छायावादी कविता की विशेषताएँ एवं कवि परिचय
छायावाद (1920 से 1935 ई.)
पृष्ठभूमि
छायावाद का
नामकरण
हिंदी
काव्य की प्रमुख प्रवृतियों में छायावाद नाम की काव्य धारा है। बीसवीं शताब्दी के द्वितीय
दशक में मुकुटधर पांडेय ने हिंदी में छायावाद नामक एक निबंध लिखा। यह निबंध 'श्री शारदा'
नामक पत्रिका में 1920 में प्रकाशित हुआ उन्होंने उसमें छायावाद को अंग्रेजी के मिस्टिसिज्म
के अर्थ में प्रयुक्त किया था। ऐसा ही एक लेख श्री सुशील कुमार ने 'सरस्वती' (1921) नामक पत्रिका
में लिखा था। इन लेखकों ने उस समय की काव्य प्रवृत्ति को छायावाद नाम उस पर व्यंग्य
करने के लिए दिया था, पर यह नाम छायावादी कवियों को बाद में व्यंग्य न लगकर बड़ा पसंद
आया और उन्होंने इस नाम का स्वागत किया । तब से व्यंग के रूप में व्यक्त छायावाद का नाम
इस तरह के काव्य प्रवृत्ति के लिए प्रयुक्त होने लगा । आचार्य रामचंद्र शुक्ल छायावाद
का प्रवर्तक मुकुटधर पाण्डेय को मानते हैं ।
छायावाद की
परिभाषा
जयशंकर प्रसाद
ने "अपने भीतर से पानी की तरह अंतर स्पर्श करके भाव समर्पण करने वाली अभिव्यक्ति
को छायावाद का नाम दिया है ।"
प्रसाद की इस परिभाषा
में भीतर से पानी की तरह से अभिप्राय अत्यंत गहराई की बात सोचना है।
महादेवी वर्मा
ने भी छायावाद की परिभाषा दी है। उनके अनुसार "सृष्टि के बह्यकार का इतना कुछ लिखा
जा चुका था कि मनुष्य का हृदय अभिव्यक्ति के लिए रो उठा स्वच्छद छंद में चित्रित उन
मानव की अनुभूतियों का नाम छायावाद उपयुक्त ही था और मुझे तो आज भी उपयुक्त लगता है
।"
डॉ रामकुमार वर्मा
ने छायावाद की परिभाषा इस प्रकार दी है- "परमात्मा की छाया आत्मा में पड़ने लगी
और आत्मा की छाया परमात्मा में यही छायावाद है।"
डॉ. नागेन्द्र
"छायावाद को स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह" मानते हैं ।
इस प्रकार अनेक
कवियों ने छायावाद की परिभाषा दी है - उनमें नंददुलारे बाजपेई, शांतिप्रिय द्विवेदी,
आचार्य रामचंद्र शुक्ल आदि।
छायावादी कविता
की विशेषताएँ
1) आत्माभिव्यक्ति/
व्यक्तिवाद की प्रधानता
छायावादी कविता
द्विवेदी युगीन कविता की प्रतिक्रिया के रूप में सामने आई है। द्विवेदी युग में कवि
जीवन और जगत के सम्बन्ध में वर्णन करता था। उसकी अभिव्यक्ति में यथार्थ का चित्रण भी
उभरा है। छायावाद में यह विचार त्याग दिए हैं । छायावादी कवि आत्मा की ओर उन्मुख हुआ
। वह अपने निजीपन को लेकर चलता है। इसी कारण प्रसाद जब अपना परिचय "परिचय"
नामक कविता में देते हैं तो उसमें कवि की आत्माभिव्यक्ति है -
"उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊ मधुर चांदनी
रातों की ।
अरे खिल-खिलाकर हँसते होनेवाली उन बातों
की ।
मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्वप्न देखकर
जाग गया ।
आलिंगन में आते-आते मुस्काकर जो भाग गया
।"
इसी प्रकार सुमित्रानंदन
पंत ने 'ग्रंथि' में जो वर्णन किया है उसमें उनकी आत्माभिव्यक्ति है । निराला की 'सरोजस्मृति'
कवि की आत्माभिव्यक्ति है ।
"निराला ने लिखा-
"मैंने मैं शैली अपनाई
देख एक दुखी निज भाई
दुख की छाया पड़ी ह्रदय उमड़
में झट उमड़ वेदना आई।"
2) नारी के
प्रति उदात्त भाव
छायावादी काव्य
में नारी के प्रति उदात्त भावों की अभिव्यंजना हुई है । रीतिकाल में नारी के विलास के
गीत गाए जा चुके थे । भारतेन्दु और द्विवेदी युग के सुधार काल में नारी की समस्याओं
के भाव मुखरित किये गये हैं । नारी का नारीत्व छायावादी कवियों को बहुत भाया हैं । उन्होंने
नारी के प्रति सहानुभूति रखने के साथ-साथ उसमें पाये जानेवाले दया, ममता, समर्पण,
सहिष्णुता, प्यार आदि उच्च गुणों का अनुसन्धान किया है । इस सम्बन्ध में सबसे अच्छे भाव जयशंकर
प्रसाद के अपने 'कामायनी' नामक काव्य में व्यक्त किये हैं ।
"नारी ! तुम केवल श्रद्धा हो !
विश्वास रजत नग-पद तल में
पियूष स्रोत सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में ।"
3) श्रृंगारिकता
/ नारी का सौंदर्य एवं प्रेम का चित्रण
छायावादी काव्य
में कवि की अभिव्यंजना श्रृंगारिक है । इस
काव्य में बहुत अधिक श्रृंगार वर्णन है । पर यह श्रृंगार स्थूल नहीं सूक्ष्म है । इसमें
या तो मांसलता है ही नहीं या बहुत कम मिलती है । इसमें उपभोग की लालसा नहीं है । इसमें
विस्मय पाया जाता है । कवि कल्पना के पंखों से उड़ता है । कहीं नारी के अंग-प्रत्यंगों
के सौंदर्य पर वह रीझता है तो वहीँ उसे अपनाने के लिए नहीं भागता है, उस सौंदर्य
की उपासना करता है । इसलिए डॉ. नगेन्द्र ने कहा है -
"छायावाद में श्रृंगार के प्रति उपभोग
का भाव न मिलकर विस्मय का भाव मिलता है ।"
छायावादी कवि का
नारी चित्रण अपेक्षाकृत सूक्ष्म और श्लील है । इसमें स्थूलता और नग्नता प्राय ना के बराबर
है -
"नील परिधान बीच सुकुमार, खुल रहा
मृदुल अधखुला अंग।"
"खिला हो जो बिजली का फूल, मेघ बन
बीच गुलाबी रंग।"
४)प्रेमानुभूति
श्रृंगारिकता के
प्रसंग में प्रेमानुभूति का आना भी स्वाभाविक है । यहाँ केवल नारी का प्रेम है । उस
नारी की अनेक बातें कवि के भावों को जन्म देनेवाली है । इसलिए कवियों ने खुले हृदय
से अपने प्रियसी के सौंदर्य, वस्त्राभूषण, स्वाभाव और कार्य आदि की ऐसी व्यंजना की
है जो प्रेम की पंक्ति में अत्याधिक महत्वपूर्ण है ।
इसी प्रकार के
वैयक्तिकता प्रेम की व्यंजना अन्य छायावादी कवियोंने भी की है । प्रसाद का 'आँसू' काव्य
प्रेम की अभिव्यक्ति का काव्य है।
5) वैयक्तिकता
इनके प्रेम की
