कृष्ण भक्ति काव्य के प्रमुख कवि एवं विशेषताएँ
कृष्णभक्ति काव्य
शंकराचार्य के मायावाद के विरोध में जो आचार्य सामने आए उनमें वल्लभाचार्य का विशेष स्थान है। अलवार भक्तों ने भक्ति का मार्ग दक्षिण में प्रशस्त किया था। अभीर जाति के लोगों में बाल गोपाल की उपासना प्रचलित थी। वल्लभाचार्य ने अपना सारा जीवन उत्तर भारत में व्यतीत किया। यह भागवत सम्मत वैष्णव धर्म के अनुयाई थे। उन्होंने यह माना है कि श्री कृष्ण ही परब्रह्म है। वह सत चित और आनंद स्वरुप हैं। वह लीला करने के लिए ब्रज में अवतरित होते हैं। वल्लभाचार्य का दार्शनिक सिद्धांत शुद्धाद्वैतवाद कहलाता है। शुद्धाद्वैत का अर्थ है शुद्ध अद्वैत (यानी वह जो ब्रह्म है वह माया के संबंध से रहित है) इसीलिए शुद्ध है।
वल्लभाचार्य की भक्ति को उनके पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ ने और आगे बढ़ाया। उन्होंने इस संप्रदाय को देश के विभिन्न भागों में फैलाया। इन्होंने ही अष्टछाप की स्थापना की जिसके कवियों का गौरव कृष्ण भक्ति साहित्य का विस्तार करने में देखा परखा गया है। इस परंपरा का हिंदी भक्ति साहित्य में बहुत विकास हुआ है। हिंदी का कृष्ण भक्ति शाखा का काव्य उसका उदाहरण है। कृष्ण भक्त कवियों का संक्षिप्त विवरण यहां पर दिया जाता हैं।
1) सूरदास
सूरदास कृष्ण भक्ति शाखा के सबसे प्रसिद्ध कवि हुए हैं। इनके जन्म और मृत्यु के संबंध में निश्चय पूर्वक कहना कठिन है। विद्वानों ने इन के जन्म कि अपने-अपने मतानुसार अनेक तिथियां बताई है। अधिकतर मान्यता यह है कि इनका जन्म सवंत 1535 में हुआ था पुष्टि संप्रदाय की मान्यता के अनुसार सूरदास जी वल्लभाचार्य से आयु में 10 दिन छोटे थे और वल्लभाचार्य की जन्म तिथि सवंत 1535 में निश्चित है। इनकी मृत्यु की तिथि 1642 या 1640 1620 मानी जाती है। आचार्य शुक्ल ने सवंत 1620 की मृत्यु मानी है। अष्टछाप कृष्ण भक्ति काव्य के संदर्भ में अष्टछाप के कवियों का महान महत्व है। यों तो यह आठों कवि अपनी अपनी जगह महत्वपूर्ण है फिर भी विद्वानों ने काव्य कला की दृष्टि से इन का क्रमबद्ध बतलाने की चेष्टा की है और उस क्रम के अनुसार ये आठों कवि इस प्रकार है
1) महात्मा सूरदास 2) परमानंद दास 3) नंददास 4) कुंभनदास 5) चतुर्भुजदास 6) कृष्णदास 7) छित स्वामी 8) गोविंदस्वामी अष्टछाप के इन कवियों में चार कवि वल्लभाचार्य के शिष्य थे और उनके नाम यह है सूरदास, कुंभनदास, कृष्ण दास और परमानंद दास और चार कवि वल्लभाचार्य के पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्य थे उन 4 के नाम यह है- नंददास, चतुर्भुजदास, गोविंदस्वामी और छीतस्वामी अष्टछाप के कवि इसलिए कहलाते हैं कि इन आठों पर गोस्वामी विट्ठलनाथ ने अपने आशीर्वाद की छाप लगा दी थी। यह श्रीनाथजी के मंदिर में आठों कवि कीर्तन कार थे। यह अष्ट सखा भी कहलाते हैं। यह कवि कीर्तन के लिए अपने द्वारा बनाए गए पदों को गाया करते थे।
1) सूरदास
