आपाधापी
रोजमर्रा जीवन के कटकट
घर परिवार में है
फर्ज को निभाने की कोशिश में
निकलता हूं मैं बरबस गई भीड़ में
रोज का मरना रोज का जीना
नहीं कही जीवन में थोड़ा सुकून थोड़ा आराम
यातनाओं का सफर जिंदगी भर ढोना पड़ता है
उम्र भर दीप जलाकर करते हैं प्रार्थना
अपनी खुशियों के लिए
जो जलता है उसका दर्द कोई समझता नहीं
तुम लगाते हो आग चढ़ाते हो चढ़ावा
पैसा और नैवेद्य बिना मांगे
निर्जीव मूर्ति बहाते हो दूध
तब तुम्हें नजर नहीं आते
भूक से पीड़ित लाचार बच्चे , भिखारी
मैं मेरे पेट की आग जो अब
सब को जला सकती है
पर मैं मजबूर हूं गलत व्यवस्था का शिकार हूं
अब जान गया हूं मैं,
मेरा अधिकार छीना गया है
मेरे काम पर मेरा अधिकार है
जो तुम ने छीना है मेरी रोटी तुमने छीनी है
इस आपाधापी जीवन में हमने भी देखे हैं सपने
थोड़े काम और थोड़े आराम के
थोड़ी शांति और थोडे सुख की
जो तुम ने छीनी थी ।
निर्जीव भगवानों का वास्ता देकर
छीने थे अधिकार हमारे बनकर संपोले
अब तुम्हारी चाल चलने नहीं देंगे
कोई दाल गलने नहीं देंगे, बस्स! बहुत हो चुका ।
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