एक विशेषता वैयक्तिकता है । हिंदी के अनेक श्रृंगारी कवियों ने प्रेम का वर्णन किया
है । किन्तु स्वच्छंद प्रेम-मार्गी कवियों को छोड़कर सब ने किसी राधा, पद्मिनी, उर्मिला
आदि को ही माध्यम बनाया है । जब कि छायावादी कवियोंने अपनी प्रेमानुभूति की अभिव्यंजना
की है । इनका प्रेम अत्यंत सूक्ष्म हैं । यही कारण है कि इसमें मिलन की अनुभूति कम
है, विरह का रूदन अधिक है । प्रेम निरूपण के क्षेत्र में इन्हें सबसे अधिक सफलता विरहानुभूतियों
की व्यंजना में ही मिलती है ।
6) विरहानुभूति
छायावादी कवियों
के उद्गारों में विरह हैं, जैसे
"विस्मृत हो वे बीती बातें अब जिनमें
कुछ सार नहीं
वह जलती छाती न रही, अब वैसा शीतल प्यार
नहीं।"
उपर्युक्त विरह
वर्णन वेदनानुभूतियों से ओत-प्रोत है। विरही हृदय की पीड़ा स्वतः ही मुखरित होती है।
प्रसाद के करुण हृदय में विरह की रागिनी बजती है ।
7) प्रकृति
वर्णन
छायावादी काव्य
में प्रकृति वर्णन की प्रचुरता है । इस प्रकृति वर्णन में सब से बड़ी बात यह है कि प्रकृति
चेतन रूप में वर्णित की गयी है। प्रकृति की सुंदरता और प्रकृति के पदार्थ जैसे कि सचेत
है, प्रकृति सजीव है । वे जीवित प्राणी की तरह वर्णन में आयी हैं । निराला की 'जूही की
कली' का ही उदाहरण देखें तो वह प्रकृति-चित्रण के साथ-साथ पुरुष और नारी के संगम चित्रण
है ।
"सोती थी
जाने कैसी प्रिय आगमन वह
नायक ने चूमे कपोल
डोल उठी वल्लरी की जड़
जैसे हिंडोल।"
निराला की 'तुम
और मैं' कविता
"तुम उतुंग हिमालय शृंग और मैं चंचल
गति सुर सरिता।"
8) दुःख एवं
वेदना
मानव जीवन के दुःख
और उसकी वेदना का वर्णन इस काव्य में स्थान-स्थान पर वर्णित हुआ है । भावुक कवि दुखी
जीवन को देखकर उसके प्रति करुणा करने लगता है । ऐसी वेदना एवं छायावादी कवियों के हाव-भाव
पाठक की भावनाओं से बड़ी सहजता से मेल खाता है । जीवन की पीड़ा उसकी पीड़ा होती है । उसी
पीड़ा को देखकर उसे अपने जैसी समझकर उस अभिव्यक्ति से पाठक प्रभावित होता है ।
9) अलौकिक प्रेम
छायावादी कवियों
ने अपने काव्य में अलौकिक प्रेम की बहुत सुंदर अभिव्यंजना की है । पहले इन्होंने प्रकृति
की ओट में शृंगार अभिव्यक्ति की, इससे काम नहीं चला तो कवि अध्यात्म का आश्रय लेकर
रहस्यवादी बन गए । अतः वे कबीर, दादु दयाल आदि की तरह ईश्वर से अनुराग करने लगे । प्रसादजी
ने पहले 'आँसू', 'प्रेम पथिक' में लौकिक प्रेम
की अभिव्यक्ति की थी । अब उसे अलौकिक प्रेममय बना डाला है । रहस्यवादी कवि लौकिक से
अलौकिक की ओर स्थूल से सूक्ष्म की ओर दौड़ता है । सच्चा रहस्यवादी कवि 'गुंजन' के कवि
की भाँति उसकी आत्मा स्वयं ही किसी के घर बसाने के लिए भावी पत्नी की प्रतीक्षा में
नहीं बैठता है । फिर भी छायावादी कवियों ने ईश्वर के प्रति जिज्ञासा अवश्य प्रकट की है ।