सूरदास की सबसे प्रसिद्ध रचना 'सूरसागर' है। कहां जाता है कि यह एक लाख पदों की यह रचना है पर अब उनके लगभग 5000 पद ही सूरसागर के रुप में संग्रह किए गए मिलते हैं । 'सूरसारावली' भी सूरदास की रचना है। इसमें 1107 छंद है विद्वानों ने इसे सूरसागर की भूमिका माना है। इसकी रचना का आधार भी भागवत पुरान है। 'साहित्य लहरी' सूरदास के दृष्ट कूट पदों का संग्रह है। इसमें 108 पद है। यह नायिका भेद और अलंकार निरुपण की रचना है। इसके प्रत्येक पद में नायिका भेद और अलंकार मिलते हैं।
2) कुंभनदास
आचार्य वल्लभ के शिष्यों में कुंभनदास सूरदास से भी पहले हैं। इनका जन्म सन 1468 को गोवर्धन पर्वत के पास 'जमुनावतौ' गांव में हुआ था। उनकी मृत्यु तिथि सन 1583 मानी गई है। यह क्षेत्रीय थे और उनके घर खेती का कार्य होता था। यह विवाहित थे और इनके सात पुत्र थे। इनके कुछ पद 'राग कल्पद्रुम' 'राग रत्नाकर' आदि ग्रंथों में संकलित मिलते हैं। कुंभनदास श्रीनाथ मंदिर के कीर्तनकार थे।
3) परमानंद दास
1यह अष्टछाप के प्रमुख कवि और कीर्तनकार थे। इनका जन्म कन्नौज के एक ब्राह्मण परिवार में सन 1493 ईसवी में हुआ था । इनका परलोक वासन 1583 में लगभग माना जाता है। यह भी वल्लभाचार्य के प्रिय शिष्य थे उनसे अवस्था में 15 वर्ष छोटे थे। उनकी रचनाओं का संग्रह 'परमानंद सागर' के नाम से संग्रहित मिलता है 'परमानंद के पद' भी इनकी एक रचना है। इनके काव्य में विभिन्न अवसरों से संबंध रखने वाले फुटकर पद हैं। इनके काव्य में वात्सल्य रस की अभिव्यक्ति मिलती है।
4) कृष्णदास
कृष्णदास का जन्म गुजरात के चिलोतरा गांव में सन 1496 ई. में हुआ था। वार्ता साहित्य के अनुसार यह कुनबी जाति के थे। यह जाति शूद्रों की एक जाति मानी जाती है। यह बचपन से ही अपना घर बार छोड़कर ब्रज में आ गए थे। यह बड़े कुशल व्यक्ति थे गोस्वामी विट्ठलनाथ ने इन्हें श्रीनाथ के मंदिर में प्रबंध का भाग सौंप रखा था। कृष्णदास का कोई स्वतंत्र ग्रंथ नहीं मिलता इन के 100 से अधिक फुटकर पद मिलते हैं।
5) गोविंदस्वामी
यह गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्य थे और अष्टछाप के कवियों में से एक थे। इनका जन्म सन् 1505 ईस्वी में राजस्थान के आंतरी गाँव में हुआ था। इनकी मृत्यु सन 1550 ईस्वी में हुई थी। इनका बनाया हुआ कोई स्वतंत्र ग्रंथ नहीं मिलता है। 'गोविंदस्वामी के पद' नाम से इनका एक संग्रह है।
6) छीतस्वामी
यह अष्टछाप के एक कवि थे और गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्य थे। इनका जन्म मथुरा के चतुर्वेदी ब्राह्मण कुल में सन् 1515 में हुआ था। इनके घर पंडा का कार्य होता था। इनके बारे में यह प्रसिद्ध है कि अपनी युवावस्था में यह उदंड थे एक बार गोस्वामी विट्ठलनाथ से उपहास करने के लिए इन्होंने एक छोटा रुपैया और थोथा नारियल उन्हें भेज दिया। गोस्वामी विट्ठलनाथ ने अपनी दिव्य दृष्टि से यह सब जान लिया। इनके नाम से स्फुट पदों की पदावली प्रसिद्ध है जिसमें लगभग 200 पद है। इनकी कविता में भक्ति भाव की प्रधानता है और सरल ब्रजभाषा में भाव व्यक्त हुए हैं । इनकी मृत्यु सन 1585 ई. के लगभग हुई थी।
7) नंददास
