कुछ फर्क हुआ
क्या लगता है
इतने दिनों में
तालाबंदी से
फर्क पड़ा कुछ
मुझ पर तो नहीं
तुझ पर भी नहीं
क्यों कि तुम और मैं
छुटियाँ मना रहे थे
पकोड़े खा रहे थे
रोज सुबह उठकर
चाय की चुस्की के साथ
सुन रहे थे न्यूज़
कोरोना की ।
अच्छा क्या तुम मानवीय
या बहुत संवेदनशील हुये?
मुझमें कहाँ इतनी जागी
कहाँ बदलता है मनुष्य
तुम्हारे और मेरे जैसा
बस्स थोड़ा डर लगता है
ऐसे में मृत्यु का और
कोशिश करते हैं
संवेदनशील होने की ।
फ़र्क उस पर पडा होगा
जिसे पानी नहीं मिला
रोटी नहीं मिली
जो भूख से तड़पा होगा
जो हजोरों मिल
पैदल चलकर गया होगा
तपती गर्मी की धूप में
चलने से
छाले पड़े होंगे पैरों में
जो बेबस, बेसहारा
असहाय , दुर्बल है ।
जिनकी आवाज नहीं पहुँचती
कानों तक सरकार के
वही सरकार
जिनके सामने चुनाव में
दो टुकड़े डालकर
चुनकर आती है ।
जब तुम बोलते हो तो
गूंगी और बाहरी
हो जाती है सरकार ।
नहीं होता असर
तुम्हारे बोलने का ।
सरकार दुम हिलाती है
घुटनों के बल रेंगती है
अमीरों के सामने ।
फर्क पड़ता है उसपर
जिसने यह हालत देखें
उन्हें सोचना होगा कि
इस हालात की वजह
कोरोना नहीं ।
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