10) कल्पना
का महत्व
छायावादी काव्य
कल्पना की दुनिया है । अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए जीवन और जगत के बारेमें कल्पना
भरे चित्र बड़ी ही विविधता के साथ प्रस्तुत करते हैं । कवि की कृतियाँ सूक्ष्म भावों
से युक्त होने के कारण कल्पना से ही ज्यादा युक्त है । कवि ने जो भी भावी पत्नी के प्रति
अपने भाव व्यक्त किए है वह एकदम ही कल्पना है ।
डॉ. नगेन्द्र ने
इस अभिव्यक्ति को कल्पना और मनोमय कहा है । जयशंकर प्रसाद ने इस प्रकार से अपने काव्य
में कल्पना की है, कि मनु इस प्रकार बैठी है जैसे कोई तरुण तपस्वी हो, उनके जैसे लंबे
देवदार के दो चार वृक्ष खड़े हैं । श्रद्धा के रूप की कल्पना इस प्रकार से की है जैसे
नीले बादल के बच्चे चंद्रमा के पास आए हो । यह सब कवि की कल्पना है । इड़ा के रूप का
वर्णन इस प्रकार किया है ।
"बिखरी अलकें जो तर्क जाल" यह भी कल्पना है ।
"बिखरी अलकें जो तर्क जाल" यह भी कल्पना है ।
11)मानवतावादी
भावनाओं का वर्णन
कल्पना के साथ-साथ
छायावादी कवियों का काव्य मानवतावादी भावनाओं से युक्त है । पंत ने भी अपने मानवतावादी
विचारों द्वारा समाज में एक विशेष महत्ता प्रदान की है । प्रसाद ने भी अपने काव्य में
मानवतावादी भावनाओं का प्रयोग किया है -
"सुंदर है विहग सुमन सुन्दर
मानव तुम सबसे सुन्दरतम।"
मानव मात्र के
प्रति प्रेम,समस्त राष्ट्र के प्रति प्रेम, विश्व के प्रति प्रेम आदि इन नई-नई भावनाओं
की अभिव्यक्ति इस काव्य में हुई है । ये भावना छायावादी कवियों की मानवतावादी दृष्टि
को स्पष्ट रूप से मुखरित करती है ।
12) प्रतीक
योजना
छायावादी काव्य
की एक महती विशेषता प्रतीक-योजना है । कवि विभिन्न प्रतीकों के द्वारा अपनी बात कहता
है । इससे कथन में वक्रता आ जाती है । इस सम्बन्ध का उदाहरण यहाँ दृष्टव्य है -
"निशा की धो देता राकेश
चांदनी में जब अलकें खोल
कली से कहता था मधुमास
बता दे मधु मदिरा का मोल।"
यहाँ पर निशा,
राकेश, कली, मधुमास आदि के माध्यम से नायक-नायिका के प्रेम की अभिव्यंजना की है । प्रकृति
के ये पदार्थ उपमान नहीं है प्रतीक है । छायावाद की प्रमुख कवयत्री महादेवी वर्मा इनके
माध्यम से अपनी बात कहना चाहती है ।
13) बिम्ब योजना
छायावादी कवियों
ने अपने काव्य में बिम्ब का प्रयोग अत्यंत सफलता के साथ किया है । बिम्ब 'इमेज' को
कहते हैं । कवि जब शब्दों द्वारा ऐसा चित्र
उपस्थित करता है कि इन्द्रियों के सामने वर्ण्य विषय का एक चित्र उपस्थित हो जाता है,
जिसे कि कवि जो भी लिखता है उसे पढ़ने से पाठक के संमुख वही चित्र उपस्थित हो जाता है । जिसे कि वह पाठक के सम्मुख प्रस्तुत करना चाहता है । पाठक उससे तादात्म्य स्थापित कर