अष्टछाप के उन कवियों में जो वल्लभाचार्य के पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्य थे नंद दास का महत्वपूर्ण स्थान है। नंद दास ने अपने विषय में कुछ नहीं कहा। उनके जन्म आदि के विषय में पर्याप्त मतभेद है। 'शिवसिंह सरोज' में इनका जन्म सवंत 1585 में बतलाया है। आचार्य शुक्ल ने सवंत 1625 के लगभग उनका कविता काल माना है। इनकी मृत्यु सवंत 1639 में मानी है। 'रासपंचाध्यायी' में भागवत की तरह पाँच अध्यायों में कृष्ण लीला वर्णन है 'भंवर गीत' और 'रासपंचाध्यायी' इनके प्रसिद्ध ग्रंथ है।
8) चतुर्भुजदास
ये 'अष्टछाप' के प्रसिद्ध कवि कुंभनदास के पुत्र थे। गोस्वामी विट्ठलनाथ से पुष्टि मार्ग की दीक्षा ली थी। अष्टछाप के आठ कवियों में इनका भी नाम आता है। इनका जन्म जमुनावती गांव में सन् 1530 में हुआ था। इनके घर कृषि का कार्य होता था। इनका मन कीर्तन भजन में बहुत लगता था। इनका कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं है। 'चतुर्भुज कीर्तन संग्रह' पदों का एक संग्रह है। इनके पदों की भाषा साधारण ब्रज भाषा है। कृष्ण लीलाओं का इन्होंने भी गान किया है । इनकी वाणी में श्रंगारिकता मिलती है।
कृष्ण भक्ति काव्य की विशेषताएं
पृष्टभूमि :- भक्तिकालीन सगुन काव्य के अंतर्गत कृष्ण काव्य का विशेष महत्व है । डॉक्टर हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है 'कृष्ण भक्ति का साहित्य मनुष्य की सबसे प्रबल भूख समाधान करता है। मनुष्य की सरसता को उद्भूत करता है उसकी अंतर्निहित अनुराग लालसा को उर्ध्वमुखी करता है। श्रीमद भगवत की रचना ने कृष्ण भक्ति को ऐसा आकर्षक रूप दिया कि शीघ्र ही उसके साहित्य की परंपरा चल पड़ी। जयदेव के गीत गोविंद की परंपरा ने विद्यापति की पदावली राधाकृष्ण की माधुर्य पूर्ण भक्ति का उत्तम उदाहरण है। वल्लभाचार्य ने कृष्ण काव्य के प्रणय में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने सूरदास आदि कवियों को लीला गान की प्रेरणा दी।
" सूर हौ के काहे घिंघियात ।
कछु प्रभु लीला गावो।"
वल्लभाचार्य के द्वारा प्रचलित पुष्टि मार्ग में होकर सूरदास आदि अष्टछाप के कवियों ने उत्कृष्ट कृष्ण काव्य की रचना की। इसके अतिरिक्त मीराबाई, रसखान रहीम आदि प्रमुख कवि हुए हैं।
1) कृष्ण की भक्ति
कृष्ण भक्ति शाखा के कवियों ने कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति प्रकट की है। यह कृष्ण महाभारत के योगेश्वर कृष्ण के रूप में इनके आराध्य नहीं है। भागवत पुरान में श्रीकृष्ण की भक्ति का व्यापक रुप देखने में आया है उसमें कृष्ण की अनेक लीलाओं का वर्णन द्वारा भक्ति की प्रतिष्ठा की गई है। सूरदास आदि कृष्ण भक्त कवियों ने भागवत के अनुसार श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया है। सूरदास ने अपने 'सूरसागर' में स्पष्ट कहा है। सूरदास की तरह अष्टछाप के अन्य कवियों ने जैसे परमानंद दास, नंददास, कुंभनदास आदि ने कृष्ण की लीलाओं का वर्णन करके अपनी भक्ति प्रदर्शित की है।
2) लोकरंजन रूप
