एक ब्रेक की जरूरत थी

एक ब्रेक की जरूरत थी
सुबह से शाम, शाम से रात तक
दौड़ते जा रहें थे अनजान अनचाहे
रास्तों पर ।
मिटाने भूख अपनी और अपनों की
यह भूक पेट की तो मिटती रही ।
मनुष्य जानवर थोड़ी ही है जो
भूख लगने पर ही खाना ढूंढता,
महीने-सालों का खाना इक्कट्ठा किया ।
भूख दिनों-दिन बढ़ती गयी
और दौड़ लगाता रहा मनुष्य
घर - वह झोपड़ीनुमा अब कहाँ
वो तो बहुत-बहुत गरीबों की होती है ।
घर से मतलब बंगाल, महल या फ्लैट
 में तब्दील हुयी ऐयाश जिंदगी
छीनता रहा प्राकृतिक संसाधन
चूसता रहा दीन दलितों का खून
करता रहा अन्याय अत्याचार
कल-कारखानों में कामगारों का,
फैक्टरियों में मजदूरों का
हॉस्पिटलों में नर्स, डॉ. वार्ड बॉय
चपरासी जैसे कामगारों का
 स्कूल और कॉलेज में विद्यार्थी,
शिक्षक, क्लर्क और चपरासी का
जमींदार गाँव के खेतिहरों का
ज़ालिम बनकर पीते रहे रक्त
हर एक पैसेवाला मस्ती में चूर था ।
घमंड और नशे के कारण
भूल गया मनुष्य-मनुष्य को
स्वतन्त्र भारत और विश्व में
 पुनः मनु जिंदा हो गया था ।
ज्ञान और शिक्षा के आगे
 पैसा बड़ा हो गया था ।
गुलाम बने ज्ञान और शिक्षा
हो गई ऐसी विश्व की दशा
सृष्टि में नहीं दौड़ की सीमा
इसलिए मनुष्य को
एक ब्रेक की जरूरत थी।

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