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Showing posts from November, 2025

प्रयोगवादी कविता की विशेषताएँ / प्रवृतियाँ

प्रयोगवद (1943 से 1950) प्रयोगवादी कविता की विशेषताएँ प्रस्तावना बीसवी शताब्दी के उत्थान-काल में मानव-जीवन के मूल्यों में विशेष परिवर्तन दिखाई देता है। युद्ध की विभीषिकाओं से त्रस्त समाज था। उसकी मान्यताएं उस मानव की मान्यताओं से भिन्न हुई जिसने ऐसे त्रास को नहीं देखा, जिसने ऐसी वैज्ञानिकता को नहीं देखा, जिसने ऐसे नग्न यथार्थ को नही देखा । सामाजिक, राजनैतिक परिस्थिति के उहापोह में साहित्यकार भी बदला । उसके दृष्टिकोण में नयापन आया। वैसे तो कोई कविता त भी वास्तविक कविता कहलाती है   ज ब वह नई हो, पर आजकल नई कविता का विशेषण एक खास सामाजिक परिवेश के मानव की खास तरह की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति करनेवाला स्वर है। आरम्भ में अज्ञेय ने 'तारसप्तक' के सात कवियों को नये कवियों के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने का प्रयत्न किया और उसे प्रयोगवाद की संज्ञा दी। अपने को ' रा हो का अन्वेषी' कहा और नए प्रयोग करने पर प्रयत्नशील हआ।   कुछ विद्वान प्रयोगवाद और नयी कविता को एक ही मानते हैं। और कुछ लोग अति आधुनिक कविता को नयी कविता का नाम देते हैं। इस सम्बन्ध में एक बात ध्यान देने योग्...

नयी कविता की विशेषताएँ ( सन 1950 से 1960 )

न यी  कविता सन 1950 से 1960 न यी  कविता की विशेषताएं पृष्ठभूमि नयी कविता मूल रूप से तो स्वतंत्रता के पश्चात की बदली हुई मनोस्थिति के भावों की अनुगूंज है। परंतु उसके स्वर में स्वर मिलाने वाले और भी बहुत से बिंदु रेखांकित करने योग्य है । उनमें बहुत सी वे प्रवृत्तियां भी समाविष्ट है जो प्रयोगवादी कविता में आद्योपांत फैली हुई थी।  न यी  कविता की कुछ उल्लेख करने योग्य प्रवृत्तियां इस प्रकार है। 1) संत्रास, कुंठा, घुटन, दर्द, उबकाई जैसे भावों की अभिव्यक्ति नयी  कविता के कवियों का युग उनके मोह भंग का युग है l  स्वतंत्रता से प्राप्त होने वाली आशा आकांक्षाओं का सपना अब टूट चुका था l  व्यक्ति ने बढ़ती हुई बेरोजगारी, अत्याचार, अनाचार में जीवन जीने की विवशता को स्वीकार लिया था l इसीलिए उनको अपने को समुचित रूप में ना देखने से संत्रास पैदा होता चला गया l  उनके मन में दुख और दुख तथा दर्द और दर्द के दंश तरह-तरह की कुंठाओं को पैदा किया । वह जिस वातावरण में रह रहा था उससे वह उबने लगा। मन ही मन घुटन का अनुभव करने लगा । उस असहनीय परिस्थिति और परिवेश से उसे एक तरह से ...

प्रगतिवादी कविता की विशेषताएँ ( प्रगतिवाद 1936 -38 से 1943)