कृष्ण भक्त कवियों ने भगवान की लीलाओं का गान किया है। उनकी लीलाएं आनंद प्रदान करने वाली है। श्रीकृष्ण के ऐसे चरित्र इस काव्य धारा के कवियों ने वर्णित किए है जो उनके लोक रंजक रूप को प्रकट करने वाले हैं । बाल क्रिडा, माखन चोरी, दान लीला, रासलीला, पनघट लीला आदि के माध्यम से सूरदास ने जो अभिव्यक्ति की है वह भक्त और सहृदय समाज का रंजन करने वाली है। जहां कहीं पर कृष्ण के महत्व या असुर संहारक रूप की झांकी इन कवियों ने दी है वहां पर भी कृष्ण के सौंदर्य की अभिव्यक्ति करना भी नहीं भूलते है। सूरदास आदि कवियों ने कृष्ण के लोक रंजक रूप को उभारने वाली ऐसी लीलाएं भी की है जो कवि कल्पना प्रसूत हैं। उन वर्णनों द्वारा कृष्ण का लोक रंजक रूप और अधिक उभर कर आता है। श्रीकृष्ण को माखन चोरी करते समय यशोदा ही स्वयं पकड़ लेती हैं। उस समय रंगे हाथों पकड़े जाकर भी श्री कृष्ण कहते हैं कि मैंने मक्खन नहीं खाया। मेरे मुख से तो मेरे सखाओं ने बरबस लगा दिया है। वे मुख से दधि को पूछ लेते हैं और दोना को पीठ के पीछे छुपा लेते हैं । यशोदा उनकी इस चातुरी को देखकर द्रवित हो जाती है। सूर के शब्दों मैं इसका वर्णन इस प्रकार हुआ है।
"मैया मैं नहि माखन खायौ।
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि मेरे मुख लपटायो।
देखि तू ही सीके पर भाजन, ऊंचे धरि लटकायौ।
हौ जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसे करि पायौ।"
3) भक्ति के विविध रूप
कृष्ण भक्ति काव्य के रचयिता अधिकांश कवि संप्रदाय-विशेष से संबंध रखते थे। उनकी भक्ति उसी संप्रदाय के अनुसार वर्णित हुई है। सूरदास और अष्टछाप के कवि पुष्टिमार्ग में दीक्षित थे। कृष्ण के अनुग्रह वाली भक्ति पुष्टिमार्गीय भक्ति है। सूरदास आदि कवियों ने भगवान के अनुग्रह की पद-पद पर कामना की है। उनकी वह कामना पुष्टीमार्ग की भक्ति के अंतर्गत आती है।
भक्ति के इन विभिन्न प्रकारों में पर्याप्त गहराई देखने में आती हैं। भक्ति के पांच विशिष्ट भाव माने गए हैं। श्रृंगार, साख्य, दास्य,वात्सल्यऔर शांत। अकेले सूरदास के सूरसागर में सभी प्रकार की भक्ति मिल जाती है। सूरदास ने जो विनय के पद लिखे हैं उन में दास्य भाव की भक्ति की निबंधना हुई है।
4)शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धान्त का विरोध
कृष्ण भक्ति काव्य में शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धांत का विरोध पाया जाता है। शंकराचार्य अपने युग के अत्यंत यशस्वी और मेधावी आचार्य हुए थे। उनके विरोध में भक्ति के विभिन्न संप्रदाय उठ खड़े हुए थे। शंकराचार्य की दार्शनिकता को काटने में ही सब ने अपना गौरव समझा था। सूरदास के सूरसागर के भ्रमरगीत प्रसंग में निर्गुण ब्रह्म का खंडन कराकर गोपियों के मुख से सगुन ब्रह्म की प्रतिष्ठा की है। उसके मूल में वही भावना है कि शंकराचार्य की ब्रह्म को एक, अद्वितीय जगत का कारण सर्व व्यापक मानने की बात को काटा जाय। भावना के धरातल पर निराकार को तुच्छ सिद्ध किया गया है। वल्लभाचार्य का सिद्धांत शुद्धाद्वैतवाद कहलाता है। ब्रम्ह माया संबंध से रहित होने के कारण शुद्ध होता है। इसीलिए वह शुद्धाद्वैत है। सूरदास ने शुद्धाद्वैतवाद को अपनाया है।
5) वात्सल्य और श्रृंगार रस
