इंस्टॉलमेंट - भगवतीचरण वर्मा
श्री भगवती चरण वर्मा का जन्म शरिफपुर (शफीपुर ) उन्नाव उत्तर प्रदेश में सन 1903 ईस्वी में हुआ । इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एलएलबी कर कुछ दिन काला गाउन पहन कर वकील का पेशा अपनाया । फक्कड़ स्वभाव का व्यक्तित्व एक दिन समाज के बदलते हुए विंबो में नए आदमी की तलाश करने लगा । साहित्य के माध्यम से उन्होंने प्रभावशाली कहानियां लिखना आरंभ किया । विचार साप्ताहिक कोलकाता से निकाला, मुंबई सिनेमा में गए और अंत में रेडियो में काम किया । वे जीवन भर फक्कड़ पण और मस्ती में रहे । नए-नए मानव चित्रों का अपने लेखनी से आकलन करते रहे हैं ।
उनकी कहानियों में मानव चरित्र का विश्लेषण बड़ी कुशलता से निभाया गया है । वह जीवन के सामाजिक परिवेश में जीवित घटनाओं का मार्मिक तथा व्यंग्यात्मक प्रस्तुतीकरण करते हैं । शीर्षक आकर्षक एवं लुभावने होते हैं । परिस्थितियों के साथ वातावरण का विकास जीवन की विकृतियों और विसंगतियों का मखौल उड़ा कर मानव को आगे बढ़ते रहने के लिए उकसाते रहे हैं । उनकी भाषा सरल तथा मुहावरेदार होती है ।
इंस्टॉलमेंट कहानी में हम वर्मा जी की लेखनी का कमाल और व्यक्तित्व की छाप पाते हैं । यह उनके मत की पुष्टि करता है कि आज मध्य वर्ग समाज का व्यक्ति 'इंस्टॉलमेंट' पर ही जीवित है । 'प्रायश्चित मुगलों ने सल्तनत बक्शी,' 'प्रेजेंट्स', 'उत्तरदायित्व', 'एक शाम', 'वरना हम भी आदमी थे काम के', उनकी श्रेष्ठ कहानियां है ।
'इंस्टॉलमेंट' कहानी के चौधरी विश्वम्भर सहाय के पिता चौधरी हरसहाय अवध के एक छोटे मोटे तालुकदार थे ।विश्वम्भर सहाय अपने पिता के एकमात्र संतान थे गठे बदन के लंबे से युवक थे । उम्र करीब 25 वर्ष की थी । रंग सावला, चेहरा लंबा और मुख की बनावट बहुत सुंदर थी । बोल बीच से खिंचे हुए कलम कान के नीचे और दाढ़ी मूछ साफ । चेहरे पर पाउडर की एक हल्की सी लकीर थी धार दार सिल्क की शेरवानी पहनते थे और उनकी टोपी जिसे वह हाथ में लिए थे ।
पिता और पुत्र के स्वभाव में काफी समानता थी फिर भी उनमें बातों -बातों पर मतभेद होता था । चौधरी हरसहाय और चौधरी विशंभर सहाय शराब में बराबर रुपए खर्च करते थे । जहां पिता महू के ठर्रे की सवा बोतल पीते थे, वहां पुत्र व्हिस्की के दो पेग से ही संतुष्ट हो जाते थे । पिता वेश्यागामी थे न पुत्र । केवल पिता रियासत के कुछ जवान बरिनों और चमरिनों पर दस पंद्रह रुपये महीना खर्च कर दिया करते थे, तो पुत्र नगर में सोसाइटी गर्ल्स की दावत पर तथा उनको खेल तमाशा दिखाने में 10 15 रुपए महीना खर्च किया करते थे ।
एक दिन पुत्र ने पिता को बाग में भूसा भरने वाली कोठरी में बंद कर दिया और गांव में फिर वापस ना आने की कसम खा ली और शहर चला गया । पिता बहुत क्रोधित हुए । वे इसे गोली मारकर मार देना चाहते थे लेकिन चौधराइन ने रोक लिया । पुत्र प्रयाग गया और वहां उसने एक काँट खरीद लिया । घर से निकलते समय उसने साथ बहुत सारे पैसे लिए थे और चौधराइन महीने को घर गृहस्ती से काटकर ₹300 रुपये भेजती है ।