लेता है । और उसका उसके साथ साधारणीकरण हो जाता है । यह बिम्ब कहीं पर श्रोत बिम्ब होता
है, कहीं पर नेत्र, कहीं पर घ्राण और कहीं स्पर्श आदि भी बिम्ब होते हैं । बिम्बों
के बहुत उदाहरण छायावादी काव्य में मिलते हैं । निचे श्रोत बिम्ब का उदाहरण प्रस्तुत
है ।
"झम-झम-झम-झम मेघ बरसते रे सावन के
छम-छम-छम गिरती बूंदे तरुओं से छन के ।"
महत्व
विषय की दृष्टि
से अलौकिक न होने पर भी यह काव्य श्रेष्ठ है । छायावाद इसीलिए भी श्रेष्ठ है कि उसने
मानव को महत्ता दी है । 20 वर्षो की छोटी-सी अवधि में इसने खड़ी बोली को सरस, सुकुमार
और सौष्ठव संपन्न कर के काव्य उपयुक्त बना दिया है । काव्य में व्यक्तिवाद और गीति तत्व
की प्रतिष्ठा इस धारा की अनुपम देन है । डॉ नगेंद्र ने कहां है -" इस कविता का गौरव
अक्षय है। उसकी समृद्धि की क्षमता केवल भक्ति काव्य ही कर सकता है । वस्तुत आधुनिक हिंदी
काव्य को सुंदर शब्दकोश और कोमल मधुर अनुभूतियां छायावाद की ऐतिहासिक देन हैं ।(डॉ देवराज
) यह सत्य है कि छायावाद आधुनिक हिंदी साहित्य में एक महान आंदोलन के रूप में आया।
भाव तथा शैली जगत में एक जबरदस्त क्रांति उपस्थित की ।
छायावाद
/ स्वछंदतावाद के प्रमुख कवि और काव्य
जयशंकर प्रसाद,
सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला तथा महादेवी वर्मा यह छायावाद के आधार
स्तंभ माने जाते हैं। इनके आलावा रामकुमार वर्मा एवं माखनलाल चतुर्वेदी छायावाद के
प्रमुख कवि हैं । छायावाद के महासागर में और भी अनेक कवियोंने योगदान दिया है, जिसमें
भगवती चरण वर्मा, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सुभद्रा कुमारी चौहान एवं रामनरेश त्रिपाठी
आदि का नाम उल्लेखनीय है । छायावादी युग की काव्य धारा के समकालीन हरिवंश राय बच्चन,
रामधारी सिंह दिनकर तथा अंचल आदि भी विशेष उल्लेखनीय है ।
1) जयशंकर प्रसाद ( सन1889 -1937)
छायावादी काव्य
के श्रीगणेश करता माने जाते हैं। प्रसाद आरंभिक काल में ब्रज भाषा में कविता लिखा करते
थे किंतु 1913 -14 से उन्होंने खड़ी बोली में लिखना आरंभ कर दिया था। उनकी ब्रजभाषा
संबंधी कविताओं का संग्रह 'कानन कुसुम' 'महाराणा
का महत्व' 'करुणालय' और 'प्रेम प्रतीक' प्रकाशित हुए । इन रचनाओं में न तो कोई खास
साहित्यिक प्रौढ़ता है और न ही छायावादी प्रवृतियाँ उपलब्ध होती है । 1913 में उनका काव्य
'झरना' प्रकाशित हुआ। प्रसाद का 'कामायनी' छायावादी युग का महाकाव्य है। छायावाद की
प्रवृतियाँ सर्वप्रथम प्रसाद जी की इस कृति
में प्रकट हुई, किंतु वह भी कोई परिपक्व रूप में नहीं हां 1927 में जो इसका द्वितीय
संस्करण निकला उसमें छायावाद का स्वरूप यथेष्ट मात्रा में उभरा हुआ था । 1930- 32 के