कृष्ण लीला वर्णन के प्रसंग में वैसे तो न्यूनाधिक मात्रा में सभी रसों की अभिव्यक्ति हुई है। पर वात्सल्य और श्रंगार रस वर्णन की दृष्टि से कृष्ण भक्ति साहित्य अद्वितीय है । सूरदास के वात्सल्य और श्रंगार रस का सम्राट कहा जाता है। इसका अभिप्राय यह है वात्सल्य और श्रंगार रस का जैसा विशदता और व्यापकता के साथ वर्णन सूरदास ने किया है कि वैसा अन्यत्र दुर्लभ है और फिर वह ऐसी रस सिक्त वाणी में किया है कि सह्दय का मन मुक्त कर देता है। वात्सल्य वर्णन के प्रसंग में कृष्ण के जन्म के समय के उत्सव और आनंद का सूरदास, कुंभनदास, परमानंद दास आदि कवियों ने अच्छी प्रकार वर्णन किया है। उदाहरण के लिए यशोदा जब श्रीकृष्ण की शोभा को देखती है तो उनकी प्रसन्नता का वर्णन सूर ने जिस शब्दावली में किया है वह सहज ही वास्तविकता की पूर्ण निष्पत्ति करा देने वाला है। जैसे
"सूत मुख देखि जसोदा फूली।
हरषित देख दूध की दंतुलि प्रेम मगन न तन की सुधि भूली। बाहर ते तब नंद बुलाए देखो धौ सुंदर सुखदाई।।
अथवा
"संदेशो देवकी सो कहियो।
हो तो धाय तिहारे सुत की कृपा करत ही रहियो।।
श्रंगार के वियोग पक्ष की मार्मिकता की अभिव्यक्ति भी भ्रमरगीत प्रसंग में ध्यान देने योग्य है। उद्धव पर घटाकर गोपियों ने जिस तरह की उपालंभ भरी उक्तियां कही है वह एक और तो मर्म को छूने वाली है और दूसरी ओर वियोग श्रंगार का अच्छा स्वरूप प्रस्तुत करती है।वियोग की जितनी दशाएँ हो सकती है- अभिलाषा, चिंता, स्मरण, गुण कथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता, मूर्च्छा और मरण वे सब उनके वचनों में मिलती है। कृष्ण के प्रति गोपियों की लालसा के अनेक वचन मिलते हैं। इस तरह का एक उदाहरण दृष्टव्य है-
"अखियां हरि दर्शन की भूखी।
कैसे रहें रूप रस रांची ए बतियां सुन रूखी।
6) प्रकृति चित्रण
कृष्ण भक्ति काव्य में प्रकृति वर्णन पर्याप्त मात्रा में मिलता है। श्री कृष्ण की लीला भूमि ब्रज प्रदेश रही है। ब्रज में ग्रामीण वातावरण है। अतः वहां प्रकृति का साम्राज्य है। कृष्ण भक्ति काव्य में वन, नदी, पर्वत, कुंज, लता, वेली, द्रुम आदि से संबंध रखने वाले अनेक भाव ऐसे व्यक्त हुए हैं जिनमें प्रकृति का अच्छा वर्णन हुआ है। सूरदास ने वर्णन किया है कि गोपियों को श्री कृष्ण के बिना कुंजे शत्रु के समान लगती है। लताएं जलाएं डालती है। शीतल चंद्रमा की किरणों सूर्य के समान दग्ध करती है। इन भावों को निम्नलिखित पद में अच्छी प्रकार वर्णित किया गया है।
"बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजै।
तब यह लता लगती अति सीतल अब भई विषम ज्वाल की पूंजै।"
7) भाषा प्रयोग
भक्ति की इस धारा का स्त्रोत ब्रज प्रदेश रहा है। ब्रज में प्रयुक्त होने वाली भाषा, ब्रजभाषा वैसे भी इस काल तक काव्य के उपयुक्त और सरसता के लिए प्रसिद्ध रही है ब्रज भाषा का बड़ा प्रांजल रूप कृष्ण भक्त कवियों की रचनाओं में देखने को मिलता है सूरदास दो भावों के उपयुक्त भाषा प्रयोग करने में सिद्धहस्त थे। उनके विषय में निम्नलिखित दोहा इसी गुण के कारण कहा गया प्रतीत होता है।
"किधौ सूर को सर लग्यो किधौं सूर की पीर ।
किधौं सूर को पद लग्यो तन मन धुनत शरीर।।"
भाषा की सामान्य विशेषताएं जैसे सरलता, सरलता, भावनुकूलता, प्रसंगानुकूलता इन कवियों के काव्य में पाई जाती है।
8) छंद प्रयोग