प्रगतिवादी कविता की विशेषताएँ प्रगतिवाद 1936 -38 से 1943  प्रस्तावना:-  प्रगतिवाद हिंदी साहित्य की एक काव्य धारा का नाम है l  इसका अर्थ है आगे बढ़ना l  जो साहित्य आगे बढ़ने में विश्वास रखता है, आगे बढ़ने में सहायक है, उसे प्रगतिवादी कह सकते हैं l अंग्रेजी प्रोग्रेसिव का हिंदी अनुवाद प्रगतिवाद है l सन 1935 ई में ई.एम. फॉस्टर के सभापतित्व में पेरिस में प्रोग्रेसिव एसोसिएशन नामक अंतरराष्ट्रीय संस्था का प्रथम अधिवेशन हुआ था l सन 1936 में सज्जाद जहीर और मुल्क राज आनंद के प्रयत्नों से भारत में इस संस्था की शाखा खुली और प्रेमचंद की अध्यक्षता में लखनऊ में इसका प्रथम अधिवेशन हुआ l  आधुनिक संदर्भ में प्रगतिवाद एक विशिष्ट अर्थ का द्योतक है छायावाद की सूक्ष्मता और कल्पना को त्याग कर जीवन और जगत के धरातल पर अपनी भावाभिव्यक्ति करने वाला आज का कवि प्रगतिवादी कहा जा सकता है l इस तरह यह प्रगतिवाद एक विशेष ढंग का और एक विशेष दिशा का द्योतक है l उसकी एक विशिष्ट परिभाषा है l  डॉ नगेंद्र के शब्दों में इस परिभाषा का आधार द्वंद्वात्मक भौतिकवाद है l प्रगतिवादी कविता साहित्य ...

छायावादी कविता की विशेषताएँ एवं कवि परिचय

छायावाद (1920 से 1935 ई.) पृष्ठभूमि छायावाद का नामकरण  हिंदी काव्य की प्रमुख प्रवृतियों में छायावाद नाम की काव्य धारा है। बीसवीं शताब्दी के द्वितीय दशक में मुकुटधर पांडेय ने हिंदी में छायावाद नामक एक निबंध लिखा। यह निबंध 'श्री शारदा' नामक पत्रिका में 1920 में प्रकाशित हुआ उन्होंने उसमें छायावाद को अंग्रेजी के मिस्टिसिज्म के अर्थ में प्रयुक्त किया था। ऐसा ही एक लेख श्री सुशील कुमार ने 'सरस्वती' (1921) नामक पत्रिका में लिखा था। इन लेखकों ने उस समय की काव्य प्रवृत्ति को छायावाद नाम उस पर व्यंग्य करने के लिए दिया था, पर यह नाम छायावादी कवियों को बाद में व्यंग्य न लगकर बड़ा पसंद आया और उन्होंने इस नाम का स्वागत किया । तब से व्यंग के रूप में व्यक्त छायावाद का नाम इस तरह के काव्य प्रवृत्ति के लिए प्रयुक्त होने लगा । आचार्य रामचंद्र शुक्ल छायावाद का प्रवर्तक मुकुटधर पाण्डेय को मानते हैं । छायावाद की परिभाषा जयशंकर प्रसाद ने "अपने भीतर से पानी की तरह अंतर स्पर्श करके भाव समर्पण करने वाली अभिव्यक्ति को छायावाद का नाम दिया है ।" प्रसाद की इस परिभाषा में भीत...

हिंदी उपन्यास अर्थ, परिभाषा और विकास-क्रम

  हिंदी उपन्यास का विकास-क्रम   हिंदी साहित्य के विभिन्न विकासात्मक आधुनिक युग को गद्य  के रूप में पहचाना जाता है । हिंदी साहित्य के विकास में आधुनिक काल महत्वपूर्ण रहा है । यह यु ग गद्य की प्रतिष्ठा के रूप में पहचाना जाता है । इस युग में हिंदी साहित्य के अन्य विधाओं के साथ ही उपन्यास की भी रचना हुई । आधुनिक युग में गद्य की नवीन विधा एं निर्माण हुई । उनमें उपन्यास विधा पाठकों के दृष्टि से महत्वपूर्ण रही है । इसके संबंध में विचार करने पर उपन्यास शब्द की उत्पत्ति देखना आवश्यक हो जाता है । उपन्यास शब्द की उत्पत्ति   उप+ न्यास = उपन्यास इस तरह से हुई है । उ प का अर्थ है ' समीप ' ( नजदीक ) और ' न्यास ' का अर्थ है ' वस्तु ' । इसे एकत्रित करने पर इसका अर्थ हुआ समीप   रखी हुई वस्तु । अर्थात ऐसी वस्तु जो अपने निकट रखी गई हो । अंग्रेजी में इसे नॉवेल शब्द है । यह लैटिन भाषा से आया हुआ है । उपन्यास के लिए प्रचलित रहा है । इतना ही नहीं संस्कृत अंग्रेजी कोश में भी कथा , परीकथा , आख्यान आदि शब्द प्रोयोग हुए हैं । गुजराती में इसे ' नवलक...