राष्ट्रीय आंदोलन के दिनों में इनके 'आंसु' काव्य का प्रकाशन हुआ । जिसे प्रसाद जी की
छायावाद के संबंध में अत्यंत प्रौढ़ रचना समझना चाहिए ।'आंसू' में प्रसाद ने प्रेम वेदना
की एक दिव्य झांकी प्रस्तुत की है।
2) सुमित्रानंदन
पंत (1919)
सुमित्रानंदन पंत
कोमल भावनाओं के कवि है । इन्हें प्रकृति का सुकुमार कवि कहा जाता है। वे अपनी सौंदर्य-दृष्टि
और सुकुमार उदात्त कल्पना के लिए अत्यंत प्रसिद्ध हैं। कवि पन्त की रचनाओं का प्रकाशन
इस क्रम में हुआ
वीणा (1918 ) ग्रंथि
(1920) पल्लव (1918 -24 ) गुंजन (1932) युगांतर
(1948 ) युगवाणी (1936) ग्राम्या (1939 -40 ) स्वर्ण किरण (1947) कला और बूढ़ा
चाँद (1959)
3) सूर्यकांत
त्रिपाठी निराला (सन1900-1957)
आधुनिक युग के
नए कवियों में महाप्राण निराला सदा निराले रहे । निराला ने सन 1915 से कविता लिखना
आरंभ कर दिया था, किंतु उनका प्रथम काव्य संग्रह 'परिमल' सन 1929 में प्रकाशित हुआ। 'सरोज स्मृति' उनकी लंबी कविता
है । इनके अन्य काव्य हैं - अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अनिमा, बेला, नए पत्ते,
अर्चना और आराधना 'परिमल ' और अनामिका में प्राय: छायावाद की सभी प्रवृतियां देखी जा
सकती है । तुलसीदास के पश्चात निराला जी प्रगतिवाद से प्रभावित दिखाई पड़ते हैं। अतः
बाद की रचनाओं में छायावाद लुप्त हो गया है । जयशंकर प्रसाद को छायावाद का ब्रह्मा स्वीकार
किया जाता है । उनके काव्य की दो प्रवृतियाँ - प्रकृति चित्रण और रहस्यात्मकता को
क्रम से पंत और निराला ने विकासोन्मुख किया । अतः यह कहा जा सकता है कि छायावाद को अद्वैतवाद
दर्शन की दृढ़ भित्ति पर स्थित करने का सर्वाधिक श्रेय निरालाजी को है ।
4) महादेवी
वर्मा ( सन 1907-1987)
सजल गीतों की गायिका
महादेवी वर्मा आधुनिक युग की मीरा कहीं जाती है । इनकी कविता संगीत कला, चित्रकला तथा
काव्य कला का अपूर्व समन्वय है । हिंदी साहित्य की कविताओं में तो देवी जी का स्थान
सर्वश्रेष्ठ है । साथ ही इनमें आधुनिक रहस्यवाद तथा छायावाद की सभी प्रमुख प्रवृत्तियां
अत्यंत सुंदर तथा उभरते हुए रूप में मिलती है । महादेवी वर्मा की रचनाएं हैं - नीहार,
रश्मि, निरजा और सांध्य-गीत, दीपशिखा और यामा ।
5) रामकुमार
वर्मा (सन1905 -1990)
इनके काव्य में
प्रकृति प्रेम, रहस्यवाद, वेदना, निराशा तथा समाज की विशेष अपेक्षा न रखने वाला व्यक्तिवाद
और प्रवृतियां मिलती है। इनके रहस्यवाद पर कबीर आदि रहस्यवादी कवियों का प्रभाव है
तथा उसमें निराशा का तीव्र स्वर है। कवि की विरहिणी आत्मा प्रिय मिलन के लिए व्याकुल
है। इनकी प्रमुख रचनाएं हैं - अंजलि, रूप राशि, चित्तौड़ की चिता, अभिशाप, निशिथ, चित्ररेखा
और संकेत आदि।
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