कृष्ण भक्ति साहित्य में पदों का प्रयोग हुआ है। उनकी रचना करने में एक टेक देने के पश्चात तरह-तरह के छंदों का प्रयोग देखने में आता है। चौपाई, चौबोला, सार और सरसी छंद इन में प्रमुख है। नंददास में दोहा और रोला का मिलाजुला रूप 'भँवर गीत' में प्रस्तुत किया है। हरि व्यास देव ने एक दोहा और उसके नीचे पद देने का क्रम रखा है। रसखान ने कवित्त, सवैया छंद का प्रचुर प्रयोग किया है। छप्पय, कुंडली, अरिल्ल आदि छंद का भी प्रयोग कृष्ण भक्त कवियों ने किया है। छंद-प्रयोग की विविधता होते हुए भी पद रचना का आग्रह सबसे अधिक है ।
9) अलंकार योजना
अलंकार योजना की दृष्टि से भक्ति काल का काव्य समृद्ध हैं। केवल एक ही विशेष बात है कि कवियों ने अलंकारों का प्रयोग ऐसा किया है जिससे काव्य की स्वाभाविकता में कोई व्याघात नहीं पहुंचता। अलंकार ऊपर से लादे गए प्रतीत नहीं होते। सूरदास ने यूं तो अपने काव्य में अनेक अलंकारों का प्रयोग किया है पर रूपक बांधने में उनकी कला विशेष रुप से उभरी है। माया का गाय से रूपक, अपना नाचने वाले से रूपक, जल में डूबते हुए का रूपक, गोपियों का शिव जी से रुपक, गागर ले कर जाती हुई नारी का गज के रूप अनेक प्रसिद्ध रूपक है। उत्प्रेक्षा उपमा आदि भी बहुत प्रयोग किए हैं। इसके अतिरिक्त श्लेष आदि का चमत्कार और विभिन्न अन्य अलंकारों के चमत्कार से युक्त उनकी 'साहित्य लहरी' है।
10) बिंब योजना
बिंब शब्द का प्रयोग काव्य क्षेत्र में अति आधुनिक माना गया है। इसे अंग्रेजी के 'इमेज' के पर्यायवाची के रूप में लिया जाता है। विषय के साथ हमारी इंद्रियों के संपर्क से एक मूर्त रूप उभरता है। उसे ही बिंब कहा जाता है। यह बिंब नेत्र, श्रवण, नासिका जिव्हा और त्वचा के माध्यम से अनुभव किए जाते हैं । इसीलिए दृश्य, स्रोत, घ्राण, आस्वाद्य और स्पर्श पांच प्रकार के बिंब देखने में आते हैं। सूरदास के काव्य में इस प्रकार के वर्णन आए हैं जो हमारे नेत्रों के सामने उस वस्तु का चित्र सा ला देते हैं। इन्हें दृश्य बिंब कहते हैं। सूरदास के काव्य में इस तरह का एक उदाहरण देखने योग्य है। बाल वर्णन के पदों में सूर की बिंब योजना अद्वितीय है। घुटनों के बल चलते हुए कृष्ण की छवि का एक बिंब सूर के शब्दों में ही दृष्टव्य है ।
"शोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए ।
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए। लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधु ही पिए ।
11) गीति तत्व
कृष्ण भक्ति तत्व में गीति तत्व की प्रधानता है। सूरदास और अष्टछाप के कवि तो विशेष रुप से कीर्तनकार थे भगवान की सेवा में कीर्तन गा-गा कर निवेदन करने के लिए उन्होंने गीतों की रचना की है। यह संयोग की बात है कि सूरदास और कुंभनदास तो प्रसिद्ध गायकों के रूप में वैसे भी जाने जाते थे। हितहरिवंश, हरिदास, गदाधर भट्ट आदि के वचन भी गीति तत्व से युक्त है। मीरा का तो गीति की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। गीतिकाव्य की जो विशेषताएं होती है उनमें भावुकता और तन्मयता की सीमा नहीं है।' पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे' जैसे गीत उनके बहुत प्रसिद्ध है।
12) रीति तत्वों का समावेश
