मुक्ति
मुक्ति
जब लौटा घर शाम को
लगा चिंता से मुक्त हुआ
थोड़े समय शांति मिली न मिली
अब सुबह जल्दी उठने की चिंता है
और फिर क्रमानुसार उठना है
रोज की तैयारी में जुट जाना है
रोज के कामों की जरूरी चीजें समेटकर
सुबह छः बजे की पहली बस छुटने के पहले
निकलना है घर से
घर से निकलते हैं ऑटो रिक्शा वाले की नजरें
घूरती है मुझको
उन नजरों में होती है आशा सवारी मिलने की
मैं ढूंढता हूं शेयरिंग रिक्शावाला
दो पैसे के लिए हर कोई अपनी जेब बचता है ।
अपने-अपने समय की लोकल पकड़ने हेतु
रास्ता बना कर अनजानी सी भीड़ से
बढ़ जाते हैं आगे और होती है कोशिश सब की
जगह पाने की ट्रेन में
न होने पर लटकते हैं
किसी कड़ी को या कभी रह जाते हैं दरवाजे पर ही
लटकते हुए
किसी पेड़ पर लटकी पतन की तरह
अंदर घुसने पर कभी मिलती नहीं सीट बैठने को
करना पड़ता है इंतजार किसी के उठने का
किसी में नहीं दिखता प्यार, दया, ममता
ऐसे समय में खो जाता हूं मैं भी
इस अनजान भीड़ में
मैं भी खो जाता हूँ निर्जीव भावहीन भीड़ में
हर कोई ढोता है जिंदगी का बोझ
चलती है जिंदगी पटरी पर ट्रैन की तरह रोज
पटरी से उतर जाएगी मिलेगी मुक्ति इस जीवन से
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