कहानीकार सुरेश को विशंभर सहाय कहता है कि ₹300 आज शाम तक चाहिए सुरेश ने पैसे लेने का कारण पूछने पर विशंभर सहाय बता देता है कि कल मैं एक रिश्तेदार के घर गया था । उसे मिलकर आने में दोपहर हो गई थी । कड़ी धूप थी, ऐसी धूप में बाहर निकलना मुश्किल था । ऐसी धूप में मैं अपने घर जाना असंभव था, इसीलिए मैं एक पेड़ के नीचे एक एक्का देख रहा था । बहुत इंतजार करने पर एक एक्का आया । उस एक्के को देखकर ऐसा लगता था मानो वह अठारा सौ सत्तावन की गदर में बनाया होगा, क्योंकि उसकी लकड़ी इतनी पुरानी थी कि इसके पहले मैंने कभी नहीं देखी । पहिए छोटे-छोटे थे जिन पर लोहे का हल चढ़ा हुआ था घुरे से निकलने की लगातार कोशिश कर रहा था। लेकिन लोहे की कील उसे रोक रही थी । एक्के की छत बेर बेर हिल दुल कर अपने बुढ़ापे को प्रकट कर रही थी । छत के तीन डंडे ठीक थे लेकिन चौथे ने जवाब दिया था । उसी के पर एक गद्दा बिछाया हुआ था । जिसके ऊपर का कपड़ा फट गया था और उसमें से रुई हवा में निकल कर दुनिया में घूम रही थी ।
उस इक्के में जो घोड़ी जूती थी वह बिल्कुल गधे के समान थी । उसकी एक-एक हड्डी गिनी जा सकती थी । वह कभी-कभी रुक कर सुस्ताने का प्रयास करती थी । एक्केवान करीब 57 वर्ष के बुजुर्गों थे । जिनकी दाढ़ी काफी लंबी और सन की तरह सफेद थी ।कमर झुकी हुई नदारद । इस तरह का वह एक्का था । ऐसे इक्के पर बैठने की तबीयत तो नहीं होती थी फिर भी धूप के कारण वही स्वीकार करना पड़ा । जब मैं घोड़े पर या उस एक्के पर बैठा था तब घोड़े ने बोझ का अंदाज लगाया और वह खड़ा हो गया । तब बड़े मियां ने आंखें खोल दी और एक ही सांस में घोड़ी को मां बहन की गालियां देते हुए चार पाँच चाबुक के फटके दिए । फिर उसने मुझे सलाम कर कहा जाना है पूछा ही लिया था ।हम थोड़े दूर चले गए थे कि पीछे से दूसरा एक एक्का आ गया था । उस एक्के में दो स्रिया बैठी थी और पहचानी नजर आती थी । वह प्रभा और कमला थी जो यूनिवर्सिटी में साथ पढ़ती थी । इनको देखते ही मेरा चेहरा पीला पड़ गया । मुझे बहुत शर्म आ गई । मुझे लज्जा आने लगी और क्रोध भी ।
बदकिस्मती से उस एक्के पर मैं ही अकेला था । दूसरा कोई होता तो उसके पीछे छिप जाता था, लेकिन छिप नहीं सका । प्रभा और कमला ने मुझे देखकर खिलखिला कर हंस पड़ी थी ।
इस प्रकार वह जीवन में इतना अपमानित कभी नहीं हुआ था । इसीलिए उसने उसी दिन 'इंस्टॉलमेंट' पर कार खरीद ली और वह चाहता है कि चौधरी विशंभर सहाय कुछ कम नहीं है । उसके पास कार है । यह प्रभा और कमला को दिखाना चाहता है ।इसीलिए ₹300 की आवश्यकता है । आज वह दो महीने से प्रभा और कमला के घर की ओर कार लेकर जाता है, लेकिन कमला और प्रभा से मिल नहीं पा रही है । उन्हें गली-गली ढूंढने पर भी मुलाकात नहीं हो रही है इसीलिए वह चाहता है कि एक बार प्रभा और कमला ने उसे कार में बैठा देख लिया तो बस उसके 2 दिन में ही कार बेचना चाहता है ।
इस प्रकार कहानीकार ने मध्यवर्गीय परिवार पर करारा व्यंग्य किया है । जो अपनी झूठी शान और शौकत को दिखाने की चेष्टा करते हैं । यहां तक कि अपनी शान शौकत बनाए रखने के लिए वे कर्ज लेते हैं, ब्याज लेते हैं और उच्च विभूषित दिखाने की चेष्टा करते हैं । वे अपनी औकात को भी भली-भांति जानकर भी केवल दिखावा करते हैं । ऐसे लोगों का इस कहानी में चित्रण किया है ।अपने संबंध में अभास करने वालों में जो खोची प्रवृत्ति है उन पर कड़ा व्यंग्य किया गया है । अपने असलियत को भूल कर दिखावा करनेवाले लोगों पर कड़ा व्यंग किया है ।
अपने कॉलेज की कमला और प्रभा ने चौधरी विशंभर सहाय को एक घटिया एक्के में बैठने के कारण ही वह कार खरीद कर लाता है और उन्हें कार में बैठा दिखाना चाहता है इसीलिए बार-बार उनकी गली में कार लेकर घूमने पर भी वे दोनों नहीं मिलती है । इस प्रकार इस कहानी में झूठी शान शौकत और बड़प्पन के लिए तड़पनेवाले तरसने वाले ऐसे मध्यवर्गीय लोगों का चित्रण इस कहानी में किया गया है ।
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