व्रत भंग - जयशंकर प्रसाद
कहानी का आरंभ दो मित्र नंदन और कपिंजल के वार्तालाप से होता है । दोनों साथ पढ़े हैं । नंदन कलश का पुत्र है । कपिंजल एक निर्धन व्यक्ति है । दोनों की मित्रता में दूरी निर्माण होने में शायद नंदन का अमीर होना ही लगता है । कपिंजल का यह कहना कि "तुम मुझे दरिद्री युवक समझकर मेरे ऊपर कृपा रखते थे , किंतु उसमें कितना तीक्ष्ण अपमान था , उसका मुझे अब अनुभव हुआ।" इसी बात के कारण कपिंजल को लगता है कि नंदन पर अमीरी का दर्प छाया हुआ है । इसी दर्प के कारण दोनों की मित्रता टूट जाती है और कपिंजल दरिद्री का भी गर्व रखता है । कपिंजल कसम खाता है कि वह भूखा मर जाएगा लेकिन किसीके सामने हाथ नहीं फैलाएगा । आगे चलकर वह एक दिगम्बर पंथिय साधु बन जाता है ।
इस घटना को कई वर्ष हो जाते हैं । इधर पाटलीपुत्र के धनकुबेर कलश का पुत्र कुमार नंदन उस घटना को भूल जाता है । ऐश्वर्य में जीवन बिताता है । उसे चतुराई से जीना नहीं आता था और न ही वह बहुत हुशार था ।
मगध के महाश्रेष्ठि धनंजय की पुत्री राधा से नंदन का विवाह निश्चित हो जाता है । मगध की महादेवी के कहने पर कि नंदन ज्ञानी, विद्वान नहीं है, फिर भी गुरुओं और बड़े बुजुर्गों के आज्ञा का पालन करते हुए वह नंदन से विवाह करने के लिए तैयार हो जाती है ।
नंदन और राधा का विवाह बड़े धूमधाम से स्वयं मगध नरेश की उपस्थिति में हो जाता है । उसे दहेज में रत्न जड़ित दीपाधार भी दिया जाता है । राधा नंदन के महल में आ जाती है । राधा के रूप पर नंदन मोहित होता है । वह अपने सुकोमल आसान पर लेटा हुआ राधा का अनिन्द्य सौंदर्य एकटक चुपचाप देखता रहता है । शादी के बाद का जीवन बड़े आनंद के साथ चल रहा था । एक सुखमय स्वप्न चल रहा था नंदन के पिता कलश धन के उपासक थे । वे बहुत शंकालु स्वभाव के थे । राजकीय संरक्षण होने के बावजूद वे देवी देवताओं की उपासना करते थे । इसलिए उनकी एक नंगे साधु पर अत्यंत भक्ति थी । उन्होंने सभी घर के सदस्यों को उस नंगे साधु के दर्शन के लिए जाते हैं । सभी लोग पूरी तैयारी के साथ साधु के नजदीक पहुँच जाते हैं । राधा दूर से ही देखती है कि वह साधु नंगा है यह देखकर वह उस साधु के के करीब जाने के लिए लोक लाज के कारण औऱ औरत की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए राधा उस साधु के दर्शन करने से इनकार करती है । उसे बहुत बुलाया जाता है पर वह अपने निर्णय पर अटल रहती है ।
इस घटना से साधु, ससुर कलश और पति नंदन भी साधु का अपमान करने के कारण उसे कुलक्षणा कहते हैं । कलश अनागत भविष्य के लिए कलश क्षुब्ध हो उठता है । कलश को लगता है कि राधा ने महापुरुषों के साथ गलत व्यवहार किया है । राधा कलश को समझते हुए कहती है कि "नहीं पिताजी वह स्वयं दुर्विनीत है । जो स्रियों को आते देखकर भी साधारण शिष्टाचार का पालन नहीं कर सकता, वह धार्मिक महात्मा तो कदापि नहीं ।" कलश समझने की कोशिश करता है कि वह सिद्ध पुरुष है फिर भी राधा कहती है कि "सिद्धि यदि इतनी अधम है धर्म यदि इतना निर्लज्ज है, तो वह स्त्रियों के योग्य नहीं पिताजी! धर्म के रूप में कहीं आप भय की उपासना तो नहीं कर रहे हैं ।" इसी दृढता के कारण कारण कलश राधा को कुलक्षणा कहते हैं और उसे अपने भवन से निकल जाने को कहते है ।
नंदन इतना सब कुछ हो जाने के बावजूद भी कुछ नहीं कर सकता था । राधा स्वय को मानती है कि वह धनकुबेरों की खरीदी हुई दासी नहीं है । वह स्वाभिमानी नारी है इसलिए वह घर छोड़कर चली जाती है ।
नंदन ने पिता का अनुकरण किया । वह राधा को भूलने लगा उसके लिए कलश ने उसके मनोविनोद के लिए नया उपवन बनवाया गया । इधर राधा के एक एक आभूषण बिक रहे थे । वह लोगों की सेवा करने लगी थी ।
एक दिन गंगा और सोन नदी में बाढ़ आ जाती है । बहुत सारे घर बह जाते हैं । बहुत सारे लोग मर जाते हैं । ऐसी अवस्था में कलश अपने सात खण्ड के प्रसाद में बैठा तमाशा देखता रहता है । नंदन बाढ़ पीड़ितों को बचाने के लिए घर से निकलता है । कई बाढ़ पीड़ितों को बचाकर राधा के घर ले जाता है । इन बाढ़ पीड़ितों में वह नंगा साधु भी बेशुद्ध अवस्था मे राधा के घर लाया जाता है ।
उस साधु को वस्त्र पहनाए जाते हैं । जागने पर साधु व्रत भंग होने की बात करता है । नंदन उस साधु को पहचानता है कि वह साधु न होकर कपिंजल है, जो नंदन को दंड देने के लिए यह स्वांग रचा था । इसलिए यह व्रत भंग न होकर व्रत का आरंम्भ है । यह व्रत दरिद्री कुटुम्ब के लिए अन्न जुटाने का व्रत लेने की आवश्यकता है । इस प्रकार व्रत अच्छे काम का होना चाहिए । इस प्रकार की सलाह नंदन देता है ।
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