कृष्ण भक्ति काव्य में रीति तत्वों का समावेश भी देखने में आता है। रीति काल में आकर जिस अलंकरण की प्रवृत्ति नायिकाभेद आदि के निरूपण की प्रवृत्तियों उभरी थी उसकी आरंभिक निहिति कृष्ण भक्ति के कवियों की रचनाओं में मिल जाती है। इस दृष्टि से सूरदास की 'साहित्य लहरी' और नंद दास की 'रसमंजरी' उल्लेखनीय है। सूरदास ने साहित्य लहरी में बड़े चमत्कार पूर्ण और अलंकृत रूप में तरह-तरह की नायिकाओं के और तरह-तरह के अलंकारों के उदाहरण प्रस्तुत किए है। यह रचना बहुत अधिक शृंगारिक भी है। यह प्रवृत्तियाँ रीतिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियां है जो उस काल से पहले सूरदास में मिलती है। नंददास ने भी नायिका भेद नायिकाओं के हावभाव आदि का शास्त्रीय रूप में वर्णन किया है।
13) कृष्णलीलाओं की प्रतिकार्थकता
कृष्ण भक्ति काव्य धारा का एक वैशिष्ट्य उसे भक्ति की सभी धाराओं से अलग कर देता है। कृष्ण की जो लीलाएं वर्णित हुई है उनका अभिप्राय अलौकिक वर्णन मात्र नहीं है ऐसा माना गया है कि आत्म तत्व का ठीक प्रकार से बोध कराने के लिए कृष्ण ने लीलाएं की है। गीता में जो भगवान ने 'यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत' कहां है वह भगवान ने अवतार लेने के कारण कृष्ण भक्तों ने दूसरे रूप में लिया है कंस के वध के लिए कृष्ण का अवतार हुआ। कंस उसे कहा गया है जो पाप में गिरा दें। अज्ञान पाप में गिराता है उसी को नष्ट करने के लिए कृष्ण अवतार हुआ। रासलीला का भी कृष्ण भक्त कवियों ने प्रतीक रूप में ग्रहण किया है श्री कृष्णा रस रुप है उनके रसास्वादन की प्रतीक रासलीला है। गोपियों का घर के सारे व्यवहार को त्याग कर कृष्ण की मुरली को सुनकर दौड़-दौड़ कर आना धर्म अर्थ काम के परित्याग का प्रतीक है। सूरदास के निम्नलिखित पद में गोपियों की त्याग भावना अच्छी प्रकार प्रकट होती है।
"जब हरि मुरली अधर धरी ।
गृह व्योहार थके आरज पथ चलत न संक करी।"
निष्कर्ष :- कृष्ण भक्त कवियों के सिरमौर अंधे सूर अपने बंद नेत्रों से ब्रम्ह को माया के संबंध से रहित देखकर शुद्धाद्वैत समर्थित विचारों को भागवत सम्मत सूरसागर में अभिव्यक्त किया। बृज भाषा का महा महत्व सूरसागर कृष्ण भक्ति का आकार ग्रंथ है। भागवत पुराण से प्रभाव लेकर अपनी मौलिकता और मेधा से और कवित्व शक्ति से बड़े निखरे रूप में प्रस्तुत किया। भागवत पुराण में जिसका नाम भी नहीं है उस राधा को मूल्य देकर रसनियता का ऐसा सागर बहाया जिसमे तपोभूमि वृंदावन और ब्रज विश्वविख्यात हो गए। सूर ने वात्सल्य को रसत्व सिद्ध करने में आतिव सहायक रहा। श्रंगार का संयोग वियोग गोपियों के माध्यम से व्यक्त कर के रसनीय काव्य प्रदान किया। उन्हें वात्सल्य और श्रंगार रस का सम्राट कहा जाता है। ऊँचे भक्त और उनके कवि, दो अद्भुत शिखरों का मेल सूर के साहित्य में है। अष्टछाप के कवि और मीरा और रसखान अपनी-अपनी तरह से कार्य को आगे बढ़ाते रहें पर उनको प्रेरणा देने वाले सूरदास ही है जिनको ब्रज के पत्ते-पत्ते में और सांस-सांस में रमे कृष्ण का और उनकी आल्हादिनी शक्ति राधा का अनुभव होता रहा।
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