंद्र लाल की पत्नी कुछ दिन पहले ही मायके गई है । घर की सभी जेवरात और कुछ कीमती सामान उसी के साथ है उसे चिट्ठी लिखकर सूचना देते हैं कि वह अभी लाहौर ना आए ।देवेंद्र लाल घर छोड़कर कुछ महत्वपूर्ण वस्तु और कागजात लेकर रफीकुद्दीन के घर में बैठ जाते हैं । देवेंद्रलाल के घर को आग लगा दी जाती है । वह अपनी खुली आंखों से अपना जलता हुआ घर देखता है फिर वह रफीकुद्दीन के घर में नहीं रहना चाहता लेकिन रंफीकुद्दीन भी अपने मित्र को भटकता हुआ छोड़ना नहीं चाहता है, इसीलिए उसे उनके ही घर में रुकना पड़ता है ।
। देवेंद्रलाल को पनाह देने के कारण मुस्लिम लोग उन्हें गद्दार समझने लगे हैं । उन्हें जलील होना पड़ रहा है और उन लोगों ने रफीकुद्दीन को धमकाया भी है । इस तरह की बातें 2 घंटे तक चलती रही है और उसके घर में ही उसे भला-बुरा कह कर चले गए है । देवेंद्रलाल के पूछने पर रफीकुद्दीन सब बता देते हैं फिर भी रफीकुद्दीन उन्हें रोक लेता है । उनकी व्यवस्था किसी और सुरक्षित ठिकाने पर करना चाहता है ।
शेख अत्ताउल्लाह के घर को सुरक्षित समझकर देवेंद्र लाल को उनके एक गैरेज के कोठरी में रखा जाता है और उन्हें दो वक्त का खाना एक बार ही दिया जाता है । वह एक बार खाना मिलता है इसीलिए भोजन भी एक ही बार करते हैं और बचा हुआ खाना बिल्लोर को खिलाते हैं शेख अताउल्लाह का लड़का उन्हें खाना ला कर देता है । उन्हें अब सब की आवाज पहचानी जाती है । यहां तक कि वह किसने खाना बनाया है और परोस किसने दिया है याहाँ तक बैठे -बैठे समझ रहे है । गैरेज में किसी प्रकार की व्यवस्था नहीं थी । उसमें प्रकाश भी नहीं आता है, वहां जेल से भी बदतर महसूस होता है । जेल में हंस सकते थे, बात कर सकते थे लेकिन यहां अपने ही भाई द्वारा तन्हाई कैद दे रहे हैं ।
देवेंद्रलाल किसी तरह दिन गुजारते है उनका वक्त नहीं कटता है उनको एक ही साथ दो वक्त का खाना आते हुए भी वह नहीं खाते हैं । शेख अताउल्लाह की लड़की जेबुन्निसा की आवाज को वह ठीक तरह पहचानते थे । घर में जब खाना बनता तो वह तुरंत पहचान जाते थे कि खाना किसके हाथ का बना हुआ है । जैबुन्निसा की आवाज से देवेंद्र लाल का लगाव था । शेख साहब पुलिस की किसी दफ्तर में क्लर्क थे । देवेंद्र लाल को यहां लाते समय रफीक उद्दीन ने यह कहा था कि पुलिसियों का घर तो सुरक्षित होता है, इसीलिए शायद बहुत से उपद्रव का जड़ भी होता है ।
खाने में बड़ी-बड़ी रोटियां जो कि मुस्लिम पद्धति से बनी होती है उन्होंने रोटियों को उलट-पुलट कर देखा और उसमें एक कागज की पुड़िया मिली । उस पूड़ियाँ में कुछ नहीं था । वह उसे फेंकने ही वाले थे कि हाथ थक गया उन्होंने कोटरी से आंगन में जाकर कोने में पंजों पर खड़े होकर बाहर की रोशनी में पुर्जा देखा उस पर कुछ लिखा था । केवल एक कतरा खाना कुत्ते को खिलाकर खाएगा । यह पढ़कर देवेंद्र लाल ने कागज की चिंधिया की और उसे मसल कर कोठरी में जाकर उसे गड्ढे में डाल दिया ।थोड़ी देर बाद वह फिर खाने के पास गए और सोचा कि यह उनका खाना है । देवेंद्र लाल का मित्र के नहीं तो मित्र के मित्र के यहां से आया है और उनके मेजबान के उनके आश्रय दाता के जयबू के ।
उन्होंने देखा कि वहां कुत्ता नहीं था पर बिल्लार थी । उन्होंने पहले बिलार को खाना खिलाया और देखा कि वह थोड़ी देर में ही तड़प कर मर गई । तब देवेंद्र लाल ने फिर खाने को देखा और उनके मन में आया आजादी, भाईचारा, देश, राष्ट्र फिर उन्हें याद आया कि एक ने कहा हम जोर करेंगे जोर करके रखेंगे और रक्षा करेंगे पर घर से निकाल दिया । दूसरे ने आश्रय दिया और विश दिया और साथ में जेबुन्निसा ने चेतावनी दी कि विष दिया जा रहा है । तब देवेंद्र लाल बहुत खिन्न हुए । उनका मन ग्लानि से उमड़ आया और वे वहां से भाग निकले ।
कहानीकार ने देवेंद्र लाल रंफीकुद्दीन और अताउल्ला के द्वारा मानवीय धार्मिकता को उजागर किया है । मुस्लिम सोचते हैं कि हिंदू को मौत के घाट कैसे उतारा जाए ।लेकिन एक नारी की ममता और उसक नारी ह्रदय सबको इंसान समझ कर हिफाजत करती है । उसके मुस्लिम होते हुए भी वह चेतावनी देती है । कहानीकार यह बताना चाहते हैं कि हिंदू मुसलमान के दिल में जो भेदभाव है वह निकलता नहीं है क्योंकि मुसलमान हिंदुओं से डरता है और हिंदू मुसलमान से ।
कहानीकार ने मनोवैज्ञानिक ढंग से हिंदू और मुसलमान के संबंध को उजागर किया है । देवेंद्र लाल हिंदू को केंद्र में रखकर सोचते हैं और और रफीकुद्दीन, अताउल्लाह मुसलमान को । स्वाधीन होकर लगभग 70 साल हुए फिर भी हिंदू मुसलमानों के बीच अभी झगड़ा है । कहानी मानसिक स्थर पर विचार करने जैसी है । संवाद सुस्पष्ट और बोधगम्य है । इसमें शरण की बात कही गई है इसलिए शीर्षक भी सार्थक है ।
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